कहानी- रिश्तों का दर्पण 2 (Story Series- Rishton Ka Darpan 2)

रवीश के माता-पिता और बहनें शुरू-शुरू में तो स्निग्धा के पास आए थे, लेकिन बहुत जल्दी ही स्निग्धा ने उपेक्षित व्यवहार करके उनके आने से पल्ला झाड़ लिया था. ऐसा उदासीन व्यवहार दिखाया कि ससुरालवालों ने भविष्य में आने से तौबा कर ली. छोटे बच्चे के पहले जन्मदिन की बात है. इस मौ़के पर रवीश के परिवारवाले भी उसके कहने पर आ गए थे, लेकिन क्या मिला उन्हें उपेक्षा के सिवा.

“ठीक है, लेकिन रीतू और मीनू स्वयं ही इच्छुक थीं यहां आने को. उन्होंने पहले से ही कह रखा है. छोटा घर है, ऐसे में अनन्या और मान्यता की भरपूर सेवा नहीं हो पाएगी, जो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. ऐसा करते हैं, इस बार रीतू, मीनू को बुला लेते हैं, अनन्या और मान्यता को किसी और अवसर पर बुला लेंगे… वैसे जैसा आप कहें…”

“ठीक है, जैसा तुम्हें अच्छा लगे, वैसा करो. मैं तुमसे अलग थोड़े ही हूं.” रवीश ने समर्पण कर दिया. ऐसे अवसरों पर थोड़े से भी विवाद और बहस से वह बचता ही था. पति के समर्पण के लिए जो भूमिका स्निग्धा ने बनाई थी, उसका परिणाम मनोनुकूल पाकर वह अंदर ही अंदर प्रसन्नता से भर गई.

चाय के बाद रवीश टीवी पर समाचारों में व्यस्त हो गया. स्निग्धा मौक़ा पाकर बहनों को बुलाने की ख़ुशी से लबरेज़ दोबारा मोबाइल लेकर लॉन में आ गई. उत्साहित हो उसने मोबाइल से अपने घर पर फोन मिलाया. उधर मम्मी थीं. औपचारिक बातों के बाद मम्मी बोलीं, “बेटा, होली में आ रही है यहां? घर बड़ा सूना-सा है. मनोज को तो नौकरी से ़फुर्सत नहीं है और रीतू और मीनू अपने मामा के घर पर चली गई हैं. कह तो रही थीं तुम्हारे पास जाने को, लेकिन तभी मामी का फोन आ गया.” मम्मी से मिली जानकारी ने स्निग्धा की सारी योजना पर पानी-सा फेर दिया. मन खिन्नता से भर गया. थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकती थीं दोनों. वह अपनी बहनों पर ही झुंझला पड़ी और निढाल-सी लॉन की मखमली घास पर पसर गई. रिश्तों के ताने-बाने से उलझे विचार फिर मंडराने लगे उसके इर्द-गिर्द.

रवीश के संयुक्त परिवार में स्निग्धा ब्याही थी. चार बरस हो गए इस बात को. वह बचपन से ही कुछ खुले विचारों की थी. संयुक्त परिवार की तो उसने कल्पना ही नहीं की थी. उसने मन में ऐसा घरौंदा बना रखा था, जिसमें वह, उसका पति और दो बच्चे हों. उस घरौंदे में आने की इजाज़त भी हो, तो उसके घरवालों को ही. उसमें ससुरालवालों के लिए कोई जगह नहीं थी. रवीश पहले से ही अपने घर से दूर एक मल्टीनेशनल कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर नियुक्त था. सो स्निग्धा के घरवालों ने रवीश के परिवार की सभी शर्तों को स्वीकार करते हुए उसे रवीश के बंधन में बांध दिया. स्निग्धा भी इस रिश्ते से बेहद ख़ुश थी. दूसरे शहर में नौकरी ने संयुक्त परिवार में रहने की संभावना स्वयं ही समाप्त कर दी थी. शुरू के कुछ दिन ही वह संयुक्त परिवार में रही, फिर रवीश उसे अपने नौकरी से मिले क्वार्टर में ले आया.

धीरे-धीरे अपने लटकों-झटकों से स्निग्धा ने रवीश को अपना गु़लाम बना लिया. वह हर समय उसकी हां में हां मिलाता रहता. अपने घर भी बहुत कम जाता. अधिकतर हर तीज-त्योहार पर स्निग्धा उसे अपने घर ले जाती या फिर उसके मायकेवाले आ धमकते. ऐसे अवसरों पर रवीश के परिवार के लोग, विशेष रूप से दोनों छोटी बहनों की आंखें भइया-भाभी की आस लगाए-लगाए पथरा जातीं. रवीश के घर नहीं आने को तो उसके घरवाले कुछ सह भी लेते, लेकिन स्निग्धा के माता-पिता और भाई-बहनों को रवीश के घर पर आए दिन पड़े रहने को वे आत्मसात नहीं कर पाते.

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स्निग्धा के दोनों बच्चे ससुराल से बाहर ही जन्में. पहला बच्चा मायके में और दूसरा उसके अपने क्वार्टर में. दोनों बच्चों के जन्म के समय स्निग्धा के घरवालेे ही जमे रहे. बच्चों के जन्म से जुड़े सारे संस्कार भी मायके में ही किए गए. बच्चों के जन्म के समय एकाध बार रवीश ने अपने घर चलने को कहा भी, लेकिन स्निग्धा ने इस प्रस्ताव को बड़ी चालाकी से यह कहकर ख़ारिज़ कर दिया था कि बच्चे उसकी मम्मी से हिले-मिले हैं, वह पूरा ख़्याल रखती हैं, उनसे अलग होने पर बीमार पड़ सकते हैं. वह दोनों बच्चों को लेकर औपचारिकता निभाने के लिए 4-5 बार ही ससुराल गई थी और वह भी एक-दो दिन के लिए. ससुराल से लौटकर जब भी वापस आती, तो कुछ दिनों तक उसका मुंह चढ़ा रहता, सही देखभाल नहीं हो पाती वहां, बच्चे बीमार पड़ गए. कोई तवज्जो भी नहीं देता है. अपना ही घर ठीक रहता है.

रवीश के माता-पिता और बहनें शुरू-शुरू में तो स्निग्धा के पास आए थे, लेकिन बहुत जल्दी ही स्निग्धा ने उपेक्षित व्यवहार करके उनके आने से पल्ला झाड़ लिया था. ऐसा उदासीन व्यवहार दिखाया कि ससुरालवालों ने भविष्य में आने से तौबा कर ली. छोटे बच्चे के पहले जन्मदिन की बात है. इस मौ़के पर रवीश के परिवारवाले भी उसके कहने पर आ गए थे, लेकिन क्या मिला उन्हें उपेक्षा के सिवा. केक काटने, खाना खाने, अतिथियों से बातचीत और ठहरने सहित सारे कार्यक्रम पर स्निग्धा और उसके घरवालों का आधिपत्य बना रहा. बच्चे को अपने ही हाथों में उठाए रहे. रवीश के घरवालों को छूने भी नहीं दिया. रात होने पर तो स्निग्धा ने बखेड़ा ही खड़ा कर दिया था, “बड़ी आफ़त में जान है. कहां लेटेंगे, बैठेंगे, समझ में नहीं आता. छोटा घर है, कम से कम यह तो ख़्याल रखना चाहिए लोगों को. सारे कार्यक्रम में शामिल हो लिए, तो शाम को चले जाना चाहिए.” रवीश के घरवालों ने जैसे-तैसे रात काटी और सुबह होते ही चले गए.

असलम कोहरा

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