कहानी- सबसे बड़ी सौग़ात 2 (Story Series- Sabse Badi Saugat 2)

मुझे लगा अचानक मेरे पांव जैसे किसी दहकते अंगारे पर पड़ गए हों. मैं क्या इतनी पराई हो गई थी कि अब भैया को मुझसे हानि पहुंचने का डर हो गया था. औरों की छोड़ दें, तो भी मेरे भैया ने मेरे लिए ऐसा कैसे सोचा? कभी हम दोनों भाई-बहनों में इतनी नज़दीकियां थीं कि मां-पापा को हम दोनों कोई बात बताएं या न बताएं, एक-दूसरे को ज़रूर बताते थे. भैया अपनी सारी ज़रूरतों को तिलांजलि दे, अपने पॉकेटमनी से मेरी इच्छाओं की पूर्ति करते थे, वही भैया मुझसे पूछे बिना, बाहरवालों से मिलकर अपनी संपत्ति मुझसे ही सुरक्षित कर रहे थे. मैं अपने को बहुत छोटा और पराया महसूस करने लगी थी.

वक़्त के किसी पल में मेरी आंख लग गई और मैं वहीं चारपाई पर ही सो गई. चिड़ियों के कलरव के साथ सुबह नींद खुली, तो मैं चौंककर उठ बैठी. घर के सभी लोग अभी सो रहे थे. मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल आई. बगीचे में पहले की तरह ही फूल और फल के पेड़ करीने से लगे हुए थे. कभी पापा ने ये घर और उससे लगा यह बगीचा मां को जन्मदिन के उपहार के रूप में दिया था. मां भी इसे बहुत संभालकर रखती थीं. देर तक मैं वहां बेंच पर बैठी पुरानी यादों को ताज़ा करती रही.

मैं टहलकर वापस आई, तो सभी लोग चाय समाप्त कर रहे थे. भाभी ने वहीं से आवाज़ लगाकर शंकर को चाय लाने के लिए बोला, पर वह किसी काम से कहीं चला गया. कुछ देर इंतज़ार करने के बाद मैं यह सोचकर रसोईघर में चली गई कि अपना घर है, ख़ुद ही बना लूंगी तो क्या होगा?

चाय बनाने के लिए जैसे ही चाय की पत्ती को हाथ लगाया था कि शंकर आ गया. आते ही बोला, “अरे दीदी, इस डिब्बे से चाय मत बनाइए, इस डिब्बे से स़िर्फ साहब और मेमसाहब के लिए चाय बनता है, आप दूसरे डिब्बे से बनाइए.” इतना बोलकर उसने एक दूसरा डिब्बा थमा दिया. शंकर के इस व्यवहार से मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने गर्म सरिया मेरे सीने में उतार दिया हो. फिर भी यह सोचकर कि नौकरों की बातों का क्या ये होते ही हैं झगड़ा लगानेवाले. मैं गोल दाने की कड़क चाय बनाकर डायनिंग टेबल पर आ बैठी. तभी कहीं से भाभी भी वहां पर आ गईं, “ये क्या निधिजी, आज भी आप गोलदानेवाली चाय पी रही हैं. पहले आप लीफ की चाय के अलावा किसी और चाय को हाथ भी नहीं लगाती थीं. लगता है ननदोईजी ने आपकी फ़ितरत ही बदल दी.”

“नखरे तो आज भी मेरे वही हैं भाभी, पर आपके नौकर ने मुझे मेरी औक़ात बता दी.”

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मैंने भी तड़ से नहले पर दहला जड़ दिया. भाभी को वातावरण की गंभीरता समझते देर नहीं लगी. उन्होंने तुरंत शंकर को बुलाकर डांट लगाई और आगे से मुझे लीफ की चाय देने की हिदायत दे दी.

