कहानी- प्रभाती 4 (Story Series- Prabhati 4)

मैं अब तक यह सोच रही थी कि शशि पर से मेरी यादों का विषम ज्वर उतर गया होगा, किंतु मैं ग़लत सोच बैठी थी. अत: कल जब ईमेल के इस दौर में मेरे घर डाकिया पत्र लेकर आया था, मैं चिहुंक गई थी. सुंदर व गोल लिखावट के साथ ही परिचित मंजुल सुगंध मेरे गले में बांहें डालकर झूल गई थी. पत्र में कोई संबोधन नहीं था और न ही भेजनेवाले का नाम था, किंतु मात्र एक वाक्य से लिखनेवाले ने मेरे मन के तारों को झंकृत कर दिया था…

“… प्रभाती साथ गाने का समय हो गया है, जाग रही हो ना!…”

दरवाज़े पर हुई तेज़ दस्तक ने हमें पुनः यथार्थ में ला पटका था. द्वार पर पुलिस की एक छोटी टीम खड़ी थी. उन्होंने न कुछ पूछा और न हम कुछ कह पाए. अकारण लगभग घसीटते हुए नीचे गाड़ी में बैठा दिया गया था.

थाने जाने पर ज्ञात हुआ कि शशि के पड़ोसी के बुलाने पर पुलिस आई थी. उनकी धारणा थी कि शशि ने घर में वारांगना बुलाई थी. उस रात मैं दो बातें समझ गई थी.

एक- मिथ्या आरोप लगाकर समाज के सामने किसी को चरित्रहीन सिद्ध करना प्रतिकार पाने का सुगम और द्रुतगामी मार्ग था, दो- मैं इतने सालों से स्वयं को छल रही थी. मैं वह थी ही नहीं, जिसकी भूमिका मैं इतने वर्षों से निभा रही थी. समय हो गया था वास्तविक भूमिका को अंगीकार करने का.

उस रात के बाद मेरी पुलिस के उच्च अधिकारियों से बातचीत हुई.

येन-केन-प्रकारेण मैं और शशि वहां से बाहर आए, किंतु पौ फटने तक सारा चित्र बदल गया था. अर्थ के बहुत सारे सूत्र मेरे हाथ में थे, लेकिन देह जैसे झर गई थी. अतएव मैं अपनी सहेली के घर चली गई थी. पिता के घर नहीं गई थी. कारण आपको स्पष्ट होगा. वहां भी मेरा स्वागत लांछनों से ही होना तय था. इस समय मैं एकांत और शांति चाहती थी.

थककर, किंतु शांति पाकर मैं सो गई थी और संभवतः दो-तीन दिन तक कुछ और नहीं किया था. जब मैं उठी, मैं जाग चुकी थी. मैंने संभवतः इतने वर्षों में पहली बार स्वयं को दर्पण में निहारा था. अपने जीवन के 33 वर्षों का लेखा-जोखा निकला और निर्णय ले लिया था.

कहना न होगा कि मेरे तलाक़ का मार्ग सरल और सहज नहीं था. अवहेलना, लांछन, बहिष्कार, तिरस्कार और अपमान की आंधियों का सामना करना पड़ा था. शशि मेरे साथ था. हर परीक्षा और उपेक्षा हमने साथ ही झेली थी.

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मेरा संघर्ष चलता रहा और मेरे अंधकार के पट पर बिजली की तरह थिरकती हुई एक रेखा- शशि. मेरी अनेक चिंताओं और पीड़ा में पीड़ित शशि, अपनी पीड़ा से अंजान शशि, अपने भविष्य को मेरे वर्तमान पर बलि चढ़ाता हुआ शशि. उसने जैसे मेरे भीतर की शून्यता को विधाता से अपने लिए मांग लिया था.

उसके स्वप्नों से आलिंगनबद्ध मैं, शायद उसकी वास्तविकता को कभी समझ ही नहीं पाती, यदि एक दिन शशि की मां मुझसे मिलने न आतीं तो. आज सोचती हूं, तो लगता है उन्होंने मुझे कुछ भी ग़लत नहीं कहा था. उनके अपशब्दों में भी उनका अपने पुत्र के प्रति प्रेम ही तो था. यदि वे जानकारी नहीं देतीं, तो मैं कहां जान पाती कि शशि को पेरिस से इतना अच्छा ऑफर आया था. यदि वे नहीं बतातीं, तो मैं कहां जान पाती कि मैं ही वह कारण थी, जो शशि को अपने परिवार के प्रति विद्रोही और अपने स्वप्नों के प्रति लापरवाह बना रही थी.

शशि स्वयं को धीरे-धीरे खो रहा था और मुझसे अधिक स्वयं को खोने की पीड़ा का अनुभव किसे था.

मैंने स्वयं को शशि से दूर कर लिया था. आरंभ में उसने मुझसे संपर्क करने का प्रयास किया था, किंतु मेरे प्रमाद ने शीघ्र ही हमारे मध्य एक अबोला कीदीवार बना दी थी. वह चला गया था. जाने से पूर्व न वह मुझसे मिलने आया और न ही मैंने उसे फोन किया. कुछ ही महीनों बाद मैंने भी तेलंगाना के एक छोटे-से शहर में स्थानांतरण ले लिया और यहीं बस गई. कभी-कभी प्रेम की पूर्णता उसके अधूरेपन में ही होती है.

प्रेम! मैं शशि से प्रेम करती थी और आज भी करती हूं, तभी तो उसे जाने दिया. जहां बंधन आ जाता है, प्रेम वहीं समाप्त हो जाता है. साहित्य में, यात्रा में, कला में, जीवन में- सब जगह वही मनमोहक प्रवाह और आरंभ है प्रेम. प्रेम पक्षी के समान उड़ान भरने की स्वतंत्रता देता है, देवता बनाकर उसे इमारत में कैद नहीं करता.

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पिछले पांच वर्षों में मैं उससे मिली नहीं थी और न ही कभी उसका फोन आया था. हालांकि मैं उसकी कुशलता की सूचना अवश्य लेती रहती थी. वह पेरिस में कब तक रहा, फ्रांस के किस शहर को उसने अपना निवास स्थान बनाया, कब-कब वह भारत आया और यहां तक कि कनाडा से लेकर श्रीलंका तक के उसके हर प्रदर्शन की मुझे जानकारी थी, किंतु मैं चतुरा सूचनाओं का स्रोत भांप न सकी थी. जहां मैंने विरह में प्रेम को पूर्ण मान लिया था, वहीं उसने अपने स्वप्नों के साथ मेरे स्वप्नों को जोड़कर प्रेम की संपूूर्णता को अंगीकार कर लिया था.

मैं अब तक यह सोच रही थी कि शशि पर से मेरी यादों का विषम ज्वर उतर गया होगा, किंतु मैं ग़लत सोच बैठी थी. अत: कल जब ईमेल के इस दौर में मेरे घर डाकिया पत्र लेकर आया था, मैं चिहुंक गई थी. सुंदर व गोल लिखावट के साथ ही परिचित मंजुल सुगंध मेरे गले में बांहें डालकर झूल गई थी. पत्र में कोई संबोधन नहीं था और न ही भेजनेवाले का नाम था, किंतु मात्र एक वाक्य से लिखनेवाले ने मेरे मन के तारों को झंकृत कर दिया था…

“… प्रभाती साथ गाने का समय हो गया है, जाग रही हो ना!…”

पल्लवी पुंडीर

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