कहानी- परिदृश्य 1 (Story Series- Paridrishay 1)

काश क़ानून की किताब में कोई ऐसा प्रावधान होता, जो मन पर रोक लगाने में भी सक्षम होता. मन तो अभी भी प्यार करता है, अभिनव से. प्यार…? उस समय यह प्यार रसातल में क्यों चला गया था, जब अभिनव के साथ समझौता नहीं किया था. उफ़़्फ्! बेचैनी में मैंने करवट बदली.

लैपटॉप के स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही मैं हतप्रभ रह गई. शरीर और दिमाग़ दोनों ही चेतनाशून्य से हो गए. पायल की आवाज़ किसी गहरे कुएं से आती प्रतीत हो रही थी, “क्यों रह गई न दंग, कितनी डैशिंग पर्सनैलिटी है न. बस, एक ही हिचक है पापा-मम्मी को. अभिनव का तलाक़ होनेवाला है, किंतु मैंने कह दिया है मुझे कोई एतराज़ नहीं है.”

“एक तलाक़शुदा से शादी करेगी? दिमाग़ ख़राब तो नहीं हो गया तेरा.” अपने स्वर की उत्तेजना पर मैं स्वयं ही संकुचित हो उठी. क्या सोचेगी पायल, किंतु प्रसन्नता के अतिरेक में पायल अपनी ही धुन में बोल रही थी, “डिवोर्सी होने से क्या? है तो अमेरिकन सिटिज़न. अमेरिका में बस जाऊंगी मैं. यह ख़्याल ही रोमांचित करने के लिए काफ़ी है.”

“…और उसके पैरेंट्स?” धीमे स्वर में पूछा मैंने. “इस समय वे लोग मुंबई में हैं. अभिनव ने उनका ग्रीन कार्ड अप्लाई कर दिया है.”

“ओह, फिर अमेरिका में बसने का क्या फ़ायदा, जब वहां भी सास-ससुर का झंझट झेलना पड़े.”

“नहीं काव्या, यह पूर्वाग्रह से ग्रसित मन की सोच है और इसी सोच के चलते लड़कियां सास-ससुर के साथ संतुलन नहीं बैठा पातीं और दुखी रहती हैं. जिन लोगों को अभी परखा नहीं, उनके बारे में राय कायम कर लेना क्या ग़लत नहीं?”

“पायल, आदर्शवाद और यथार्थ में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है. जब सास की टोका-टाकी, बंदिशें और रात-दिन उसका अपने बेटे से तुम्हारी शिकायतें करना झेलोगी, तो सारा जोश उतर जाएगा…” मैंने उसे निरुत्साहित करना चाहा, किंतु वह बोली, “अपने जीवन की नई शुरुआत मैं पॉज़िटिव सोच के साथ करना चाहती हूं काव्या. सास-ससुर भी माता-पिता के समान होते हैं. उनके साथ बंधन है, तो उस बंधन में सुख भी है. ममता और स्नेह की छांव भी है. सहयोग और सुरक्षा भी है.” उसकी बातों ने मुझे निरुत्तरित कर दिया. पायल मेरे साथ मेरे ही ऑफिस में काम करती थी, किंतु अपने अतीत के बारे में मैंने उसे कभी कुछ नहीं बताया था.

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रात में सोने के लिए बिस्तर पर लेटी, तो एक अजीब-सी हलचल हो रही थी मन में, अजीब-सी बेचैनी, मानो कोई नितांत अपना ख़ुद से दूर जा रहा हो. अपना? हां, अपने ही तो हैं अभिनव. दो वर्ष साथ गुज़ारे हैं हमने. पायल उन्हें मुझसे नहीं छीन सकती. किंतु किस अधिकार से रोक सकती हूं मैं उसे? रोक क्यों नहीं सकती? पति हैं अभिनव मेरे… पति नहीं, पूर्व पति कहो. कोर्ट में उन्होंने डिवोर्स की एप्लीकेशन डाली हुई है. उनकी ज़िंदगी पर अब तुम्हारा कोई

अधिकार नहीं. अधिकार कैसे नहीं? एप्लीकेशन ही तो डाली है. डिवोर्स हुआ तो नहीं न. अभी तो हमारा कूलिंग पीरियड चल रहा है. आज भी अभिनव मेरे हैं, स़िर्फ मेरे… स्वसंवादों में उलझा हुआ मन. भावनाओं के तेज़ प्रवाह को बुद्धि यथासंभव अपने तर्कों के बांध से रोकने का प्रयास कर रही थी, किंतु मन को कोई बंधन स्वीकार्य नहीं था. वह तो उन्मुक्त होकर बहा जा रहा था अपने अभिनव के पास. काश क़ानून की किताब में कोई ऐसा प्रावधान होता, जो मन पर रोक लगाने में भी सक्षम होता. मन तो अभी भी प्यार करता है, अभिनव से. प्यार…? उस समय यह प्यार रसातल में क्यों चला गया था, जब अभिनव के साथ समझौता नहीं किया था. उफ़़्फ्! बेचैनी में मैंने करवट बदली.

