कहानी- प्रतिबद्ध 1 (Story Series- Pratibadh 1)

“मुझे समझ में नहीं आता कि लोग संन्यास क्यों लेते हैं?” मयूरी ने कुछ सोचते हुए पूछा.

“सीधी-सी बात है- मन पर चोट लगी होगी. चोट खाकर ही कोई लेखक, कवि या संन्यासी बन जाता है.” स्मिता ने कार को दाहिनी ओर मोड़ते हुए कहा.

“साधु-संत के दर्शन की बात करते ही सभी पुरुष चिढ़ उठते हैं. मैंने इन्हें फ़ोन पर अपने जाने की सूचना दे दी.” मयूरी ने कहा.

“वे सच्चाई समझते हैं, पर सभी ढोंगी नहीं होते. ये संत पहुंचे हुए हैं सुनकर सोचा मिल ही लूं.” स्मिता अपनी ही बात पर हंस पड़ी.

 

सुबह-सुबह ही फ़ोन की घंटी बज उठी. मयूरी ने बेसन सने अपने हाथों को धोकर फोन उठाया.

“हैलो…”

“मयूरी… मैं स्मिता बोल रही हूं… सुबह-सुबह परेशान किया, क्षमा करना… जनकपुरी चलोगी?”

“जनकपुरी… क्यों क्या बात है? मयूर विहार से जनकपुरी जाने में समय भी व्यर्थ में नष्ट होता है… पर बात क्या है?”

“मेरी बुआ के घर एक पहुंचे हुए संत आए हैं, चलकर दर्शन करने में क्या हर्ज़ है?”

“कल स्वतंत्रता दिवस है, सबकी छुट्टी होने से सभी घर में रहेंगे. कल ही चलें तो कैसा रहेगा?”

“क्या बात कह रही है! कल क्या दिल्ली जैसे जगह पर निकलना सुरक्षा की दृष्टि से सही होगा? आतंकवादियों के हमले की आशंका के मद्देनज़र सुरक्षा-व्यवस्था कड़ी कर दी गई है. आज चलो न.”

“इन आतंकवादियों ने तो जीना मुश्किल कर दिया है, ऐसा करो तृषा स्कूल से लौटती ही होगी. जब तक स्कूल में रहती है, चिंकी को मुझे ही संभालना पड़ता है. उसके आते ही चलूंगी.”

“कोई बात नहीं तुम तैयार रहो. मैं तुम्हें पिकअप कर लूंगी.”

फ़ोन रखते ही मयूरी दुविधा में पड़ गई, ‘कौन-सी साड़ी पहनूं? इन संतों के सामने सादगी ही अच्छी.’ उसने एक बादामी रंग की साड़ी निकाली. उसके आंचल से मैच करती कत्थई रंग की बिंदी लगाई. शीशे में ख़ुद को देख मुस्कुरा उठी, ‘कौन कहेगा, मैं दादी बन गई?’

कार का हॉर्न सुन उसने खिड़की से झांका. ज़ेन का द्वार खोल स्मिता अपनी बिखरी लटों को ठीक कर रही थी. बहू तृषा पर गृहस्थी का भार डाल वह स्मिता के साथ कार में जा बैठी.

स्कूल-कॉलेज और द़फ़्तर का समय न होने के कारण उन्हें लाल बत्ती पर कहीं रुकना नहीं पड़ा. दोनों सहेलियां कभी किसी साधु-संतों के चक्कर में नहीं पड़ती थीं. पर इस ब्रह्मचारी संत के विषय में इतना कुछ सुन रखा था कि दोनों उनके दर्शनार्थ जनकपुरी जाने को निकल पड़ीं.

“मुझे समझ में नहीं आता कि लोग संन्यास क्यों लेते हैं?” मयूरी ने कुछ सोचते हुए पूछा.

“सीधी-सी बात है- मन पर चोट लगी होगी. चोट खाकर ही कोई लेखक, कवि या संन्यासी बन जाता है.” स्मिता ने कार को दाहिनी ओर मोड़ते हुए कहा.

