कमरे में निस्तब्धता छाई हुई है, किंतु मेरे दिलो-दिमाग़ में कोलाहल मचा हुआ है. विचारों की अंघड़ आंधियां मन की दीवारों से टकरा कर मुझे आहत कर रही हैं. फोन पर सुनी हुई बातों पर दिल यक़ीन करने को नहीं चाह रहा, किंतु कानों सुनी बातों को कैसे झुठला दूं? शायद मज़बूत रिश्तों में भी अदृश्य दरारें छिपी होती हैं, जो रिश्तों को खोखला कर देती हैं. इस बात का एहसास मुझे अब हुआ है.
सचिन दूसरे कमरे में अपना कुछ काम निपटा रहे हैं. शायद इस ख़ामोशी से घबराकर ही उन्होंने रेडियो एफएम चला दिया है. रफी साहब के गीत की स्वरलहरियां वातावरण में गूंजने लगीं हैं.
आदमी को चाहिए, वक़्त से डरकर रहे,
कौन जाने किस घड़ी, वक़्त का बदले मिज़ाज…
साहिर लुधियानवी के लिखे ये शब्द मेरे हृदय को छलनी करने लगे. कितना सच कहा है शायर ने. एक पल में वक़्त बदल जाता है. सम्भलना तो दूर की बात, इंसान कुछ सोच भी नहीं पाता और ज़िंदगी के कैनवास के रंग बदल जाते हैं.
कल तक अभिमान के जिस उच्च शिखर पर मैं तनी खड़ी थी, आज वह रसातल में धंस चुका है. यहां तक कि मेरे विश्वास की बुनियाद भी हिल गई है. रिश्तों के समीकरण बदल गए हैं. दो वर्ष हुए थे मेरे विवाह को. सचिन एक एमएनसी कंपनी की गुरुग्राम स्थित ब्रांच के मैनेजर थे. कंपनी की तरफ़ से थ्री बीएचके फ्लैट, बड़ी गाड़ी और वे सारी सुख-सुविधाएं, जो एक लग्ज़ीरियस लाइफ जीने के लिए आवश्यक हैं, हमें प्राप्त थीं.
मेरी सभी सहेलियां, कज़िन्स मेरी किस्मत पर रश्क कर रहे थे. सचिन से दस साल बड़ी बहन का विवाह हो चुका था. मुझ पर कोई दायित्व नहीं था. स्वभाव से शांत सचिन सुबह ऑफिस के लिए निकल जाते और दिनभर मैं सहेलियों के साथ गप्पों और मौज-मस्ती में व्यस्त रहती. कुकिंग में मेरी बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी. अक्सर मैं बाहर से खाना ऑर्डर कर देती थी. वीकेंड पर हम दोनों मित्रों के साथ घूमने-फिरने में व्यस्त रहते.
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शादी के पश्चात् मेरी पहली दीवाली पड़ी, तो मेरी सास ने फोन पर मुझसे सस्नेह कहा, ‘‘पायल, हमारे यहां रिवाज़ है कि शादी के बाद का हर पहला त्योहार बहू अपनी ससुराल में मनाए, इसलिए तुम और सचिन यहां आने का प्रोग्राम बना लो.’’ उनका फोन रखते ही मैंने अपने मायके फोन मिलाकर मम्मी को सारी बात बताई.
मम्मी बोलीं, ‘‘अरे, हम भी तो तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं. उसका क्या? तेरी सास ने स्वयं अपनी बेटी को मायके बुलाया हुआ है और बहू को ससुराल में दीपावली मनाने की नसीहत दे रही हैं.’’ शाम को सचिन ने रुड़की चलने की बात कही, तो मैंने वही बात उनके आगे दोहरा दी.
सचिन के चेहरे के भाव बदल गए, ‘‘पायल, दीदी की शादी को सात साल बीत चुके हैं, इसलिए तुम उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकतीं. दूसरी बात जीजाजी दो माह के लिए लंदन गए हुए हैं, इसलिए दीदी मां के पास हैं. हां, फिर भी तुम रुड़की नहीं जाना चाहतीं, तो मैं तुम्हें बाध्य नहीं करुंगा.’’ उनकी और अपनी सास की भावनाओं को अहमियत न देते हुए मैं मायके चली गई. नई नवेली दुल्हन नाराज़ न हो जाए, इसलिए सचिन भी मेरे साथ चले आए…
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