कहानी- पतन 1 (Story Series- Patan 1)

अम्मा खाने का कितना प्रबंध करती थीं. अम्मा को याद कर मनोरथ का दिल भर आया. कुछ दिन पहले तक वह सीधा-कुशाग्र बुद्धि लड़का हुआ करता था. घर और स्कूल उसकी दुनिया थी. लड़कियों को सीटी मारनेवाले सहपाठी हंसते, “मनोरथ, तुम पप्पू हो. दुनियादारी सीखो.”

ठिठुरती ठंड और निष्ठुर निशा.

परिस्थितियों से पिद्दी हुए मनोरथ और कप्तान सिंह कोहरे में लुप्तप्राय सिहरती सड़क को तेज़ी से नापना चाह रहे हैं. गति लटपटा रही है.

रसूखवाले ने ऐसा फोड़ा कि किसी तरह बचकर या कुछ लोगों के द्वारा बचाए जाकर रसूखवाले की गिरफ़्त से छूटकर प्यारेलाल को ढूंढ़ते रहे. प्यारेलाल बाइक सहित नदारद. ऑटो करने का ख़्याल न आया. कुछ दूर निकल आने पर ख़्याल आया, लेकिन हाथ दिखाने पर कोई ऑटो नहीं रुका. मनोरथ के चेहरे पर जब से मस्से उपज आए हैं, ख़ुद को प्रबल मानने लगा है.

रसूखवाले ने ऐसा फोड़ा कि पहले तमाचे में पतलून गीली हो गई. गीली पतलून जैसी बाधा संभाले किसी तरह कप्तान सिंह के साथ तीसरी मंज़िल के अपने फ्लैट में पहुंचा. भीतर से प्यारेलाल की डरी हुई आवाज़ आई, “कौन है?”

“कप्तान.”

प्यारेलाल ने द्वार खोल दोनों को फुर्ती से भीतर खींच लिया.

कप्तान सिंह की निलंबित हुई बुद्धि घर की सुरक्षित गरमाहट में बहाल हुई, “अच्छा भाग निकले.”

प्यारेलाल ने प्रबल अपराधबोध प्रदर्शित किया, “भागा नहीं था. एक तरफ़ खड़ा हो गया था. जब देखा वह आदमी तुम दोनों को थाने ले जाने की धमकी दे रहा है, शायद पुलिस को कॉल भी लगाने लगा था, मैं तब भागा कि तुम दोनों को थाने जाना पड़ा, तो बाहर रहकर कुछ उपाय करूंगा. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था और मैंने अभी थोड़ी देर पहले मनोरथ तुम्हारे बाबूजी को कॉल कर दिया कि…”

“पागल है? बाबूजी नहीं छोड़ेंगे.” दहशत में मनोरथ ने जेब से अपना सेल फोन निकाला.

“लो बैटरी. शुक्रिया शिवशंकर.”

प्यारेलाल ने ग़लती स्वीकार की, “मुझे लगा पुलिस तुम लोगों को नहीं छोड़ेगी.”

“पुलिस तक बात नहीं पहुंची, लेकिन तुमने प्रचार कर दिया.”

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कप्तान ने अपना मोबाइल फोन देखा, “दस मिस्ड कॉल पापा के. मनोरथ के बाबूजी कुछ बोले?”

“इंफॉर्म कर मैंने सेल स्विच ऑफ कर दिया.”

“हम लोगों को हलाल कर अपनी जान बचा लो.” मनोरथ को भय ने बुरी तरह जकड़ लिया.

प्यारेलाल बोला, “थके हो. सो जाओ. यदि नींद आएगी?”

नींद नहीं आ रही है. रजाई की गरमाहट भी मनोरथ के भय को कम नहीं कर पा रही है. इस व़क्त घर में हड़कंप-हड़बड़ी मची होगी. समाचार सुनकर अम्मा ने दम साध लिया होगा. आदत के अनुसार बाबूजी ने अम्मा को दोषी माना होगा, “और भेजो मनोरथ को बाहर. बर्बाद हो गया. पुलिस इसकी चमड़ी उतार ले तो मैं शांति पाऊं.”

अम्मा नि:शब्द हुई होंगी, फिर कुछ देर बाद कुछ बोली होंगी, “प्यारेलाल और कप्तान ने बर्बाद किया. मनोरथ ऐसा नहीं था.”

“एक यही शरीफ़ है. बाक़ी सब बदमाश.”

अम्मा-बाबूजी की जिरह देख बुलाकी जिया ने विद्वता दिखाई होगी, “बाबूजी, मनोरथ का फोन लग नहीं रहा है. कप्तान के पापा से बात करो.”

