कहानी- पुनश्‍च 1 (Story Series- Punashcha 1)

बड़े तो बड़े उनके छोटे पोते-पोतियां भी इतनी छोटी उम्र में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि अपनी दादी के पास बैठकर अपनी प्यारी-सी तुतलाती भाषा में उसका मन बहला सकें इतना भी व़क़्त नहीं है.

जब भी अतीत के दिन याद आते हैं तो मन के आकाश में स्मृतियों की वर्षा से मन और आंखें गहरे तक भीग जाती हैं. संयुक्त परिवार में बचपन कब बीता पता ही नहीं चला. इसका भान हुआ तो स्वयं को यौवन की दहलीज़ पर खड़े पाया. उसके परिवार का शिक्षित माहौल होने के कारण उसे भी पढ़ने-लिखने की पूरी स्वतन्त्रता मिली.

सुलोचना का मन बहुत उद्विग्न था. कई दिनों से मन में निराशा-सी आने लगी थी. हर समय मन में एक ही बात कचोटती रहती कि चंद दिनों बाद ही वह जीवन का अर्द्धशताब्दी का सफ़र तय कर प्रौढ़ावस्था की ओर क़दम बढ़ाने वाली है. पचास वर्ष पूरे करने के बाद एक बार पीछे मुड़कर अपनी उपलब्धियों का आंकलन करती है तो मन में कसक-सी उठती है. बचपन में सोचा था कि कुछ संरचनात्मक कार्य करके आम नारी की छवि से हटकर, अपनी एक अलग पहचान बनाएगी. किसी की बेटी, पत्नी या मां के रूप में न जानी जाकर अपने नाम से जानी जायेगी, पर ऐसा कुछ नहीं कर पाई वह. स्कूल-कॉलेज में हर क्षेत्र में जितनी सक्रिय और अग्रणी रही, विवाह के पश्‍चात् उसका समूचा व्यक्तित्व ही बदल गया. बच्चों और परिवार की सार-संभाल में ही समय कब व्यतीत हो गया इसका एहसास जब हुआ है तो लगता है कि समय उनके हाथ से रेत की तरह फिसल कर कहीं दूर जा चुका है.

आज कहने को वह एक सम्पन्न घर-परिवार की स्वामिनी है. जीवन की सभी भौतिक सुविधाएं निजी बंगला, कार, नौकर-चाकर एवं अन्य सारे ऐशो-आराम उसे उपलब्ध हैं, फिर भी मन की शांति नहीं है. अपने भरे-पूरे घर में भी स्वयं को नितान्त अकेला पाती है. पति अपने व्यवसाय में इतने लिप्त हो गए हैं कि उन्हें उसकी परवाह ही नहीं. दोनों बेटे भी पिता के साथ ही कारोबार में लगे हैं. एक्सपोर्ट का व्यवसाय होने के कारण दोनों में से एक तो प्राय: बाहर ही टूर पर रहता है. दोनों बहुएं भी जॉब करती हैं. एक फैशन डिज़ाइनर है तो दूसरी इंटीरियर डेकोरेटर. दोनों ही अपने-अपने पतियों के साथ सुबह 9 बजे घर से निकलती हैं तो शाम तक लौटती हैं. ऐसे में उनके पास भी समय कब रहता है कि फुर्सत से बैठकर कुछ समय उसके साथ गुज़ार सकें. बड़े तो बड़े उनके छोटे पोते-पोतियां भी इतनी छोटी उम्र में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि अपनी दादी के पास बैठकर अपनी प्यारी-सी तुतलाती भाषा में उसका मन बहला सकें इतना भी व़क़्त नहीं है.

