कहानी- पारितोषिक 3 (Story Series- Paritoshik 3)

“आशंकाओं का कोई अंत नहीं है. तुम्हारी आज की ईमानदारी बीते कल पर भारी पड़ेगी. यूं डरकर जीने की ज़रूरत नहीं है. फिर भी दंभी पुरुष न माना तो…

उसे उसके अतीत का आईना दिखाना पड़ेगा…” मन में बुदबुदाए चंद शब्द अंतरा के कानों तक नहीं पहुंचे थे. दर्शना क्या सोच रही थी, अंतरा की कल्पना के परे था. “तुम निश्‍चिंत होकर घर जाओ और बेफ़िक्र रहो. कुछ बातों को ना छेड़ने में ही समझदारी है. अतीत को भुलाकर वर्तमान पर पकड़ बनाओ.

तुम्हारी बेटी है. उसे ऊंच-नीच भरे रास्तों के बारे में बताकर बेख़ौफ़ रखना. हम आधुनिकता को ग़लत परिभाषित करके लोगों को फ़ायदा उठाने का मौक़ा क्यों देते हैं? ये हम पर निर्भर है कि हम किन मायनों में आधुनिक कहलाएं.” अंतरा चली गई थी.

दर्शना ने उसे एक ग्लास पानी पकड़ाया. कुछ पल उसे हताशा भरी लहरों में डूबते-उतराते देखती रही. पलभर में उसके सामने उस सहमी लड़की का चेहरा घूम गया. “मैं अपनी प्रेग्नेंसी टर्मिनेट कराना चाहती हूं.”

“आपने बोर्ड पढ़ा है. यहां ऐसा नहीं होता है. आपके साथ कोई और है?” दर्शना ने पूछा तो वो रो पड़ी थी. दर्शना समझ गई थी कि फिर एक बार किसी ने प्यार के नाम पर धोखा खाया है.

“क्या हुआ शादी नहीं करेगा तुमसे…?” दर्शना ने पूछा, तो उसने ना में सिर हिला दिया था. नाम पूछा, तो और रोने लगी.

“जब तक सही नाम नहीं बताओगी हम कैसे मदद कर पाएंगे.”

“अंतरा.”

“सही नाम है ना?”

“जी.”

“एक लेटर बनाना पड़ेगा. अनमैरिड हो ये केस भेजना पड़ेगा.” उसकी हिचकियां बंधीं, तो दर्शना का क्षोभ लावे की तरह फट पड़ा था.

“तुम जैसी बेव़कूफ़ लड़कियों ने प्रेम के नाम पर आग से खेलना आजकल फैशन बना लिया है. पहले तो आधुनिकता के नाम पर तलवार की धार पर चलती हो, बाद में उन घावों के लिए मरहम खोजने निकलती हो.”

“आप कुछ कीजिए, नहीं तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी… एक बार इस दलदल से निकल जाऊं, फिर अपनों के मुताबिक ज़िंदगी जीऊंगी.”

“घर में कौन-कौन है?”

“पापा और छोटा भाई.”

“मां…?”

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“नहीं हैं…” उस पल दर्शना का जी भर आया था. क़रीब एक साल के बाद वो फिर क्लीनिक आई थी, ये जानने कि शादी के बाद उसके होनेवाले पति को इस बात का पता चलेगा या नहीं…?

“जब तक तुम नहीं बताओगी, उन्हें पता नहीं चलेगा. तुम्हारे मन में लगे घावों की पीड़ा बांटने की शक्ति यदि उसमें हो, तो ही अपने अतीत को उसके सामने रखना, वरना मौन धारण करना बेहतर है.” आनेवाले जीवन की शुभकामनाओं के साथ अंतरा ने उससे विदा ली, तो आज जीवन के इस मोड़ पर मुलाक़ात हुई.

“क्या सोचने लगीं दर्शनाजी? विश्‍वास कीजिए, कई बार ख़्याल आया कि भावेश को सब बता दूं, फिर हिम्मत नहीं हुई.”

“ना-ना ऐसी ग़लती मत करना…” सहसा दर्शना के मुंह से निकला, तो अंतरा चौंक गई.

“मेरा मतलब है कि बहुत-से मर्द इस तरह की सच्चाइयों को खुले मन से ग्रहण नहीं कर पाते हैं. फिर अब कोई फ़ायदा नहीं है, तुम्हारी बेटी भी है.”

“आपका कहना सही है. शादी के चंद दिनों बाद ही मैं समझ गई थी कि भावेश एक संकुचित मानसिकतावाले पुरुष हैं. उनकी पत्नी के संबंध शादी से पहले किसी और से थे, ये बात वो बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे. इसी वजह से मुझे किसी से बहुत घुलना-मिलना पसंद नहीं है. डरती हूं कि कहीं मेरे अतीत से जुड़ा कोई कतरा उनके सामने न आ जाए.”

“अंतरा,  मुझे इस बात का एहसास है कि तुम्हारा बीता हुआ कल तुम्हारे आज को उथल-पुथल कर सकता है. ऐसे में अपने अतीत को भूलते हुए अपने वर्तमान की ओर ध्यान दो, फिर भी… भविष्य में कभी भी कोई विषम स्थिति आए, तो मुझे याद करना, शायद तुम्हारे पति को समझा पाऊं कि पुरुष द्वारा छली तुम अकेली

स्त्री इस दुनिया में नहीं हो. मुझे उम्मीद है कि पुरुष होने के नाते पुरुष मानसिकता को भांपकर वो परिस्थितियों को समझेंगे.”

“अगर ना समझे तो…”

“आशंकाओं का कोई अंत नहीं है. तुम्हारी आज की ईमानदारी बीते कल पर भारी पड़ेगी. यूं डरकर जीने की ज़रूरत नहीं है. फिर भी दंभी पुरुष न माना तो…

उसे उसके अतीत का आईना दिखाना पड़ेगा…” मन में बुदबुदाए चंद शब्द अंतरा के कानों तक नहीं पहुंचे थे. दर्शना क्या सोच रही थी, अंतरा की कल्पना के परे था. “तुम निश्‍चिंत होकर घर जाओ और बेफ़िक्र रहो. कुछ बातों को ना छेड़ने में ही समझदारी है. अतीत को भुलाकर वर्तमान पर पकड़ बनाओ.

तुम्हारी बेटी है. उसे ऊंच-नीच भरे रास्तों के बारे में बताकर बेख़ौफ़ रखना. हम आधुनिकता को ग़लत परिभाषित करके लोगों को फ़ायदा उठाने का मौक़ा क्यों देते हैं? ये हम पर निर्भर है कि हम किन मायनों में आधुनिक कहलाएं.” अंतरा चली गई थी.

आज एक ठहाका लगाना चाहती थी दर्शना. बोलना चाहती थी भावेश से कि

अंतरा की सच्चाई तुम्हारे जैसे छद्म व्यक्ति के लिए नहीं है. दूसरों पर अविश्‍वास करनेवाले की ज़िंदगी में विश्‍वास कहां ठहर सकता है. मैंने तो विश्‍वास की बुनियाद पर हर्ष का अलौकिक प्रेम संग्रह किया है, पर भावेश तुम्हारी दशा तो दयनीय है, तुम्हें जीवनभर अंतरा के अविश्‍वास तले जीवन बिताना होगा और यही तुम्हारी सज़ा होगी और मेरा पारितोषिक.

       मीनू त्रिपाठी

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