कहानी- सामनेवाली खिड़की 1 (Story Series- Samnewali Khidki 1)

आंगन में मां धूप सेंक रही थीं, “हो गई सफ़ाई बेटी?” मेरे होंठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई. रोज़ यही तो कहकर ऊपर जाया करती थी कि ऊपर के कमरे में धूल बहुत रहती है. रोज़ सफ़ाई करनी पड़ती है. मां पैरों से लाचार थीं, अतः सीढ़ियां चढ़ना उनके बस की बात नहीं थी. ऊपर सफ़ाई करने के पीछे मेरा प्रयोजन उसे देखना होता था. इसके बिना मैं रह नहीं पाती. किंतु अभी चार दिनों से वह खिड़की बंद थी. उसे न देख पाने की कसक दिल को छलनी किए जा रही थी.

आज फिर खिड़की बंद थी, न जाने कहां चला गया. मेरा मन बेचैन हो उठा, किससे पूछूं, कहां गया होगा? कुछ समझ नहीं आता.

सामनेवाले मकान में ही रहता था वह, नाम मुझे नहीं मालूम. कभी जानने की कोशिश भी नहीं की, बस उसे देखना मुझे बहुत अच्छा लगता और देखते रहने में ही मैं संतुष्ट थी, ये मेरी रोज़ की ज़िंदगी का एक हिस्सा बन चुका था.

वह अपाहिज़ था. व्हीलचेयर पर बैठा- खिड़की के पास रखे कैनवास पर ब्रश चलाता रहता था. हालांकि इतनी दूर से उसके चित्र मुझे दिखाई नहीं देते थे, लेकिन उसके चेहरे के भाव, उसकी तन्मयता और एकाग्रता से मुझे लगता था कि वो बहुत उमदा चित्र बनाता होगा. मैं रोज़ उसे देखती, लेकिन कभी उसे अपनी ओर देखते नहीं पाया और इससे मैं ख़ुश भी हूं, जाने उसकी मानसिकता कैसी हो, मैं थोड़ा डर भी जाती हूं. काफ़ी देर तक चहलक़दमी करने के बाद मैं नीचे आई.

आंगन में मां धूप सेंक रही थीं, “हो गई सफ़ाई बेटी?” मेरे होंठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई. रोज़ यही तो कहकर ऊपर जाया करती थी कि ऊपर के कमरे में धूल बहुत रहती है. रोज़ सफ़ाई करनी पड़ती है. मां पैरों से लाचार थीं, अतः सीढ़ियां चढ़ना उनके बस की बात नहीं थी. ऊपर सफ़ाई करने के पीछे मेरा प्रयोजन उसे देखना होता था. इसके बिना मैं रह नहीं पाती. किंतु अभी चार दिनों से वह खिड़की बंद थी. उसे न देख पाने की कसक दिल को छलनी किए जा रही थी.

घर में पूर्ण शांति थी. मां आंगन में पड़ी चारपाई पर लेट गई थीं. शायद उन्हें नींद आ गई थी. घर में बस मैं और मां ही थे. किसी काम में भी मन नहीं लग रहा था.

आख़िर क्या हो गया है मुझे? उसके न दिखने से मैं इतना परेशान क्यों हूं? हो सकता है किसी रिश्तेदार के यहां चला गया हो, मगर सभी तो यही कहते थे कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं है. फिर? मानव मन की जटिलताएं भी अजीब हैं, कहीं कोई अंत नहीं. वह अपाहिज था इस कारण मुझे और चिंता हो रही थी. पता नहीं उसके प्रति अपने इस लगाव को क्या कहूं. अगर प्रेम होता तो उससे मिलने की, उसे पाने की उत्कंठा भी होती. लेकिन मेरा मन उसे जी भर देख लेने से ही शांत हो जाया करता था, बिल्कुल एक मचलते बच्चे की तरह जो मनपसंद खिलौना पाकर शांत हो जाया करता है.

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क्या पता कहां गया? मुझे ख़ुद पर क्रोध आने लगा. क्या हो गया है मुझे? रोमांटिक उपन्यासों, फ़िल्मों से मुझे सख़्त चिढ़ है, लेकिन आज किसी रूमानी कहानी की नायिका-सी हालत हो रही है मेरी. एक बार फिर मेरे क़दम सीढ़ियों की ओर बढ़ गए, “देखें, शायद आ गया हो.” मां की ओर देखकर मैं निश्ंिचत हो गई. मां गहरी नींद में थी. धीरे-धीरे ऊपर बढ़ती हुई मैं जिस तरह चल रही थी, उससे कहीं गुना ज़्यादा तेज़ी से मेरा दिल धड़क रहा था. बार-बार होंठ बुदबुदा उठते, “भगवान वो दिख जाए बस.”

मगर ऊपर पहुंची तो निराशा ही हाथ लगी. खिड़की अभी भी बंद थी. मेरा दिल हताश हो गया. तभी पड़ोस की रमा चाची ने टोक दिया, “करूणा… क्या कर रही हो बेटी?” मैं सकपका गई, “कुछ नहीं चाची, कपड़े सुखाने आई थी.” कहकर मैं नीचे उतर आई. अब झुंझलाहट और बढ़ गई. रमा चाची अब मां को नमक-मिर्च लगाकर बताएंगी, “करूणा को मैंने ऐसे देखा, वैसे देखा.” उफ़… न जाने लोगों को दूसरों की ज़िंदगी में दख़लअंदाज़ी करने में क्या मज़ा आता है.

उस रात भी मैं नहीं सो पाई. फिर सुबह हुई, उम्मीद लिए मैं ऊपर गई और निराशा लिए वापस लौट आई.

पंद्रह दिन बीत गए, मगर कुछ परिवर्तन नहीं हुआ. न वो खिड़की खुली, न मेरी बेचैनी कम हुई.

एक दिन मां पूछ बैठी, “क्या बात है करूणा, आजकल तू उदास और खोई-खोई-सी रहती है. पिछले कुछ दिनों से देख रही हूं, तू ढंग से खाती-पीती भी नहीं है. आख़िर बात क्या है?” उनकी अनुभवी आंखों ने मेरी बेचैनी को कितना सही आंका था. मैं उस समय तो टाल गई, किंतु रसोई में काम करते सिसक पड़ी. सचमुच मैं अंदर से परेशान थी, मगर ख़ुद भी समझ नहीं पा रही थी कि मुझे क्या हुआ है, क्यों ‘वो’ मुझे इतना याद आता है. खिड़की पर बैठा वह, उसकी व्हीलचेयर, कैनवास, ब्रश, उसका ध्यानमग्न चेहरा- इन सब में आख़िर क्यों उलझी रहती हूं मैं! क्या रिश्ता है मेरा इन सबसे?

क्या जवाब दूं लोगों के प्रश्‍नों का जब मेरे मन के ही कितने प्रश्‍न अधूरे हैं? किससे उत्तर पूछूं?

अगले दिन मैं रोज़ की भांति ऊपर गई, तो मेरे आश्‍चर्य की सीमा ना रही. सामने खिड़की के पास वह बैठा था, बिल्कुल पहले की तरह व्हीलचेयर पर, कैनवास के सामने, हाथों में ब्रश लिए. वह चित्र बनाने में डूबा हुआ था. अब मेरा आश्‍चर्य असीम प्रसन्नता में बदल गया. ख़ुशी के मारे कब आंखों से आंसू बहने लगे, पता ही नहीं चला. मैं मंत्रमुग्ध-सी उसे देखती रहती.

– वर्षा सोनी

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