कहानी- पैरों की डोर 5 (Story Series- Pairon Ki Dor 5)

“मैं उसकी तरह जिंदगी नहीं जीना चाहती. प्लीज़ अपने पापा से कहकर मेरे लिए काम का इंतजाम करा दे, जिससे मैं काम भी कर सकूं और पढ़ भी सकूं.”

“तुझे तो कोई काम आता ही नहीं है.”
“मैं सीख लूंगी, लेकिन प्लीज़ मुझे इस जगह से बाहर निकाल दे. कहीं ऐसा न हो…” कहते कहते उसका गला रुंध गया. आज
उसकी आवाज़ में इतना दर्द था कि आशा की आंखें भी भर आईं.

 

 

… “मैं तेरी स्थिति समझता हूं. मुझ पर भरोसा रख. इसे यही ठेली के पास बिठा दिया कर. मेरा कहा मान लें. सोनी यही पर पढ़ाई भी कर लेगी और दुनिया की बुरी नज़र से भी बची रहेगी.”
रहीम की बात उसकी समझ में आ गई. वह अपने ठेले के बगल में बोरी बिछा देता. सोनी उस पर बैठकर अपनी स्कूल का काम करती और पढ़ाई भी.
वह पढ़ने में बहुत अच्छी थी और स्वभाव से भी बहुत भली. उसे इस बात का बड़ा मलाल था कि उसका कोई घर नहीं था. आज तक उसने मां के साथ सड़क पर जिंदगी बितायी थी. लेकिन अब उसे अपनी सुरक्षा का भी खतरा लगा रहता. रहीम काका की ठेली के पास भोटू भी आकर उसकी बगल में बैठ जाता. भोटू से उसे बहुत सुरक्षा मिलती और वह उससे ऐसे बातें करती जैसा कि कोई अपना सगा हो. वह बहुत ध्यान से उसकी बातें सुनता.
दसवीं कक्षा में आते ही आशा के पिताजी का तबादला देहरादून हो गया था. उसका यहां से जाने का सोनी को बहुत बुरा लगा. आशा बोली, “तू चिंता मत कर मैं तुझसे फोन पर बात किया करूंगी.”

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“लेकिन मेरे पास तो फोन नहीं है.”
“तेरे काका के पास तो है. मैं उसी नंबर पर तुझसे बात किया करूंगी. तू उनका नंबर मुझे दे दे.”
“पहले मैं उनसे पूछूंगी, फिर तुम्हें उनका फोन नंबर लाकर दूंगी.” सोनी बोली.
स्कूल से छुट्टी के बाद उसने रहीम काका को यह बात बताई. उन्होंने उसे अपना नंबर दे दिया और साथ में हिदायत भी, “अपनी मां को कभी मत बताना कि तू किसी से फोन पर बात करती है. नहीं तो वह मुझ पर भी भरोसा नहीं करेगी.”
“ठीक है काका मैं नहीं बताऊंगी.”
हाई स्कूल तक आते सोनी पंद्रह साल की हो चुकी थी. एक जवान लड़की को आते-जाते लोग ललचाई नजरों से देखते. सोनी इन सबसे बहुत परेशान थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? मां ममता की भाषा के अलावा और कुछ नहीं समझती थी. वह उसे अपने आंचल में छुपा कर रखना चाहती. जवान बेटी के लिए वह अब छोटा और कमजोर पड़ने लगा था. दुनिया की ऊंच-नीच के बारे में उससे बात करना बेकार था.
अब सोनी को अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगी थी. आशा से फोन पर उसकी अक्सर बात होती रहती. हाई स्कूल के इम्तिहान हो गए थे. एक दिन वह बहुत दुखी होकर बोली, “आशा अब मैं अपनी मां के साथ नहीं रहना चाहती .”
“यह क्या कह रही है?”
“मैं ठीक कह रही हूं. तू खुद सोच एक मंगती की बेटी का भविष्य क्या हो सकता है? भीख मांगकर उसने मुझे यहां तक पहुंचाया. मां की सोच इससे ऊपर नहीं है. सड़क पर रहकर मैं दुनिया की नजर से कब तक बची रह सकती हूं. मां तो किसी तरह अपनी जिंदगी काट रही है. मैं उसकी तरह जिंदगी नहीं जीना चाहती. प्लीज़ अपने पापा से कहकर मेरे लिए काम का इंतजाम करा दे, जिससे मैं काम भी कर सकूं और पढ़ भी सकूं.”
“तुझे तो कोई काम आता ही नहीं है.”
“मैं सीख लूंगी, लेकिन प्लीज़ मुझे इस जगह से बाहर निकाल दे. कहीं ऐसा न हो…” कहते कहते उसका गला रुंध गया. आज
उसकी आवाज़ में इतना दर्द था कि आशा की आंखें भी भर आईं. शाम को उसने अपने पापा से बात की. वे बोले, “मेरे दोस्त की बहन एक डिग्री कॉलेज में पढ़ाती है. उसके पति नही रहे. उसकी छोटी सी बेटी आरुषि को देखने के लिए घर पर एक लड़की की जरूरत है. मैं उनसे बात करता हूं.”
“प्लीज़ पापा आप उसके लिए कुछ कीजिए. नहीं तो सोनी की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी.”
उन्होंने शर्मा मैडम से बात की. वह सोनी को रखने के लिए तैयार हो गयी. आशा ने यह जानकारी उसे फोन पर दे दी. यह सुनकर सोनी को बड़ी तसल्ली हुई.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें… 


डॉ. के. रानी

 

 

 

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Usha Gupta

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