कहानी- पीढ़ियों का नज़रिया… 4 (Story Series- Pidhiyon Ka Nazariya… 4)

 

Pidhiyon Ka Nazariya
“ये लड़का तो एक बात पर टिक ही नहीं रहा. कभी कहता है अभी शादी नहीं करनी, कभी कहता है बस एक बार मिलना है, कभी कहता है उन्हें और लड़के देखने दीजिए, कभी लड़की अच्छी है, कभी पसंद नहीं है… अरे, आज़ादी उसे दी जाती है, जिसे संभालनी आए. हमारी पीढ़ी में किसी लड़के ने ख़ुद लड़की नहीं देखी, फिर भी मैंने इसे आज़ादी के पंख दिए. मगर अरेंज शादियां ऐसे नहीं होती हैं.

 

 

 

 

… सैंडी के चेहरे पर झुंझलाहट का एक चक्रवात घूमने लगा. उसने ताऊजी से इतनी बहस कभी नहीं की थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो किन शब्दों में अपनी बात ठीक से कहे. ऐसा लग रहा था कि वो एक मल्ल युद्ध लड़ रहा है और दूसरा पहलवान बल, तकनीक और अनुभव के कारण उसके ऊपर हावी होता जा रहा है और अगर उसने जल्द ही कुछ नहीं किया तो… नहीं, अब ये मारो या मरो की लड़ाई बन चुकी थी.
वो प्रेशर कुकर की तरह फट पड़ा, “लड़की को कपड़ा मैं नहीं, आप समझ रहे हैं. आप बार-बार कह रहे हैं कि लड़की को देखा और देखा निर्जीव चीज़ों को ही जाता है. इंसानों से मिला जाता है. उन्हें समझा जाता है और ये इतनी हड़बड़ी का काम नहीं है. बात को ये रंग आप दे रहे हैं कि लड़का या लड़केवाले लड़कीवालों को लटका रहे हैं.”
“तुमसे बहस का कोई फ़ायदा नहीं है. आज अभी इसी वक़्त मुझे बताओ, मैं उनसे फोन करके क्या कहूं? हां या ना?”
“अगर आप ये सोचते कि दो लोगों की मुलाक़ात करा रहे हैं, जिन्हें ज़िंदगी एक साथ बितानी है. तो न कल इतनी हड़बड़ी मचाते, न आज मेरे सिर पर घड़ी लेकर सवार होते, और न दूसरी मुलाक़ात में आपको कोई गुनाह या बदनामी जैसी बात लगती. सच तो ये है कि आपके लिए मैं आपका बेटा या एक व्यक्ति रह ही नहीं गया हूं, जो अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लेने में तनावग्रस्त है. मैं आपके लिए संपूर्ण लड़केवालों का प्रतिनिधि बन गया हूं.”
“और तुम ये सच नहीं समझ सकते कि लड़कीवालों के दिल पर क्या गुज़रती है जब… ख़ैर तुम बताओ- हां या न?”
“मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि लोगों से भरे घर में चंद लम्हे एक लड़की से अकेले में बात करके लड़का ऐसा कौन-सा गुनाह कर देता है कि उसकी सज़ा उसे उसके साथ पूरा जीवन काटकर चुकानी पड़ेगी. अगर मैं सोचने के लिए समय लूंगा, तो क्या ये समय लड़कीवालों को नहीं मिलेगा? अगर मैं दस लड़कियां देखना चाहता हूं, तो क्या वो दस लड़के देखने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं? अगर मैं उससे एक मुलाक़ात और करूंगा, तो क्या वो मुझसे मुलाक़ात नहीं करेगी. उसके मन में भी तो कुछ ऐसी बातें हो सकती हैं, जो वो न कह पाई हो. और फिर वो भी तो मुझे रिजेक्ट करने के लिए स्वतंत्र है.”

 

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“येस ऑर नो?”
“आपकी जो मर्ज़ी आए कीजिए. हां, मैं इतनी जल्दी कर नहीं सकता और अब न की भी मुझे परवाह नहीं है. इतना गया बीता नहीं हूं कि मुझे आगे कोई लड़की नहीं मिलेगी.”
अब तक पानी ताऊजी के सिर के ऊपर से गुज़र गया था. वो अन्य सदस्यों की ओर मुख़ातिब हो गए, “ये लड़का तो एक बात पर टिक ही नहीं रहा. कभी कहता है अभी शादी नहीं करनी, कभी कहता है बस एक बार मिलना है, कभी कहता है उन्हें और लड़के देखने दीजिए, कभी लड़की अच्छी है, कभी पसंद नहीं है… अरे, आज़ादी उसे दी जाती है, जिसे संभालनी आए. हमारी पीढ़ी में किसी लड़के ने ख़ुद लड़की नहीं देखी, फिर भी मैंने इसे आज़ादी के पंख दिए. मगर अरेंज शादियां ऐसे नहीं होती हैं. समझाओ इसे, ये मेरी ज़ुबान का सवाल है. इसके साथ मेरा मान-अपमान जुड़ा है. मैं जवाबदेह हूं, क्योंकि रिश्ता मेरे माध्यम से आया है और मेरे लिए हर लड़की अपनी बेटी की तरह है.”
“और आप टिक रहे हो एक बात पर?” अब सैंडी भी औरों की ओर मुख़ातिब हो गया, “मैं बात बदल नहीं रहा, ताऊजी बदलवा रहे हैं. उस आज़ादी का फ़ायदा ही क्या, जो ग़ुलामी के रैपर में लपेट कर दी जाए. इन्होंने मुझे पंख नहीं दिए, पतंग बना दिया है, जो दिखती है उड़ती हुई, पर डोर नीचे खड़े आदमी के हाथ में होती है.”
“ये तो तुम्हारे ताऊजी ठीक कह रहे हैं सैंडी कि अपने मन में श्योरिटी न होते हुए भी हां कहने की जो ग़लती तुमने… अच्छा चलो हमने की है, वो बहुत बड़ी है. और आपकी ये बात बिल्कुल ठीक है कि हमें अपने मन के संशय के बारे में जल्दी से जल्दी लड़कीवालों को बता देना चाहिए.” सैंडी के पिता पहली बार वार्तालाप में शामिल हुए.

 

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“लेकिन अब आज ही येस या नो करने का दबाव डालना मेरे ख्याल से उस ग़लती को दोहराना होगा, जो कल सैंडी से जवाब देने का दबाव बनाकर की गई थी.”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

भावना प्रकाश

 

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