इस उमंग में उन सभी को लग रहा था कि इतने कम समय में मनोज के परिवार से दिल नहीं भरेगा. काश और छुट्टियां होतीं! लेकिन उनका उत्साह उस समय ठंडा पड़ने लगा, जब मनोज कहकर भी उन्हें स्टेशन पर कार से लेने नहीं आया. जब स्निग्धा के धैर्य का बांध टूट गया, तो उसने फोन मिलाया. दूसरी ओर से मनोज बोला, “अरे क्या बताऊं, नेहा की बहनें मार्केट घूमने की ज़िद कर बैठीं. सोचा था जल्दी वापस आ जाऊंगा, मगर उनकी ख़रीददारी और घुमाने में फंस गया. आई एम वेरी सॉरी. ऐसा करो तुम लोग थ्री व्हीलर से आ जाओ. रवीश से कहना नाराज़ न हो.”
इसके बाद तो स्निग्धा के घर पर उसके मम्मी-पापा और बहनों का एकछत्र राज हो गया. तीज-त्योहरों पर उसकी बहनें ही घर की मालकिन बन बैठतीं. इस होली पर भी यही कार्यक्रम था, लेकिन दोनों बहनों के मामाजी के घर चले जाने से स्निग्धा की सारी योजना धरी रह गई. इससे उपजी खिन्नता के कारण उसके मन में फिर से मनोज भइया के घर जाने की आकांक्षा ज़ोर मारने लगी. ‘भइया ही तो हैं, भूल गए होंगे. मेरा तो अधिकार है उन पर, ख़ूब सुनाऊंगी….’ आदि विचारों से अपने आत्मविश्वास को सुदृढ़ता देने के बाद उसने मनोज भइया को फोन मिला ही दिया, “क्यों भूल गए भइया? रक्षाबंधन के धागे भी याद नहीं रहे?” “नहीं बेटा, थोड़ा बिज़ी हो गया था. ससुरालवाले आ गए हैं. होली की छुट्टियों से पहले ही और छुट्टियां लेनी पड़ी हैं. नेहा तो उन्हीं में लगी है दिन-रात. लग रहा है मुझे भूल ही गई है, इसी वजह से तुम्हें भी फ़ोन नहीं कर सकी होगी. मैं तुम्हें फोन करता कि तुम्हारा फोन आ गया. यहां बड़ा अच्छा मौसम है, थोड़ी ठंड और थोड़ी धूप. तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा. कल ही आ जाओ. रवीश को भी साथ लेते आना. बहुत दिनों से वह भी कहां आया है.” मनोज ने बहन की नाराज़गी को हल्का करते हुए कहा
“हम दोपहर की ट्रेन से पहुंचेंगे. भाभी के भी कान खींचूंगी. कार से लेने आ जाना.”
“यह भी कोई कहने की बात है. रवीश से कहना उसका ग़ुलाम हाज़िर रहेगा प्लेटफॉर्म पर.” मनोज ने अपने शब्दों को आत्मीयता से भर दिया.
रात को सोने से पहले स्निग्धा ने अपनी बहनों के न आ पाने की मजबूरी और उससे उपजे अपने ख़राब मूड की आड़ लेते हुए रवीश को मनोज के घर जाने के लिए राज़ी कर लिया. साथ ही वह रवीश के महिमामंडन से भी नहीं चूकी, “भइया, मुझसे अधिक आपको मानते हैं, वह तो ख़़ासतौर पर आपको बुला रहे हैं. देखना पलकें बिछाए रहेंगे…” और भी न जाने क्या-क्या. इस सबका परिणाम यह हुआ कि रवीश ने भी अपने विभाग से होली के अवकाश से पहले चार दिन का अवकाश और ले लिया.