नाश्ते के समय मेरे कहने पर भी भाभी मेरे लाए हुए नमकीन और मिठाइयों के प्रति उदासीन बनी रहीं. मैंने एक-दो डिब्बे निकालकर डायनिंग टेबल पर रख दिए. इतने जतन से चुन-चुनकर ख़रीदी गई मिठाइयां या तो फ्रिज में पड़ी थीं या घर के नौकरों के भोग लग रही थीं. जिस दशहरी आम के लिए ट्रेन में मेरी कई सहयात्रियों से झड़प हो गई थी कि आम दब न जाएं, वही आम अब स्टोररूम में लावारिस पड़े थे. फल और मिठाइयों का हश्र देख मन उदास हो उठा.

नाश्ते के बाद मैं पड़ोस में रहनेवाली यमुना काकी के यहां चली गई. आशा अनुकूल उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया और ड्रॉइंगरूम से ही बहुओं को चाय-नाश्ता बनाने के लिए आवाज़ लगाने लगीं. मुझे हंसी आ गई.

“यमुना काकी, आप ज़रा भी नहीं बदली हैं. आज भी आपका अपनी बहुओं पर वही दबदबा है. अभी कुछ मत बनवाइए, मैं तुरंत नाश्ता करके आ रही हूं. अब तो यहां लगभग महीनाभर रहूंगी, फिर कभी आकर खा लूंगी.”

“वो तो मुझे मालूम है, इस बार ज़्यादा दिनों तक रहोगी. तुम्हारे गोविंद भैया ने बताया था. जब वह शेखर से काग़ज़ बनवाने के लिए कहने आए थे.”

यमुना काकी का बड़ा लड़का शेखर वकील है, इसलिए मुझे थोड़ा आश्‍चर्य हुआ. मैं कुछ पूछती उसके पहले वह ख़ुद ही बोलीं, “तुम शायद ऐसा न करो, लेकिन आजकल तो लड़कियों की प्रवृत्ति हो गई है, ससुराल में चाहे कितनी ही सुखी-सम्पन्न हों, पर मायके की संपत्ति पर उनकी नज़रें लगी रहती हैं. बहनें खुलेआम कोर्ट में जाकर अपने हक़ की बातें कर रही हैं. यह सब देखकर तुम्हारे भैया काग़ज़ बनवाने आए थे, ताकि तुम या तुम्हारे बच्चे उन्हें कभी भविष्य में कोर्ट में ना घसीटो.”

मुझे लगा अचानक मेरे पांव जैसे किसी दहकते अंगारे पर पड़ गए हों. मैं क्या इतनी पराई हो गई थी कि अब भैया को मुझसे हानि पहुंचने का डर हो गया था. औरों की छोड़ दें, तो भी मेरे भैया ने मेरे लिए ऐसा कैसे सोचा? कभी हम दोनों भाई-बहनों में इतनी नज़दीकियां थीं कि मां-पापा को हम दोनों कोई बात बताएं या न बताएं, एक-दूसरे को ज़रूर बताते थे. भैया अपनी सारी ज़रूरतों को तिलांजलि दे, अपने पॉकेटमनी से मेरी इच्छाओं की पूर्ति करते थे, वही भैया मुझसे पूछे बिना, बाहरवालों से मिलकर अपनी संपत्ति मुझसे ही सुरक्षित कर रहे थे. मैं अपने को बहुत छोटा और पराया महसूस करने लगी थी.

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यह सही है कि भाई-बहन के प्रेम को लोग गुज़रते समय के साथ नए सिरे से सीमाबद्ध करने लगे हैं. बहन के अधिकारों को लेकर बनाए गए नए क़ानूनों से इस रिश्ते के असहज और नैसर्गिक रूप को शक के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है, जिसने रेशम की डोर से बंधे इस रिश्ते को भावनाविहीन कर दिया है. भैया ने काग़ज़ों पर विश्‍वास किया, मुझ पर नहीं. यह बात मुझे बहुत खल रही थी. पलभर में हम दोनों भाई-बहन के बीच एक पथरीली दीवार खड़ी हो गई थी, जो ऊंची और अगम्य है. उस दिन आहत मन लिए मैं घर लौटी, लेकिन भैया को कुछ भी न बताया, न ही कुछ पूछा.

       रीता कुमारी

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