मैं बारहवीं में पहुंच गई थी और यही वह दिन थे, जब मैं आयुष के प्रति एक अजब-सी चाहत महसूस करने लगी थी, जो बचपन की उस दोस्ती से बहुत भिन्न थी. उनके आने की उम्मीद पर ही मैं आईने में अपनी शक्ल देख लेती, बाल संवार, ढंग के कपड़े पहन लेती. पर आजकल वह बहुत कम ही आ पाते थे. कभी आयुष की ड्यूटी और कभी भैया अपनी पढ़ाई में व्यस्त. मैं चाहती कि वह भैया के लिए नहीं मेरे लिए आएं हमारे घर, पर मैं प्रतीक्षा ही करती रह जाती.
… इतनी अंतर्मुखी क्यों हूं मैं? क्यों नहीं कह पाई उससे अपने मन की बात? दृढ़ निश्चय करने के बाद भी. आयुष की बात कर रही हूं मैं. ऐसा भी नहीं था कि मुझे इसका कभी अवसर ही न मिला हो. रोज़ाना ही तो आता था वह हमारे घर. हमारा घर, जिसमें मां और पापा के अलावा मैं और मेरे बड़े भैया थे. आयुष की मां तो थीं, पर परन्तु उनके पिता की मृत्यु के उपरान्त घर चलाने की आर्थिक ज़िम्मेदारी भी पूरी उन पर आ गई थी. यह तो भला हो बैंकवालों का, जिन्होंने पति की असमय मृत्यु पर संवेदना रूप में उन्हें नौकरी दे दी थी और घर की गाड़ी चल पड़ी थी. पर बैंक के लंबे घंटों के कारण सूने घर में उकता कर आयुष अधिकतर हमारे ही घर आ जाता. हमारी स्नेहमयी मां तो बेगानों पर भी झट अपनी ममता का आंचल फैला देती थीं, यह तो फिर भैया के दोस्त थे.
हम बच्चे अभी छोटे थे. जब दो अजनबियों ने यह घर साथ-साथ बनवाए थे. उस समय आयुष के पिता भी जीवित थे. संग रहते यह गांठ ऐसी जुड़ी कि मां तो अपनी पड़ोसन को सुधा ही बुलाने लगीं और हम बच्चे भी ‘पड़ोसवाली आंटी’ छोड़ सुधा बुआ पर आ गए. आस-पड़ोस में मेरी भी कोई हमउम्र नहीं थी, तो मैं भी अपने भैया और उनके दोस्त आयुष के संग ही खेलती. धीरे-धीरे हम बच्चे भी बड़े हो रहे थे. पार्क में क्रिकेट खेलना छोड़, दिन किताबों में डूबने लगे.
आयुष का ध्येय डाॅक्टर बनने का था, अत: वह अतिरिक्त कोचिंग लेने लगा. अब उसका हमारे घर आना-जाना कुछ कम हो गया था. उसकी मेहनत रंग लाई और उसे वहीं अपने ही शहर के मेडिकल कॉलेज में दाख़िला भी मिल गया था जैसे वह चाहता था. एक तो होस्टल का ख़र्चा बच गया और मां भी अकेली न पड़ीं. मेडिकल कॉलेज में पहुंच कर तो उसकी व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी. भैया ने स्नातक करने के बाद एमबीए कर लिया और नौकरी करने लगे.
मैं बारहवीं में पहुंच गई थी और यही वह दिन थे, जब मैं आयुष के प्रति एक अजब-सी चाहत महसूस करने लगी थी, जो बचपन की उस दोस्ती से बहुत भिन्न थी. उनके आने की उम्मीद पर ही मैं आईने में अपनी शक्ल देख लेती, बाल संवार, ढंग के कपड़े पहन लेती. पर आजकल वह बहुत कम ही आ पाते थे. कभी आयुष की ड्यूटी और कभी भैया अपनी पढ़ाई में व्यस्त. मैं चाहती कि वह भैया के लिए नहीं मेरे लिए आएं हमारे घर. पर मैं प्रतीक्षा ही करती रह जाती. आयुष की तरफ़ से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला. मैं इंजीनियर बनना चाहती थी और इसी बहाने आयुष से बात करने की सोचती. वह सलाह-मशविरा तो देते, पर बस इतना ही. मैं इतनी हिम्मत कभी नहीं जुटा पाई कि कोई पहल करूं. उस समय के माहौल में ऐसा अपेक्षित भी नहीं था. आज समय काफ़ी बदल गया है.
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मुझे मुंबई इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला मिल गया. अपनी सफलता पर भी ख़ुश नहीं हो पाई मैं और बुझे मन से गई. यद्यपि मैं वर्षों से यही चाह रही थी. मन को फुसला लिया कि पत्र में अपने मन की बात कहना सरल होता है और वही करूंगी मैं, पर बस सोचती ही रह गई.
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