दूसरे दिन सुबह से ही स्निग्धा मनोज के घर जाने की तैयारी में जुट गई. बैगों को साड़ियों और बच्चों के कपड़ों से ठूंस दिया. रवीश के मना करने के बावजूद उसके भी कई जोड़े कपड़े एक अलग सूटकेस में भर दिए. लगा जैसे महीनों के लिए जा रही है. सभी उत्साहित थे कि रोज़ नए कपड़े पहनकर मौज मनाएंगे. बच्चे भी मामा-मामी की रट लगाए थे. इस उमंग में उन सभी को लग रहा था कि इतने कम समय में मनोज के परिवार से दिल नहीं भरेगा. काश और छुट्टियां होतीं! लेकिन उनका उत्साह उस समय ठंडा पड़ने लगा, जब मनोज कहकर भी उन्हें स्टेशन पर कार से लेने नहीं आया. जब स्निग्धा के धैर्य का बांध टूट गया, तो उसने फोन मिलाया. दूसरी ओर से मनोज बोला, “अरे क्या बताऊं, नेहा की बहनें मार्केट घूमने की ज़िद कर बैठीं. सोचा था जल्दी वापस आ जाऊंगा, मगर उनकी ख़रीददारी और घुमाने में फंस गया. आई एम वेरी सॉरी. ऐसा करो तुम लोग थ्री व्हीलर से आ जाओ. रवीश से कहना नाराज़ न हो.”
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स्टेशन से मनोज के घर तक पहुंचने का जो रास्ता आधे घंटे का था, वह थ्री व्हीलर पर गड्ढों से भरी सड़क और जाम के कारण एक घंटे में पूरा हुआ. थककर स्निग्धा, रवीश और बच्चों का हाल बेहाल हो गया. स्निग्धा को चक्कर-सा आने लगा और बच्चे उल्टियां करने लगे. सोचा था कि मनोज के घर पर आराम मिलेगा, लेकिन वहां पहुंचे, तो लगा जैसे पहले से ही उसके ससुरालवालों का कब्ज़ा हो चुका था. सास, ससुर, एक साला और दो सालियों के अलावा चचिया सास-ससुर भी आ धमके थे इस बार. तीन रूम और एक छोटे बरामदे में घिचपिच-सी हो गई थी. कमरे सभी भरे हुए थे. एक में चचिया सास-ससुर, दूसरे में नेहा के माता-पिता और साले-सालियां और तीसरे कमरे में मनोज का अपना परिवार. मनोज सालियों को लेकर अभी भी बाज़ार से वापस नहीं आया था. नेहा अपने मायकेवालों की सेवा में लगी हुई थी. उन्हें अंदर आता देख बोली, “अरे दीदी, जीजाजी, आ गए आप लोेग. सामान बरामदे में रख दीजिए. वो आते ही होंगे, तब तक आप लोेग भी यहीं बैठिए, कमरों में तो बहुत भीड़-भड़ाका है.” इतना कहकर वह चली गई चाचा-चाची के कमरे में.
बच्चों की तबियत अभी भी ढीली ही थी. रवीश और स्निग्धा बरामदे में पड़े लंबे सोफे पर बैठ गए और दोनों बच्चों को अपने बीच में जगह बनाकर लिटा दिया अगल-बगल. थोड़ी देर बाद नेहा ने मेहरी से पानी भिजवा दिया और उससे कुछ देर बाद चाय और बिस्किट. नेहा के मम्मी-पापा ने कमरे से बाहर आकर स्निग्धा, रवीश और बच्चों की औपचारिक कुशलक्षेम पूछी और फिर अपने कमरे में घुस गए. एक घंटे दरवाज़े पर टकटकी लगाए रखने के बाद मनोज अपनी सालियों के साथ घर में आया, तो सामान के थैलों से लदा हुआ था. उन्होंने ख़ूब खऱीददारी करवाई थी मनोज से. वह स्निग्धा और रवीश की तरफ़ बढ़ता, उससे पहले ही सालियों ने टोक दिया, “जीजू, पहले सामान तो हमारे कमरों में रख दीजिए.”
सालियों से छुटकारा पाकर वह रवीश के पास आए, “आई एम वेरी सॉरी यार, वो क्या करूं, फंस गया शॉपिंग के झमेले में. मैं आप लोगों के ठहरने की व्यवस्था करता हूं.” वह अपने कमरे में गए और नेहा से न जाने क्या-क्या फुसफुसाते रहे. स्निग्धा ने कनखियों से देखा, तो नेहा का भृकुटी तना चेहरा नज़र आया.
असलम कोहरा
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