कहानी- समझौता एक्सप्रेस 1 (Story Series- Samjhota Express 1)

शादी की शुरुआत में तो सब ठीक रहा, मगर बाद में नैना को यश का व्यवहार बचकाना लगने लगा. वह मां से शिकायत करती, “मां यश में गंभीरता नाम की चीज़ है ही नहीं, बहुत ही लापरवाह है. कोई चीज़ जगह पर नहीं रखता, कोई काम समय पर नहीं करता, कुछ कहो, तो फालतू की बातें बना खी-खी करके हंसकर निकल जाता है. कितना भी समझाओ, समझता ही नहीं… हम पूरी तरह मिसमैच हैं मां.”

नैना मुंबई जानेवाली बस में चढ़ी और अपनी सीट के ऊपर बैग रखने की जगह तलाशने लगी, “किसका सामान है ये?” वह चिल्लाई तो पीछे से एक पैसेंजर आया, “मेरा है.”

“आपकी सीट पीछे है, तो इसे भी पीछे ही रखिए.” नैना तल्ख हो उठी.

“पीछे जगह नहीं थी तो…” याचक स्वर, पर तिलमिलाता जवाब.

“तो मैं क्या करूं? ये मेरी सीट है. इसके ऊपर की जगह मेरी है.” नैना जैसे यश का सारा ग़ुस्सा उस अजनबी पर उतारने को तैयार बैठी थी. उस व्यक्ति ने अपना सामान हटाया, तो नैना बड़बड़ाते हुए अपना सामान रखने लगी. ‘इस दुनिया में जिसे देखो, वो मुझे ही फॉर ग्रांटेड ले रहा है… ऑफिस में, घर में, बस में… जैसे मैं ही फालतू हूं.’ सामान रख वह आंख मूंदकर बैठ गई. मस्तिष्क में बारंबार बीते कुछ दिनों के वे दृश्य घूम रहे थे, जिनसे पीछा छुड़ा वह मुंबई भाग रही थी. यश की हर बात पर लापरवाही और उसकी हर लापरवाही पर नैना का इरिटेट होना…

यश और नैना दोनों ही आईटी प्रोफेशनल थे. नैना की रजनी मौसी यश की मां की पक्की सहेली थीं. उन दोनों ने ही मिलकर यह रिश्ता तय किया था. मौसी अक्सर उससे कहा करतीं, ‘तेरे लिए तो मैंने यश पर बहुत पहले से नज़र रखी हुई थी. इतना ख़ूबसूरत, ख़ुशमिज़ाज, सीधा, सरल, कमाऊ लड़का कहां मिलता है आज? मेरे कहने से तू आंख मूंदकर शादी कर ले. देखना मुझे ज़िंदगीभर दुआएं देगी.’ यश पहली नज़र में ही उसके दिल में घर कर गया था. दोनों अलग-अलग कंपनी में नौकरी करते थे, मगर थे पुणे में, इसलिए प्रोफेशनल फ्रंट पर भी यह शादी उसके अनुकूल थी.

शादी की शुरुआत में तो सब ठीक रहा, मगर बाद में नैना को यश का व्यवहार बचकाना लगने लगा. वह मां से शिकायत करती, “मां यश में गंभीरता नाम की चीज़ है ही नहीं, बहुत ही लापरवाह है. कोई चीज़ जगह पर नहीं रखता, कोई काम समय पर नहीं करता, कुछ कहो, तो फालतू की बातें बना खी-खी करके हंसकर निकल जाता है. कितना भी समझाओ, समझता ही नहीं… हम पूरी तरह मिसमैच हैं मां.”

पर मां को बेटी की शिकायतें समझ नहीं आती थीं. वे तो इसी बात से ख़ुश थीं कि उनका दामाद दिखने में आकर्षक है, अच्छा ख़ासा कमाता है, उनकी बेटी को प्यार करता है, उसे बराबरी का हक़ और सम्मान देता है, ऑफिस से सीधा घर आता है और उसमें सिगरेट, शराब जैसा कोई ऐब नहीं… इससे ज़्यादा एक लड़की को क्या चाहिए भला? मगर नैना को यही सब पसंद नहीं था. वह बेहद अनुशासित, समय की पाबंद और प्लानिंग करके चलनेवाली लड़की थी, ज़रा-सी अव्यवस्था उसे अपसेट कर देती, वहीं यश इसके ठीक विपरीत था. नैना लाइफ को बहुत सीरियसली लेती थी और यश जटिलतम परिस्थितियों में भी ‘टेक इट ईज़ी’ मंत्र न छोड़ता. चाहे कुछ भी हो जाए, उसके चेहरे पर बुद्ध मुस्कान बनी रहती.