बाबूजी ने कप्तान के पापा को कॉल किया होगा. ये दो पिता मिलकर अब पता नहीं क्या करनेवाले होंगे…

मनोरथ भयभीत है, पर भूख भयभीत होना नहीं जानती. भोजन की हो, देह की, पैसे की, मान-प्रतिष्ठा की- भूख बहुत बड़ा सत्य है. मनोरथ जैसे बेसुध में बुदबुदा रहा था, “इतना ज़लील होना पड़ा, पूरा शरीर दर्द से टूट रहा है, फिर भी भूख लग रही है.”

प्यारेलाल का अपराधबोध बढ़ गया, “आज रविवार है. टिफिन सेंटर से रात का खाना नहीं आया. घर में एक बिस्किट भी नहीं है.”

निष्ठुर निशा.

अम्मा खाने का कितना प्रबंध करती थीं. अम्मा को याद कर मनोरथ का दिल भर आया. कुछ दिन पहले तक वह सीधा-कुशाग्र बुद्धि लड़का हुआ करता था. घर और स्कूल उसकी दुनिया थी. लड़कियों को सीटी मारनेवाले सहपाठी हंसते, “मनोरथ, तुम पप्पू हो. दुनियादारी सीखो.”

अपनी सरलता में वह अम्मा से दुनियादारी का अर्थ पूछता. अम्मा, तीन पुत्रियों के बाद जन्मे इकलौते पुत्र के केश सहलाने लगतीं, “दुनियादारी बड़े होकर अपने आप आ जाती है. ख़ूब पढ़ो.”

ख़ूब पढ़ा. बारहवीं में 85 प्रतिशत परिणाम लाकर अम्मा-बाबूजी को गौरव से भर दिया, “स्टूडेंट्स बाहर पढ़ने जा रहे हैं. प्यारेलाल और कप्तान सिंह भी. मैं भी

बाहर पढ़ूंगा.”

अम्मा की धड़कन हलक में, “मनोरथ, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. यहीं पढ़ो. अपनी दुकान ही तो संभालनी है. कौन-सा लंदन घूमना है.”

‘दुकान- काका मिष्ठान भंडार.’

मनोरथ को अपने भीतर चीकट बनियानवाला हलवाई नज़र आया. वह काका (दादाजी) फिर बाबूजी की तरह चीकट बनियान, स्याह पैजामा पहनकर घी-तेल से बास मारती देह संभाले धधकती आंच के सम्मुख बैठकर कड़ाही के खौलते तेल में समोसे और इमरती तल रहा है. इस छोटे शहर में तमाम रेस्टोरेंट खुल गए हैं, लेकिन कुछ बेंच और मेज़ोंवाले काका मिष्ठान भंडार की इमरती, लवंगलता, बेसन लड्डू, समोसे और खोए की काली जलेबी का स्वाद लोगों को आज भी ऐसा भाता है कि रात आठ बजे तक बाबूजी को ऐलान करना पड़ता है- समोसे ख़त्म. दुकान की आय से दो बड़ी पुत्रियों के अच्छे दर्जे के विवाह हुए. बुलाकी के विवाह की तैयारी है, लेकिन दुकान की चीकट स्थिति आय के आंकड़े इस कारगर तरी़के से छिपाती है कि आयकर-विक्रयकर विभाग को कल्पना नहीं है, आय प्रति माह एक लाख से ऊपर जाती है.

अम्मा के चीकट प्रस्ताव पर मनोरथ को मानहानि जैसा फील आया था, “अम्मा, मैं ख़ुद को भट्ठी और कड़ाही में नहीं

झोंक सकता.”

बाबूजी निदान पर आए, “तुम्हारे लिए शानदार रेस्टोरेंट बनवाऊंगा. मैं काका मिष्ठान भंडार संभालूंगा, तुम रेस्टोरेंट में मैनेजरी करोगे.”

“अभी तो मुझे स़िर्फ और स़िर्फ पढ़ना है.”

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कस्बाई कच्चापन लेकर मनोरथ महानगर के माहौल में उतरा. घर याद आता. अम्मा बहुत याद आतीं. साथ आए प्यारेलाल और कप्तान सिंह को आज़ादी मनाते देखता, तो हैरान हो जाता, “तुम लोगों को घरवालों की याद नहीं आती?”

कप्तान उसे व्यंग्यात्मक रूप से देख रहा है,

“स्पून फीडिंग कराकर तुम्हारी अम्मा ने तुम्हें पप्पू बना दिया है. अम्मा की याद में दुबरा गए हो. चलो मूवी दिखा लाता हूं.”

   सुषमा मुनीन्द्र

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