कहानी- पुनर्जन्म 1 (Story Series- Purnjanam 1)

हर्ष तो उनकी हिट लिस्ट में हैं. फिर इधर एक-दो घटनाएं कुछ ऐसी घट गई हैं कि हमें लगने लगा है कि उनकी नज़रें आर्यन पर भी हैं. न जाने वे क्या करना चाहते हैं? उसे अगवा करना या कुछ और?…” घबराहट के मारे उनका स्वर रूंधने लगा था…
नीरा ने भी डरकर मेरा हाथ थाम लिया था.

सहयात्रियों में पुनर्जन्म संबंधी चर्चा ज़ोर पकड़ चुकी थी. हर कोई अपने अनुभवों और सुने हुए क़िस्सों से पुनर्जन्म की विश्‍वसनीयता पर ठप्पा लगाता जा रहा था. यदि यही चर्चा मुझे जाते हुए सुनने को मिली होती, तो मैं अवश्य ही इन लोगों से भिड़ गया होता और अपने अकाट्य तर्कों से एक-एक का मुंह बंद कर दिया होता. सोच हालांकि अब भी वही थी, पर कहते हैं न कि जब इंसान का मन क्षुब्ध हो और भावनाएं आहत, तो वह आसपास से निर्लिप्त स्वयं में डूबे रहना ही पसंद करता है. आर्यन के शोक संतप्त माता-पिता से मिलकर लौटते हुए मेरी मनःस्थिति भी कुछ-कुछ ऐसी ही हो रही थी. मैं भी आसपास के वातावरण से निर्लिप्त अपने ही विचारों में खो गया था. आगे जाती हुई ट्रेन मेरी विचार शृंखला को पीछे की ओर लिए जा रही थी.

पूरा सालभर भी तो नहीं बीता है उस बात को, जब आर्यन अपनी मां के साथ हमारे घर आया था. उसके पिता हर्ष का मेरे पास पहले ही फोन आ गया था. वह इंजीनियरिंग में मेरे साथ था. डिग्री पूरी होने पर मैं अध्यापन के क्षेत्र में आ गया और वह सिविल सर्विसेज़ में प्रविष्ट होकर एसपी बन गया. तब से हमारा कोई विशेष संपर्क और संवाद नहीं था. पर कौन कहां नौकरी कर रहा है, यह खोज-ख़बर परस्पर दोस्तों के माध्यम से लगती रहती थी. मैं जानता था उसकी नियुक्ति अभी नक्सली एरिया में है. अपने बेटे आर्यन का प्रवेश उसने इस सुदूर कॉलेज में क्यों करवाया है, इसका कुछ-कुछ अनुमान मैं लगा चुका था. शेष संशय की पुष्टि मधु भाभी ने कर दी थी. पहली मुलाक़ात में ही वे मुझे काफ़ी समझदार और सुलझे विचारोंवाली महिला लगी थीं. आर्यन से मेरी और नीरा की हाय-हेलो हो जाने के बाद उन्होंने कॉलेज देखने के बहाने उसे ड्राइवर के साथ बाहर भेज दिया था. उसके तुरंत बाद वे हमारी ओर मुखातिब हो गई थीं.

“आर्यन लौटे इससे पूर्व मैं आपके सम्मुख सारी स्थिति स्पष्ट कर देना चाहती हूं. हालांकि वस्तुस्थिति से आर्यन भी अवगत होगा, फिर भी उसके सम्मुख ये सारी बातें करना मुझे उचित नहीं लगा. अपने दोस्त हर्ष को तो आप जानते ही हैं. अपनी नौकरी और कर्तव्य के सम्मुख वह इंसान कभी घुटने नहीं टेकेगा. हमारे उधर नक्सलियों का आतंक बहुत बढ़ गया है. हर्ष तो उनकी हिट लिस्ट में हैं. फिर इधर एक-दो घटनाएं कुछ ऐसी घट गई हैं कि हमें लगने लगा है कि उनकी नज़रें आर्यन पर भी हैं. न जाने वे क्या करना चाहते हैं? उसे अगवा करना या कुछ और?…” घबराहट के मारे उनका स्वर रूंधने लगा था…

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नीरा ने भी डरकर मेरा हाथ थाम लिया था. मैंने सांत्वना स्वरूप उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया था.

“… हर्ष तो ज़िद्दी हैं, पीछे नहीं हटेंगे. मुझे ही आर्यन को लेकर कहीं और चले जाने को कहते हैं, पर ऐसा कैसे हो सकता है? अर्द्धांगिनी हूं मैं उनकी. जब तक सांस है, उनका साथ निभाऊंगी. पर आर्यन को हमने इस शांत इलाके में आपकी देखरेख में छोड़ने का फैसला कर लिया है. आर्यन बहुत होमसिक है. हमसे एक पल को भी दूर नहीं होना चाहता. बड़ी मुश्किल से उसे यहां छोड़ने के लिए मना पाए हैं. उम्मीद है, हॉस्टल में हमउम्र लड़कों के संग जल्दी ही उसका मन लग जाएगा. फिर आप उसके स्थानीय अभिभावक तो हैं ही उसे संभालने के लिए.”

हमने उन्हें आश्‍वस्त किया कि वे आर्यन की ओर से पूर्ण निश्‍चिंत हो जाएं. इस शांत इलाके में और विशेषकर कॉलेज के इस सुरक्षित परिसर में उसे कोई ख़तरा नहीं है. बात आई गई हो गई थी. वैसे भी जान-पहचान के इस तरह के तीन-चार बच्चे प्रतिवर्ष आ ही जाते थे. थोड़े समय में वे ख़ुद ही परिपक्व और अभ्यस्त हो जाते थे. इस बात को भी दो माह बीत चुके थे.

आर्यन मेरे विषय में नहीं था, इसलिए फिर कभी उससे मिलना ही नहीं हुआ. एक दिन वह मुझसे गलियारे में टकरा गया. उसने नमस्ते की तो मैं चौंका. ‘अरे, मैं तो इसे भूल ही गया था.’

“कैसे हो बेटा? पढ़ाई ठीक चल रही है? कोई समस्या तो नहीं? हो तो बताना. मेरा नंबर तो तुम्हारे पास है ही. कभी व़क्त मिले तो घर आ जाया करो.” दो औपचारिक बोल बोलकर मैंने अपने कर्तव्य की इतिश्री तो कर ली. पर मन ही मन मैं काफ़ी शर्मिंदा हो उठा था. जिन परिस्थितियों में और जिस विश्‍वास से उसके माता-पिता उसे मेरे भरोसे छोड़कर गए थे, क्या मैं उस विश्‍वास पर खरा उतर पाया?…

      संगीता माथुर

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