यश को अक्सर प्रोजेक्ट के सिलसिले में देश-विदेश ट्रैवल करना पड़ता, मगर ऐसा कोई ट्रिप नहीं होता, जहां उसका कोई-न-कोई कपड़ा होटल में छूट न गया हो… आराम से घर से निकलना और आख़िरी कॉल पर चेक-इन करना… यह था यश. यदि दोनों को कहीं साथ जाना होता, तो नैना तैयार होकर गेट पर खड़ी हो जाती, पर यश की कुछ ना कुछ लास्ट मिनट की तैयारी चल रही होती… दोनों के बीच जो बहस का सबसे बड़ा मुद्दा था, वह था यश का घर में स्लीपर न पहनकर नंगे पैर चलना… “उफ़़्फ् नंगे पैर यहां-वहां चलते हो और फिर यूं ही बिस्तर पर चढ़ जाते हो.” नैना चिढ़ जाती और रोमांटिक रात चढ़े मुंह से बीत जाती.

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तीन दिन बाद यश की यूएस की फ्लाइट थी. वह अलमारी में कुछ खोज रहा था, तो नैना ने पूछा, “क्या नहीं मिल रहा?”

“नहीं नहीं, कुछ नहीं… ऐसे ही…” बाद में पता चला यश को अपना पासपोर्ट नहीं मिल रहा था. नैना बिफर उठी, “हे भगवान, तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो?” हर बार नैना उसकी तैयारी कराती, मगर इस बार उसने कसम खा ली कि चाहे कुछ भी हो, वह उसकी कोई मदद नहीं करेगी. वह भी तो अपने सब काम ख़ुद संभालती है. इसी तरह यश को भी सीखना होगा.

उसने यश को सबक सिखाने की सोची और उसकी फ्लाइट से दो दिन पहले अचानक मुंबई अपनी मौसी के घर जाने का प्रोग्राम बना लिया, इस अकड़ में कि ‘करने दो उसे ख़ुद मैनेज. जब सिर पर पड़ेगी, तभी अक्ल आएगी.’

बस मुंबई-पूना एक्सप्रेस हाइवे के हसीन नज़ारों के बीच दौड़ रही थी. नैना का शरीर सफर कर रहा था, मगर मन वहीं अटका पड़ा था, ‘पता नहीं सब डॉक्यूमेंट संभालकर रखेगा या नहीं. लैपटॉप चार्जर, फोन चार्जर, पावर बैंक, पासपोर्ट… और न जाने कितने ज़रूरी डाक्यूमेंट्स, जिनके न होने पर उसे परेशानी का सामना करना पड़ सकता है. हे भगवान! क्या करूं मैं उसका… कैसे करेगा सब…? कहीं उसे अकेला छोड़कर ग़लती तो नहीं कर दी…’ नैना को डरावने विचार आने लगे. ‘उफ़़्फ्…’ उसने सिर झटक उस विचार को बाहर फेंका, गहरी सांस ली और फिर आंख मूंदकर बैठ गई.

मुंबई पहुंचकर नैना ने पाया कि मौसी उसके स्वागत में गेट पर ही खड़ी थीं और मिलते ही बड़े-बुज़ुर्गों का सेट डायलॉग मारा, “अरे ये क्या… ब्याह के बाद तो लड़कियां फूलकर कुप्पा हो जाती हैं,  मगर तुम तो बड़ी दुबला गई हो बिटिया… गालियां पड़वाओगी अपनी अम्मा से कि कहां ब्याह दिया बिटिया को?”

“इस बात के लिए तो मैं भी आपसे लडनेवाली हूं मौसी.” नैना के स्वर में आक्रोश देख मौसी ने चुप्पी साध ली और उसकी आंखें पढ़ने की कोशिश करने लगी.

     दीप्ति मित्तल

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