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“साधु-संत के दर्शन की बात करते ही सभी पुरुष चिढ़ उठते हैं. मैंने इन्हें फ़ोन पर अपने जाने की सूचना दे दी.” मयूरी ने कहा.

“वे सच्चाई समझते हैं, पर सभी ढोंगी नहीं होते. ये संत पहुंचे हुए हैं सुनकर सोचा मिल ही लूं.” स्मिता अपनी ही बात पर हंस पड़ी.

स्मिता को बुआ द्वार पर ही मिल गई. अंदर कमरे में पूर्ण शांति थी. सामने एक

ऊंचे आसन पर स्वामीजी विराजमान थे. स्मिता एवं मयूरी शालीनतापूर्वक पीछे जाकर बैठ गईं. स्वामीजी शांत चित्त से मनोनिग्रह के विषय में बता रहे थे,

“मनोनिग्रह के लिए एकाग्रता संपादन की अपेक्षा मन के कषाय-कल्मषों को धोया, हटाया व सुधारा जाए. अपनी प्रकृति रूखी, स्वार्थी और चिड़चिड़ी न हो तो सबके साथ सहज सज्जनोचित्त संबंध बने रहेंगे और मित्रता का क्षेत्र सुविस्तृत बनता जाएगा.”

स्वामीजी की बातों से प्रभावित व सहमत स्मिता एवं मयूरी ने एक-दूसरे की आंखों में देखा मानो कह रही हों, ‘हमारा आना सार्थक हुआ.’ दोनों ने फिर स्वामीजी की बातों पर अपना ध्यान केंद्रित किया.

“कुविचारों और दुःस्वभावों से पीछा छुड़ाने के लिए सद्विचारों के संपर्क में निरंतर रहा जाए.”

स्वामीजी की बातों से मयूरी ने अनुमान लगाया कि इनके अध्ययन व चिंतन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है. विद्वता का आभास उनके चेहरे से हो रहा था- गौर वर्ण के ललाट पर चंदन व रोली का तिलक, गले में रूद्राक्ष की माला और शरीर पर केसरिया वस्त्र सुशोभित थे. छोटी-छोटी दाढ़ी पर सुनहरे फे्रम का चश्मा उनके व्यक्तित्व की शोभा को द्विगुणित कर रहा था.

प्रवचन समाप्त होते ही मयूरी और स्मिता ने श्रद्धापूर्वक संत को नमस्कार किया.

“तू यहीं रुक, मैं प्रसाद बांटने में बुआ के हाथ बंटा कर अभी आई.” मयूरी को वहीं पर छोड़ स्मिता अपनी बुआ की मदद करने चली गई.

अचानक स्वामीजी को जैसे कोई झटका लगा हो. चेहरे पर हर्ष-विषाद की रेखाएं आने-जाने लगीं. गांभीर्य का एक झीना-सा आवरण उनके चारों तरफ़ सिमट आया. मयूरी उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव को समझने में पूर्णतया असमर्थ थी. उसे एहसास हुआ कि स्वामीजी की दृष्टि उस पर ही केन्द्रित है. वह असहज हो उठी. उसके दिल ने धिक्कारा, ‘क्यों चली आई वह इस तरह के लोगों का दर्शन करने? नारी पर दृष्टि पड़ते ही इनका सारा पांडित्य तिरोहित हो जाता है.’

– लक्ष्मी रानी लाल

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मुझे समझ में नहीं आता कि लोग संन्यास क्यों लेते हैं?” मयूरी ने कुछ सोचते हुए पूछा. “सीधी-सी बात है- मन पर चोट लगी होगी. चोट खाकर ही कोई लेखक, कवि या संन्यासी बन जाता है.” स्मिता ने कार को दाहिनी ओर मोड़ते हुए कहा. “साधु-संत के दर्शन की बात करते ही सभी पुरुष चिढ़ उठते हैं. मैंने इन्हें फ़ोन पर अपने जाने की सूचना दे दी.” मयूरी ने कहा. “वे सच्चाई समझते हैं, पर सभी ढोंगी नहीं होते. ये संत पहुंचे हुए हैं सुनकर सोचा मिल ही लूं.” स्मिता अपनी ही बात पर हंस पड़ी.
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