कहानी- उनसठ बरस का कुंवारा बसंत… 5 (Story Series- Unasath Baras Ka Kunwara Basant… 5)

खिड़की से हरसिंगार और परिसर में लगी रातरानी की महक से भीगी सुहावनी हवा भीतर आ रही थी. दूर गगन में चांद झिलमिला रहा था. मीरा ने सारे रंगीन धागे समेटकर तकिए के पास रख लिए और लाइट बंद कर दी. उनसठ बरस के कुंवारे बसंत के अनछुए एहसास को मन की डाल पर जीती मीरा तकिए पर सिर रखे लेट गई.

 

 

 

… “कढ़ाई के धागों से तो कढ़ाई ही होती है ना, तो अब खाली समय में अक्षरों के अलावा थोड़ा रंगों का भी साथ हो जाएगा.” श्रीनाथजी ने मुस्कुराते हुए कहा.
“लेकिन आपको कैसे पता कि मुझे कढ़ाई करना पसंद है? मैंने तो बरसों से धागों को छुआ भी नहीं.” मीरा घोर आश्चर्य से बोली.
“तो अब छुइये ना. उस दिन आपने टिकोजी रखी थी केतली पर उसे देखते ही मैं समझ गया था कि आपको कढ़ाई आती है और वह आपके ही हाथों से बनी हुई है.” वह मुस्कुराकर बोले.
मीरा के मन की धरती कहीं भीग गई. ऐसा क्यों होता है कि जिस व्यक्ति से आपके जीवन की डोर, रिश्ते की डोर जुड़ी होती है, उससे मन की डोर नहीं बंध पाती और वह आपको उम्रभर समझ ही नहीं पाता. वहीं दूसरी ओर जिसके साथ रिश्ते की कोई डोर नहीं होती, उसके साथ मन ना जाने किस अदृश्य डोर से जुड़ जाता है कि वह आपकी पसंद-नापसंद सब बिना कहे ही समझ जाता है.
उस शाम मीरा ने उनके जाने के बाद एक कपड़ा लिया और देर रात तक अलग-अलग रंगों से विभिन्न तरीक़ों से कढ़ाई के छोटे-छोटे नमूने काढ़ती रही. कपड़े के साथ ही मन भी रंगों में रंग गया जैसे. होंठ गुनगुनाने लगे. हृदय में एक सुखद पुलक उठने लगी, जो एकदम नवीन थी. मीरा चौंक उठी इस उम्र में? किंतु क्या अब भी मन में कुछ जीवित बचा रह गया है क्या? वह तो सोच रही थी कि इस उम्र में आकर तो मन कब का ही मर चुका है.

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तभी जैसे भीतर से कोई बोला, ‘मन किसी भी उम्र में आकर कभी मर जाता है क्या? नहीं मन सदा जीवित रहता है अपनी समस्त भावनाओं के साथ. भावनाएं कभी ख़त्म नहीं होती. मनुष्य जीवनभर उन्हें पूरी करने का प्रयत्न करता रहता है और पूरी ना हो पाए, तो दबा देता है मन की भीतरी परतों में लेकिन वह मरती नहीं है. बीज जैसे प्रतिकूल परिस्थितियों में मिट्टी के भीतर सुप्त, दबा रहता है वैसे ही मन की कोमल भावनाएं मन की भीतरी परतों में सुप्त पड़ी रहती हैं. लेकिन उनके भीतर कामनाओं और इच्छाओं का एक अंकुर सदा जीवित रहता है. मीरा के भीतर भी एक सुप्त अंकुर था, एक स्नेहिल आत्मीय साथ की इच्छा का अंकुर, जो प्रकाश से विवाह के बाद ही सुप्त हो गया था और अब उम्र के इस पड़ाव पर अचानक अंकुरित हो रहा है. मानो कहीं बसंत ने मन की मुरझाई डाल को हौले से छू लिया है और अरुणिम आभा लिए एक नन्हीं कोपल फूट रही हो. श्रीनाथजी से मिलने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे वह अंकुर बसंत के आ जाने जैसा अंकुरित हो रहा है. प्रेम की यह भावना नितांत अपरिचित, मगर कितनी सुखद है. अनछुई, कुंवारी. जैसे उनसठवें बरस का बसंत, कुंवारा बसंत. जो श्रीनाथजी की स्वस्थ मित्रता के रूप में, आत्मीय साथी के रूप में मन की डाली पर उतरा था. प्रेम का एक रूप स्वस्थ मित्रता भी तो है और मित्रता की अपनी एक सुंदर रुमानियत होती है.
मीरा मुस्कुरा दी. खिड़की से हरसिंगार और परिसर में लगी रातरानी की महक से भीगी सुहावनी हवा भीतर आ रही थी. दूर गगन में चांद झिलमिला रहा था. मीरा ने सारे रंगीन धागे समेटकर तकिए के पास रख लिए और लाइट बंद कर दी. उनसठ बरस के कुंवारे बसंत के अनछुए एहसास को मन की डाल पर जीती मीरा तकिए पर सिर रखे लेट गई. अब कल सुबह जल्दी उठकर कुछ और फूल काढ़कर श्रीनाथजी को दिखाने भी तो हैं और उनसे सराहना भी तो लेनी है एक कप गर्म चाय के साथ.

डॉ. विनीता राहुरीकर

 

 

 

 

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