“कितना अजब है यह मन! कितना कंफ़्यूज़्ड! तुम्हें अपने परिवार के साथ ख़ुश देखकर अच्छा लगा, बहुत अच्छा. पर कहीं उदास भी हो आया मन. किशोरावस्था में क्रश था तुम पर. सच पूछो तो उससे बढ़कर ही था कुछ, पर मन की बात अनकही ही रह गई और समय बहुत आगे बढ़ गया.
नहीं जानता मैं तुम्हारे घर किस उम्मीद से आया था. सच कहूं, तो कहीं छुपी उम्मीद थी ज़रूर. मरीचिका क्या केवल मरुभूमि में ही देखी जाती है? जीवन में भी हम अनेक बार ऐसी मरीचिकाओं के पीछे नहीं भागते क्या, जिनकी वहां होने की संभावना ही नहीं होती? ग़लती तो तब होती है, जब हम मरीचिका का झूठ जान लेने के पश्चात् भी उसे पाने का हठ किए रहते हैं.
पुरानी पीढ़ी घर के सब काम करने के पश्चात् भी रिश्ते निभाने का समय निकाल ही लेती थी, पर किसी रेस में निरंतर भागती-सी इस नई पीढ़ी के पास कहां है ठहरकर अपने सगे-संबंधियों की टोह लेने का समय. सो भीतर जैसे रेगिस्तान-सा कुछ पसर गया है. मैंने बहुत कोशिश की पत्नी मनीषा के साथ सामंजस्य बिठाने की, पर वह बंधनमुक्त जीवन जीना चाहती थी और उसके पिता ने ज़बरदस्ती उसका विवाह कर दिया था. अब तो वह विदेश जा बसी है. मेरा दुख यह भी है कि हमारी तीन वर्षीया बेटी को भी साथ ले गई है. दुनिया में मेरा केवल उसी से सीधा रक्त संबंध है. बहुत अकेला महसूस करता हूं मैं, चाहता हूं किसी से मन की बात साझा करूं, किसी अपने से ख़ुशियां और ग़म बांटूं, अपनी उपलब्धियों और निराशाओं की बात करूं…”
उसका एक ईमेल लगभग हर रोज़ आता. बस, किसी से जुड़ने की चाह, कभी वह क़िताबों की बातें करता, कभी पुराने परिचितों के बारे में, तो कभी राजनीति की.
अकेलापन तो मेरे जीवन में भी था. बच्चे छोटे थे, तो उनकी परवरिश, उन्हें पढ़ाने में ही समय निकल जाता था. बड़ी कक्षाओं के गणित और विज्ञान पर मेरी पकड़ नहीं थी. अब उन्हें ट्यूटर पढ़ाने आते थे. यूं भी मेरी रुचि साहित्य में अधिक थी. गिरीश को दफ़्तर में ही ख़ूब काम रहता. लंबे दौरों पर जाना पड़ता. मुझे लगता बेकार हो गई हूं मैं अपने ही घर में. यूं सब कुछ सही था मेरे जीवन में. गिरीश मेरे किसी काम में दख़लअंदाज़ी न करते, न कभी ज़बरदस्ती का अधिकार जताया. जिस दिन डीवी का पहला ईमेल आया था, उसी दिन मैंने गिरीश को पूरी बात बता दी थी. पूरा विश्वास था उन्हें मुझ पर. बच्चे भी आजकल के बच्चों की तरह उच्छृंखल न थे. बस, अपने मित्रों में व्यस्त और मस्त रहते, जो स्वाभाविक ही था. इस मोड़ पर आकर ठहर-सी गई थी ज़िंदगी. मन करता शहर में लगा नाटक देखने जाऊं. कवि सम्मेलन, मुशायरों में जाना चाहती, परंतु गिरीश को न तो शौक़ था, न ही समय. जीवन क्या स़िर्फ रोटी, कपड़ा और मकान की ज़रूरत पूरी करने के लिए ही मिला था?
हमारा यह भीतरी खालीपन, एक-दूसरे पर भावनात्मक निर्भरता दिन-ब-दिन हमें एक-दूसरे के क़रीब ला रही थी. निसंदेह डीवी का जीवन मुझसे कहीं अधिक वीरान था और पुराने मैत्री के नाते उसका संबल बनना मुझे अपना कर्त्तव्य लगता था.
एक दिन उसने बताया कि उसे दफ़्तर के काम से चंडीगढ़ आना है और मुझसे मिलने हेतु वह निश्चित तिथि से एक दिन पूर्व ही आ जाएगा. उसका सुझाव था कि हम किसी कॉफी हाउस में मिलें, ताकि लंबी बातें कर सकें. परंतु मैंने उसे अपने घर डिनर पर आमंत्रित किया, जिससे वह गिरीश एवं बच्चों से भी मिल सके. यूं चाहे गिरीश कितने व्यस्त रहते हों, पर उन्हें लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है. सो उन्होंने शीघ्र ही देव से मैत्री स्थापित कर ली. बच्चे पहले तो अपनी पढ़ाई कर रहे थे, पर भोजन हम सबने मिलकर किया. बेटी शर्मिष्ठा तो थोड़ी शर्मीली है, पर बेटा अर्जुन, जो बैडमिंटन में अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है, उसे ज्यों ही पता चला कि डीवी बैडमिंटन चैंपियन रह चुका है- वे दोनों पुराने मित्रों की तरह बातें करने लगे.
हंसी-ख़ुशी के इस माहौल में किसी का उठने को मन नहीं कर रहा था. मुझे ही याद दिलाना पड़ा कि सुबह बच्चों को स्कूल भी जाना है.
दिल्ली लौटकर देव का ईमेल आया.
“कितना अजब है यह मन! कितना कंफ़्यूज़्ड! तुम्हें अपने परिवार के साथ ख़ुश देखकर अच्छा लगा, बहुत अच्छा. पर कहीं उदास भी हो आया मन. किशोरावस्था में क्रश था तुम पर. सच पूछो तो उससे बढ़कर ही था कुछ, पर मन की बात अनकही ही रह गई और समय बहुत आगे बढ़ गया.
नहीं जानता मैं तुम्हारे घर किस उम्मीद से आया था. सच कहूं, तो कहीं छुपी उम्मीद थी ज़रूर. मरीचिका क्या केवल मरुभूमि में ही देखी जाती है? जीवन में भी हम अनेक बार ऐसी मरीचिकाओं के पीछे नहीं भागते क्या, जिनकी वहां होने की संभावना ही नहीं होती? ग़लती तो तब होती है, जब हम मरीचिका का झूठ जान लेने के पश्चात् भी उसे पाने का हठ किए रहते हैं. पर हम उस ज़माने में परिपक्व हुए हैं, जब भावनाओं को मन के नहीं, बुद्धि के अधीन रखने की सीख दी जाती थी.”
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लक्ष्मण द्वारा सीता के गिर्द खींची रेखा का असली सत्य यही था कि उसके भीतर कोई प्रवेश नहीं कर सकता था, पर वह सीता के लिए बंधन नहीं था. उससे बाहर आने को स्वतंत्र थी सीता. एक आगाह मात्र था कि रेखा के बाहर ख़तरा है. हम सामान्य मनुष्यों को अपनी लक्ष्मण रेखाएं स्वयं खींचनी होती हैं, जो हमारे जीवन को मर्यादित रखें और समाज को व्यवस्थित. और अपनी लक्ष्मण रेखा की सीमा अच्छी तरह से जानती हूं मैं.
उषा वधवा
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