कहानी- प्रायश्‍चित की शुरुआत 3 (Story Series- Prayshchit Ki Shuruvat 3)

उन्हीं भरपूर प्यार करने वाले निखिल को उसने ज़िंदगी के सबसे नाज़ुक मोड़ पर कितना एकाकी कर दिया है. जीवन के जिस पड़ाव पर उन्हें सुभद्रा के साथ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, उसी पड़ाव पर उसने हाथ झटक लिया. जो स्त्री अपना घर न संभाल सके, उसे भला समाजसेवा का क्या अधिकार है? और मिनी? उसके साथ भी कहां न्याय कर पाई वह? बस फैशन और आधुनिकता के पीछे भागनेवाली जीती-जागती गुड़िया बनाकर रख दिया उसे. काश उसने उसे कुछ अच्छे संस्कार दिए होते तो आज वह एक सुखी जीवन बिता रही होती.

एक बार उसने निखिल से अपने अकेलेपन की शिकायत की थी तो निखिल पन्द्रह दिनों का अवकाश लेकर उसे और मिनी को पहाड़ों पर घुमाने ले गए थे. उन्होंने ही सुभद्रा को कई किटी पार्टियों और सभा सोसायटियों का सदस्य बनवाया, ताकि उनके व्यस्त रहने पर सुभद्रा का मन लगा रहे. सुभद्रा को मामूली सिरदर्द या बुखार होता तो निखिल अपनी प्रैक्टिस छोड़ रात दिन उसके सिरहाने बैठे रहते. सुभद्रा उन्हें कोर्ट चले जाने को कहती या प्रैक्टिस में घाटा हो जाने का ध्यान दिलाती तो निखिल को अच्छा नहीं लगता था. वे कहते, “सुभद्रा, ज़िंदगी की कोई भी चीज़ मेरे लिए तुमसे बढ़कर नहीं है.” और सुभद्रा निहाल हो जाती.

उन्हीं भरपूर प्यार करने वाले निखिल को उसने ज़िंदगी के सबसे नाज़ुक मोड़ पर कितना एकाकी कर दिया है. जीवन के जिस पड़ाव पर उन्हें सुभद्रा के साथ की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, उसी पड़ाव पर उसने हाथ झटक लिया. जो स्त्री अपना घर न संभाल सके, उसे भला समाजसेवा का क्या अधिकार है?

और मिनी? उसके साथ भी कहां न्याय कर पाई वह? बस फैशन और आधुनिकता के पीछे भागनेवाली जीती-जागती गुड़िया बनाकर रख दिया उसे. काश उसने उसे कुछ अच्छे संस्कार दिए होते तो आज वह एक सुखी जीवन बिता रही होती. एक ओर यश जैसा संस्कारशील युवक है, जिसे देखकर कोई भी उसके माता-पिता की प्रशंसा किए बिना नहीं रहेगा कि उन्होंने अपनी संतान को कितने अच्छे संस्कार दिए हैं.

वहीं, दूसरी ओर मिनी है- उच्छृंखल, अभिमानी और मुंहफट. उसे ऐसा बनाने और उसकी ज़िंदगी बरबाद करने की ज़िम्मेदार वह स्वयं है. मिनी ठीक ही तो कह रही थी. न तो वह अच्छी बीवी बन पायी और न अच्छी मां. भगवान ने उसे यह दूसरा जीवन शायद अपनी ग़लतियां सुधार लेने के लिए ही दिया है. एक दृढ़ निश्‍चय के साथ सुभद्रा पलंग पर उठकर बैठ गई. तभी निखिल ने कमरे में प्रवेश किया. “अरे, अरे यह क्या कर रही हो? अभी तुम बहुत कमज़ोर हो. लाओ मैं तुम्हें सहारा देकर बैठा देता हूं.” कहते हुए निखिल ने सुभद्रा को तकिए के सहारे बैठा दिया. सुभद्रा एकटक निखिल को देखे जा रही थी. “ऐसे क्या देख रही हो?” निखिल ने पूछा. “हं.. अं… कुछ नहीं. मुझे छुट्टी कब मिलेगी?” सुभद्रा ने पूछा. “यही तो बताने आया था मैं. कल तुम्हें छुट्टी मिल जाएगी. कल तुम घर चल सकोगी. लेकिन अभी कुछ दिनों तक तुम्हें पूर्ण विश्राम करना होगा. कुछ समय बाद ही तुम घर से बाहर निकल पाओगी.” निखिल ने समझाते हुए कहा.

“मुझे अब कहीं नहीं जाना निखिल. इतने बरसों बाद तो घर लौट रही हूं. अब कहीं नहीं जाऊंगी.” सुभद्रा बुदबुदा रही थी. “तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है. तुम लेट ही जाओ.” कहते हुए निखिल ने सुभद्रा को फिर से लिटा दिया.

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घर लौटकर सुभद्रा बहुत राहत महसूस कर रही थी. घर भी उसे कुछ नया-नया सा और बेहद अपना लग रहा था. सच है जब देखने वाले का दृष्टिकोण बदल जाए तो हर चीज़ स्वत: ही बदल जाती है. बहुत दिनों बाद सभी डाइनिंग टेबल पर एक साथ खाना खा रहे थे. यश भी मौजूद था. “आजकल रामदीन बहुत अच्छा खाना बनाने लगा है. सूप और सब्ज़ी बहुत टेस्टी बने हैं.” सुभद्रा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा. “यह रामदीन का नहीं तुम्हारी बिटिया के हाथों का कमाल है.” निखिल ने और सब्ज़ी परोसते हुए कहा. “क्या? सचमुच! मिनी, तुमने कब खाना बनाना सीखा?” सुभद्रा को अब भी विश्‍वास नहीं हो रहा था. “मम्मा, वो जब मैंने घर रहना शुरू कर दिया था तो मन लगाने के लिए किचन में हाथ आजमा लिया करती थी.” मिनी ने सकुचाते हुए बताया. हालांकि मन-ही-मन अपनी प्रशंसा सुन वह बेहद ख़ुश हो रही थी और उस समय तो उसका चेहरा ख़ुशी से चमक उठा, जब यश ने भी सुभद्रा का समर्थन करते हुए कहा कि ‘खाना वाकई बहुत स्वादिष्ट बना है.’ उपयुक्त मौक़ा जानकर सुभद्रा बोल पड़ी- “लेकिन मेरे भाग्य में इतना स्वादिष्ट खाना अब ज़्यादा दिन खाना नहीं लिखा है.”

“ऐसा क्यूं बोल रही हो सुभद्रा?” निखिल ने टोका.

“अरे बाबा, कुछ दिनों में मिनी यश के संग अपने घर चली जाएगी, फिर मुझे इतना अच्छा खाना कौन बना कर खिलाएगा?” सुभद्रा शरारत से बोली.

“ऐसी क्या बात है, मम्मा? आपका जब मिनी के हाथ का खाना खाने का जी चाहे, आप वहां चली आना. आख़िर वह भी तो आपका ही घर है.” यश ने सरलता से कहा. निखिल मन-ही-मन सुभद्रा की प्रशंसा किए बिना न रह सके. कितनी चतुराई से सबके दिलों की बात उसने ज़ुबां से इतनी सहजता से बयान कर दी थी. और सुभद्रा मन-ही-मन सोच रही थी कि यह तो प्रायश्‍चित की शुरुआत भर है.

    संगीता माथुर

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