जब भी अतीत के दिन याद आते हैं तो मन के आकाश में स्मृतियों की वर्षा से मन और आंखें गहरे तक भीग जाती हैं. संयुक्त परिवार में बचपन कब बीता पता ही नहीं चला. इसका भान हुआ तो स्वयं को यौवन की दहलीज़ पर खड़े पाया. उसके परिवार का शिक्षित माहौल होने के कारण उसे भी पढ़ने-लिखने की पूरी स्वतन्त्रता मिली. उसके दोनों बड़े भाई डॉक्टर थे, पर उसका शुरू से ही कला तथा साहित्य के प्रति रुझान था. अच्छे-अच्छे लेखकों की पुस्तकें पढ़ना और उनके लेखन से प्रेरित होकर अपने भावों को अभिव्यक्ति देने में उसकी विशेष अभिरुचि थी. लेखन में रुचि होने के कारण स्कूल, कॉलेज की मैगज़ीन का सम्पादन भी उसने कई वर्षों तक किया. साहित्य में एम.ए. करने के पश्‍चात वह पी.एच.डी. करने की सोच ही रही थी कि इसी बीच रवि के यहां से विवाह का प्रस्ताव आ गया. हालांकि आर्थिक दृष्टि से रवि और उनके परिवार में ख़ासा अंतर था, पर रवि की शिक्षा और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसके पिताजी ने रवि के साथ उसका रिश्ता तय कर दिया. उसके पिताजी को विश्‍वास था कि रवि इतना होनहार है कि वह किसी भी परिस्थिति में रहकर भी अपनी योग्यता से अपना भविष्य उज्ज्वल बना लेगा.

शादी के शुरू-शुरू के दिनों में तो उसे अपने और रवि के परिवार के जीवन स्तर में बहुत अंतर लगा, पर फिर भी उसने हर परिस्थिति का बहुत सहजता से सामना करते हुए गृहस्थी की गाड़ी को सुचारु रूप से चलाने की हर संभव कोशिश की. रवि की दोनों बहनों की शादी, भाई को उच्च शिक्षा दिलाने के सभी दायित्व ख़ुशी-ख़ुशी निपटाए. इसी बीच थोड़े-थोड़े अंतराल पर कुणाल और कर्ण के जन्म के बाद उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी भी आ गई.

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उन आर्थिक तंगी के दिनों में भी अपने सामर्थ्य से बढ़कर उसने बच्चों का लालन-पालन किया. स्वयं कष्ट और तकलीफ़ में रहकर भी बच्चों को दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई अभाव नहीं हो इसकी पूरी-पूरी कोशिश की. पर जब कभी ज़िन्दगी की व्यस्तताओं में दो-चार क्षणों की फुर्सत मिलती तो जीवन में अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाने का मलाल मन को कचोटता रहता, पर धीरे-धीरे गृहस्थी की व्यस्तता में उसने अपने और शौक़ विस्मृत कर दिये थे.

बच्चों के कुछ बड़े होने पर जब रवि को लगने लगा कि उनके सुरक्षित भविष्य के लिए, उनकी नौकरी की आय पूरी नहीं पड़ रही है, तो उन्होंने अपना निजी व्यवसाय प्रारम्भ करने का निर्णय किया.

आज रवि अपने व्यवसाय में पूरी तरह स्थापित हैं. दानों बेटों ने भी एम.बी.ए करने के पश्‍चात पिता के व्यवसाय से जुड़कर अपने बिज़नेस को बहुत आगे बढ़ा दिया है. आज उनके पास जीवन की सभी भौतिक सुविधाएं उपलब्ध हैं, पर उम्र के इस मोड़ पर पति के सानिध्य में कुछ समय बीता पाए इतना व़क़्त भी रवि के पास नहीं है.

     हंसा दसानी गर्ग

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कहानी- पुनश्‍च 1 (Story Series- Punashcha 1) | Hindi Kahani | Meri Saheli
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बड़े तो बड़े उनके छोटे पोते-पोतियां भी इतनी छोटी उम्र में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि अपनी दादी के पास बैठकर अपनी प्यारी-सी तुतलाती भाषा में उसका मन बहला सकें इतना भी व़क़्त नहीं है. जब भी अतीत के दिन याद आते हैं तो मन के आकाश में स्मृतियों की वर्षा से मन और आंखें गहरे तक भीग जाती हैं. संयुक्त परिवार में बचपन कब बीता पता ही नहीं चला. इसका भान हुआ तो स्वयं को यौवन की दहलीज़ पर खड़े पाया. उसके परिवार का शिक्षित माहौल होने के कारण उसे भी पढ़ने-लिखने की पूरी स्वतन्त्रता मिली.
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