‘इतने सालों बाद तुम्हें कैसे मेरी याद आई?’
‘याद तो उसकी आती है, जिसे भूला गया हो, मैं तो तुम्हें कभी भूला ही नहीं…’ उसने सादगी से जवाब लिखा. यह अप्रत्याशित उत्तर सुनकर अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को कंट्रोल करके मैंने उसी अंदाज़ में पूछा, ‘फिर मेरे पत्रों का जवाब क्यों नहीं दिया?’
पूरी रात आंखों में ही कट गई. सुबह के पांच बज रहे थे. मैंने अपने विचारों पर झटके से विराम लगाया और उठकर मुंह-हाथ धोकर सुबह टहलने के लिए निकल गई. लौटकर थकान और रातभर न सोने के कारण सोफे पर ही अधलेटी होकर गहरी निद्रा की गोद में समा गई और तब जागी, जब पति ने आकर उठाया और कहा, “यहां कैसे सो गई, उठो! नौ बज गए हैं.” मैं हड़बड़ाकर उठी और रात की घटना याद करके ऐसा लगा, जैसे कोई सपना देखा हो.
श्याम के संदेश ने मेरे मन में हलचल तो मचा दी थी, लेकिन अपने निर्णय पर अडिग रहकर उसके संदेश का उत्तर नहीं दिया. यह क्या चार दिन बाद ही फिर वही संदेश. इस बार मेरा मन डोल गया और मैंने अपने मन को समझाया, बात करने में हर्ज़ ही क्या है, देखूं तो सही वह क्या कहना चाहता है. इतने सालों बाद उसके जीवन में क्या परिवर्तन आया है. मैंने एक्सेप्ट पर क्लिक कर दिया और जवाब में थोड़ा बनावटी रोष दिखाते हुए लिखा- ‘हां, तुमने सही पहचाना, मैं पाखी त्रिपाठी ही हूं. इतने सालों बाद तुम्हें कैसे मेरी याद आई?’
‘याद तो उसकी आती है, जिसे भूला गया हो, मैं तो तुम्हें कभी भूला ही नहीं…’ उसने सादगी से जवाब लिखा. यह अप्रत्याशित उत्तर सुनकर अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को कंट्रोल करके मैंने उसी अंदाज़ में पूछा, ‘फिर मेरे पत्रों का जवाब क्यों नहीं दिया?’
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‘पिताजी के देहांत के बाद घर की पूरी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई थी. मां पढ़ी-लिखी तो थी नहीं. बहनें बहुत छोटी थीं. घर का ख़र्च चलाने के लिए मुझे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी. जीवन को नए सिरे से जीना था. पिताजी के रिक्त स्थान पर मुझे मेरी योग्यतानुसार नौकरी तो मिल गई, लेकिन वेतन इतना कम मिलता था कि घर का ख़र्च चलाना भी कठिन था. उस समय इतनी उलझनों के बीच तुम्हारे पत्रों की भाषा समझनेवाला कोमल दिल पाषाण की तरह कठोर हो गया था. सब कुछ बेमानी लगने लगा था.’
‘उ़फ्! इतनी तकली़फें झेलीं तुमने. मुझे बताते तो…’ मैंने उदास मन से उत्तर दिया, तो उसने बीच में ही बात काटकर लिखा, ‘क्या फ़ायदा होता, तुम्हें भी दुख ही पहुंचता. जब पूरा भविष्य ही अंधकारमय लग रहा था, तब अपनी ख़ुशी के बारे में तो सोच भी नहीं सकता था. लेकिन दो साल बाद मैं ऑफिस के काम से मुंबई गया, तो तुम्हारे घर भी गया था, लेकिन तब तक तुम लोग वहां से जा चुके थे. उसके बाद कैसे संपर्क करता तुमसे, काश! उस ज़माने में भी मोबाइल होता, तो कितना अच्छा होता!’
सुधा कसेरा
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