कहानी- मन्नत के सिक्के 4 (Story Series- Mannat ke sikke 4)

वापसी में सबका हरिद्वार जाने का कार्यक्रम था. वहां हर की पौड़ी की आरती के विहंगम दृश्य के लिए सबने सीढ़ियों पर पहले से ही अपनी जगह बना ली. पावन अलौकिक दृश्य को देख सभी अभिभूत थे. सहसा साकेत ने दमयंतीजी के दोनों हाथों को थामते हुए कहा, “अम्मा, आज हरिद्वार में एक झूठ के पाप से ख़ुद को मुक्त करना चाहता हूं.”
दमयंतीजी की प्रश्‍नवाचक नज़रों के सामने उसने पुराना राज़ खोला, “अम्मा, जब अमृता प्रेग्नेंट थी…”

अमृता ने उत्सुकता से पूछा, “क्या हुआ, सब ठीक तो है? और हां, कौन-सा रिज़ल्ट आनेवाला है…” अमृता के प्रश्‍न पर उसने चकराने का
स्वांग रचा, फिर हंसकर बोली, “अरे, मम्मा मैं तो प्रेग्नेंसी के रिज़ल्ट की बात कर रही हूं…” यह सुनते ही अमृता शर्म से लाल हो गई और दमयंतीजी ने बिदककर माला छोड़ दी और सहसा उत्तेजना से दांत किटकिटाते हुए बोलीं, “हे भगवान! क्या बक रही है ये बेशर्म लड़की. देख लेना बहू, एक न एक दिन ये कोई ना कोई गुल ज़रूर खिलाएगी. इसके लच्छन अच्छे नहीं है. संभाल सके तो संभाल ले इसे…” दमयंतीजी की चिल्लाहट-चिड़चिड़ाहट को अनसुना करती बिंदास पलक समझाने पर तुली थी, “अरे दादी, कल उसने कोई प्रीकॉशन नहीं लिया. मतलब वो गोली होती है न… क्या कहते हैं उसे, हां गर्भनिरोधक… अरे, समझीं या नहीं! बस, वही अनु ने नहीं लिया. और अब डर रही है कि क्या होगा?” यह सुनते ही, ‘अरे, चुप हो जा लड़की… हे भगवान्!’ चिल्लाते हुए उन्होंने अपना सिर पकड़ा. जहां अमृता उसे उसकी बेबाक़ी पर डांट पिलाने में जुट गई, वहीं दमयंतीजी अपनी छूटी हुई माला संभालते हुए कभी अमृता को, तो कभी पलक को कोसतीं, “यह देख छूट का नतीजा… ये चाल-चलन सिखाए हैं.” मां को पड़ती डांट से झुंझलाकर पलक और सफ़ाई देती, “अरे, हद है. आप लोग ऐसे रिएक्ट कर रहे हैं जैसे अनुदिता कुंआरी मां बनने जा रही है. शादीशुदा है वो दादी… पूरे सात फेरोंवाली शादी की है…” दबंग पोती के सामने हथियार डालती दमयंतीजी कुछ देर बाद उसे शांति से समझाती नज़र आईं. “बिटिया, ऐसी बातें खुलेआम नहीं की जाती हैं. लाज-शर्म लड़कियों का गहना है…”
“हां दादी, पर ये गहना आउटडेटेड मतलब बहुत-बहुत पुराना हो गया है.” कहते हुए निश्छल उन्मुक्त निर्दोष हंसी, जो उस वक़्त चारों ओर बिखेरी थी, वो उस समय तो अमृता-दमयंतीजी को चिढ़ा गई. पर आज वो प्रसंग पुरानी चुलबुली पलक को पाने का साधन बनकर अमृता के होंठों पर मुस्कान ले आया.
विचारों के घेरे से बाहर आई अमृता ने देखा, पलक इत्मिनान से दादी की कमज़ोर देह से ख़ुद को टिकाए सो गई थी और उसकी दादी प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर रही थीं.

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दूसरे दिन वापसी के समय पलक मिलने आई, तो दमयंतीजी ने उसे सीने से लगाकर ढेरों आशीष दे डाले. वापसी में सबका हरिद्वार जाने का कार्यक्रम था. वहां हर की पौड़ी की आरती के विहंगम दृश्य के लिए सबने सीढ़ियों पर पहले से ही अपनी जगह बना ली. पावन अलौकिक दृश्य को देख सभी अभिभूत थे. सहसा साकेत ने दमयंतीजी के दोनों हाथों को थामते हुए कहा, “अम्मा, आज हरिद्वार में एक झूठ के पाप से ख़ुद को मुक्त करना चाहता हूं.”
दमयंतीजी की प्रश्‍नवाचक नज़रों के सामने उसने पुराना राज़ खोला, “अम्मा, जब अमृता प्रेग्नेंट थी, उस समय आपके कहने के बावजूद मैंने कोई लिंग जांच नहीं करवाई थी. गर्भ में लड़का है, इसकी झूठी रिपोर्ट मेरे दोस्त ने बनवाई थी. सच कहूं अम्मा, अगर लिंग जांच क़ानूनन सही होता, तो भी बेटी को बेटा बताकर हम पलक को बचा लेते. आज तक बस यही झूठ बोला है. कई बार मन में आया आपको बता दूं, पर कह नहीं पाया और आज यहां बिना कहे नहीं रहा गया. अब जो सज़ा देना हो दे दो.” साकेत के मुंह से यह सुनकर वहां मौन व्याप्त हो गया.
लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी, उस शोर-शराबे के बीच असहज मौन को तोड़ा घंटे की आवाज़ ने… आरती का समय था. घंटे-घड़ियाल, दीयों की रोशनी और आरती की आवाज़ के बीच गंगा का पवित्र तट भक्तों से अटा अद्भुत दिखता था. साकेत रह-रहकर अम्मा को देखता, जो अश्रुपूरित आंखों को मूंदें दोनों हाथों से ताली बजाकर आरती गा रही थीं.
वापसी में रास्तेभर अमृता साकेत से नाराज़ रही. उसके हिसाब से साकेत ने अम्मा को सच कहकर सही नहीं किया. बुढ़ापे में बेटे-बहू का धोखा ना जानती, तो क्या फ़र्क़ पड़ जाता. वापसी में दमयंतीजी मौन रहीं. घर आने पर भी वह चुप-चुप सी रहीं. अमृता ने बात बढ़ाने से बिगड़ेगी सोचकर पूर्ववत् सामान्य व्यवहार किया, पर अम्मा असामान्य थीं. कुछ उलझीं, कुछ परेशान-सी…

        मीनू त्रिपाठी

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