सवालों और जवाबों के प्रहार से क्लांत मन सुकून की तलाश में पुन: अभिनव के साथ बिताए दिनों की शीतल छांव में जा बैठा. कितने ख़ूबसूरत और मदमस्त दिन थे वो. अभिनव, मैं और न्यूयॉर्क की जगमगाती शामें. स्मार्ट होने के अलावा उनका अमेरिकन सिटिज़न होना इस रिश्ते को स्वीकार करने की बहुत बड़ी वजह था. न सास-ससुर का दायित्व, न ही ननद की दख़लअंदाज़ी. सब कुछ मेरे मन मुताबिक़ नियति ने मुक्त हाथों से मेरे जीवन में ख़ुशियां बिखेरी थीं, किंतु कहां सहेज पाई मैं उन ख़ुशियों को. मेरी हठधर्मिता और अहम् ने तिनका-तिनका बिखेर दिया.

प्रारंभ में अभिनव ने समझौते का काफ़ी प्रयास किया. सब कुछ भुलाकर एक नई शुरुआत करना चाहते थे वो, किंतु सौंदर्य के दर्प में चूर मैंने उनकी एक न सुनी. न जाने कौन-सा जुनून सवार था मुझ पर, जिसने मेरी सोचने-समझने की शक्ति को कुंद कर मुझे एक अनिश्‍चित भविष्य की ओर धकेल दिया. जब तक मेरा विवेक जागता, बहुत देर हो चुकी थी. विमुख हो गए थे अभिनव मुझसे और फिर एक शाम अप्रत्याशित रूप से अभिनव ने जो कुछ भी कहा, वह मेरे अस्तित्व को झकझोर देने के लिए काफ़ी था. मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि वह मुझे डिवोर्स देने का निश्‍चय कर लेंगे. मैंने उन्हें मनाने का प्रयास किया, किंतु अभिनव का हृदय नहीं पसीजा. फिर मेरा अहम् भी आड़े आ गया. जब उन्हें मेरी परवाह नहीं, तो मैं ही क्यों झुकूं और मैं इंडिया चली आई. कहां तो मैं उन पर पूर्ण रूप से आधिपत्य चाहती थी और कहां उन्होंने स्वयं को इस बंधन से मुक्त करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है. वह भले ही अपने अतीत के उस सुनहरे अध्याय को भुला चुके हों, किंतु मैं… मैं आज भी अभिनव के साथ गुज़ारे दिनों की मधुर स्मृतियों को थामे अलगाव के रेगिस्तान में तन्हा भटक रही हूं, जहां मेरी भूलों के न जाने कितने नागफनी के दंश मुझे हर पल लहूलुहान करते रहते हैं.

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बहुत प्यार करनेवाले और केयरिंग क़िस्म के इंसान थे अभिनव. ऑफिस से लौटकर हर पल मेरे साथ बने रहते. मैं किचन में जाती, तो वहां भी मेरी मदद को पहुंच जाते. चुहलबाज़ी और हंसी-मज़ाक के बीच मिल-जुलकर हम दोनों खाना बना लेते, किंतु उनके स्नेह और सहयोग को मैं बहुत हल्के में लेती थी. अपनी मनमानी करना और उनकी हर बात का विरोध करना मेरा स्वभाव बनता जा रहा था. वह चाहते थे, हर वीकेंड मैं उनके मम्मी-पापा को वीडियो कॉल करके उनसे अपनत्व भरा रिश्ता कायम करूं. दूर रहते हुए भी उन्हें अपने पास होने का एहसास कराऊं, किंतु मैं दो-चार औपचारिक बातें करके फोन उन्हें पकड़ा देती थी. मेरे इस व्यवहार से उन्हें दुख होता, किंतु वे ख़ामोश रहते. उनकी इस ख़ामोशी को मैं उनकी कमज़ोरी समझने लगी थी. विवाह की पहली सालगिरह हम दोनों ने नायाग्रा फॉल के नैसर्गिक सौंदर्य के बीच मनाई. पांच दिनों के उस टूर में हम दोनों ने जी भरकर मस्ती की थी. मुझे लग रहा था पति को मुट्ठी में रखने का मेरा प्रयास कामयाब हो गया है. आज एहसास हो रहा है, बहुत कसकर बंद की हुई मुट्ठी से भी रेत फिसल जाती है.

        रेनू मंडल

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