कहानी- मन की कस्तूरी 4 (Story Series- Mann Ki Kasturi 4)

उसे दूर नज़रों से ओझल होता देख शैली सोचने लगी कि जैसे मृग अपनी नाभि में धारण किए कस्तूरी को ताउम्र ढूंढ़ता यहां-वहां भटकता रहता है, ठीक वैसे ही शैली भी अपने होने न होने के औचित्य में अपने आपको खोज रही थी. पंद्रह वर्ष पहले उसकी कही एक छोटी-सी अर्थहीन बात, जो शैली की सोच में फांस बन चुभती रही, उसका अधूरा व्यक्तित्व और उसके ‘मैं’ को वह स्वयं आकर नई चेतना और दिशा दे गया था.

“देखा…” अति उत्साह से कबीर उछल पड़े, “मैंने कहा था न, तुम इन्हें ज़रूर जानती होगी.” पर शैली कहां जानती थी उसे? परिचय तो दूर, वह तो बन्दे का नाम तक नहीं जानती. मूक प्रस्तर बनी वह चुपचाप सामने बैठी रही कि जाने किस बात को बताने में क्या का क्या अर्थ निकल आए? शिष्टतावश कबीर उसे अपने व्यवसाय, अपने घर-बच्चों की बातों में व्यस्त किए हुए थे, परन्तु उसकी उचाट दृष्टि कहीं बहुत दूर कुछ तलाश रही थी.

स्त्रियों की रचना करते समय ईश्‍वर उसे अद्भुत अंतर्दृष्टि भी देता है, जो पुरुषों से अलग और गहरी होती है. शैली ने देखा, अब वह वैसा नहीं रहा जैसा पहले था, उल्लास से भरा, हाजिर जवाब, उन्मुक्त.

“एक बच्ची है, बोर्डिंग स्कूल में रहती है. पत्नी दूसरे शहर में प्राध्यापिका हैं और मैं आज भी अकेला रहता हूं, इन्हीं के शहर में…” शैली की ओर इशारा करता हुआ हल्का-सा मुस्कुराया था वह.

“पत्नी का कहना है कि इतनी पढ़ाई, मेरे माता-पिता की तपस्या घर बैठकर यूं ही व्यर्थ जाने दूं?” बिना अर्धविराम, पूर्णविराम बदले एकदम हू-ब-हू उसी वाक्यांश को उसने दोहराया. पर इस बार उसके भाषाई संकेतों का लक्ष्य शैली को आहत करना नहीं था. उसके चेहरे के आते-जाते भावों को देखकर शैली सोचने लगी, कई बार हम अपनी सफलता को किन्हीं भौतिक सुविधाओं और आर्थिक स्वावलंबन के दायरे में देखने की आदत बना लेते हैं, जबकि प्रगति और प्रसन्नता के बीच की वास्तविक दूरी हमारी दृष्टि ही होती है, जो इन दोनों सिरों को जोड़ सकने में समर्थ हो. “शैली, ये जा रहे हैं?” कबीर के हिलाने पर वह अपने आप में लौटी.

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थके क़दमों से जाते हुए उसने दोनों को न्यौता दिया, “कभी अपने शहर आएं, तो हमारे मकान पर आइएगा… हम तीन प्राणी तीन कोनों में रहते हैं, मैं अकेला ही रहता हूं, इसलिए उसे घर तो नहीं कह सकता, फिर भी मुझे अच्छा लगेगा.”

“शैलीजी, मुझे कुछ याद आ रहा है…” दरवाज़े से बाहर निकलते हुए उसने कहा, “आपने यही कहा था न कि शिक्षा कभी व्यर्थ नहीं जाती… सही कहा था. आप अकेली दोनों बच्चों को शिक्षित कर रही हैं. हम दो शिक्षित माता-पिता मिलकर अपनी एक बच्ची के लिए कुछ भी नहीं कर पाए. ज्ञान का जाया होना सच्चे अर्थों में इसी को कहते हैं.”

उसे दूर नज़रों से ओझल होता देख शैली सोचने लगी कि जैसे मृग अपनी नाभि में धारण किए कस्तूरी को ताउम्र ढूंढ़ता यहां-वहां भटकता रहता है, ठीक वैसे ही शैली भी अपने होने न होने के औचित्य में अपने आपको खोज रही थी. पंद्रह वर्ष पहले उसकी कही एक छोटी-सी अर्थहीन बात, जो शैली की सोच में फांस बन चुभती रही, उसका अधूरा व्यक्तित्व और उसके ‘मैं’ को वह स्वयं आकर नई चेतना और दिशा दे गया था. जाते-जाते उसके मन की कस्तूरी से उसका परिचय करानेवाला ‘वो’ उसके लिए तब भी अजनबी था, आज भी अजनबी है.

       पूनम मिश्रा

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