कहानी- सपने का दुख 2 (Story Series- Sapne Ka Dukh 2)

मैं काफ़ी देर तक ऐसे ही खड़ी रही. दिल हां करता और दिमाग़ मानने को तैयार न था. अजीब कशमकश थी. लग रहा था जैसे वो अब भी मेरे कानों में प्यार का इज़हार कर रहा है. रात के दो बज रहे थे. मैं अपनी क़िताब लिए कमरे में आ गई,

ज़्यादा रोने से मेरी आवाज़ नहीं निकल रही थी. तभी उसकी ख़ामोशी टूटी. जैसे मैं दिन में सपना देख रही थी. उसकी गहरी आवाज़ में मैं जाने कब तक ऐसे ही खोई रही. उसने मुझे मेरे नाम से पुकारा, “हैलो कुमुद, तुम सुन रही हो.” उसने मुझे जैसे सोते से जगा दिया था.  मैंने नाक सुड़कते हुए कहा, “हां सुन रही हूं.”

उसने कहना शुरू किया, “तुम सोच रही होगी कि मैं कौन बोल रहा हूं?” बस भर्राये गले से इतना ही बोल पाई… “हां…” उसने कहा, “मैं क्षितिज सक्सेना.”

क्षितिज को मैं जानती थी, वो हमारे कॉलेज का अच्छा स्टूडेन्ट था. हमेशा उसे कॉलेज कम्पाउन्ड में, गैलरी में लड़कों के बीच घिरे देखा था. वो हमारा सीनियर था. मैंने उस पर कभी ध्यान नहीं दिया था. वैसे मुझे हमेशा एहसास रहता जैसे मैं किसी की नज़रों में कैद हूं. वो हमेशा मेरे क्लास टाइम पर खड़ा मुझे देखता रहता. सभी उसकी बहुत इ़ज़्ज़त करते थे. भइया का वो बहुत अच्छा दोस्त था. थोड़े-से अंतराल के बाद वह फिर बोला, “कुमुद तुम…” मैंने बीच में बात काटकर कहा, “भइया घर पर नहीं हैं, वो अभी-अभी बाहर गये हैं.”

“(वो हंस पड़ा) जानता हूं. मुझे उनसे नहीं, तुमसे बात करनी है.”

हमारे बीच कभी इतनी बातचीत नहीं हुई थी. थोड़ा संकोच था मन में कि जाने क्या बात करना चाह रहा है. उसने आगे कहा, “जाने तुम क्या सोचो मेरे बारे में, मैं ये भी नहीं जानता कि तुम मेरे बारे में क्या राय रखती हो, लेकिन मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं. पता नहीं ये सही है या ग़लत… तुम सुन रही हो ना. क्या तुम भी मुझसे…”

खटाक से मैंने फ़ोन रख दिया. आगे मुझमें सुनने की हिम्मत नहीं थी. पूरा बदन थरथरा रहा था. मैं सबसे मुंह छिपाती फिर रही थी कि कहीं कोई मेरे चेहरे पर लिखे भाव न पढ़ ले. एक चोर-सा मन में घर कर गया था. पूरा दिन ऐसे ही गुज़र गया. कोई पढ़ाई नहीं हो सकी. मैं टेलीफ़ोन के पास बेमक़सद घूम रही थी. कहीं उसका फ़ोन फिर ना आ जाये, ये भी आशंका थी मन में. सभी सोने चले गये थे अपने-अपने कमरे में. मैं हाथों में क़िताब लिए उसी के बारे में सोच रही थी. तभी रात के सन्नाटे को तोड़ता हुआ फ़ोन फिर घनघना उठा- ट्रिन… ट्रिन… ट्रिन…

मैंने घबराकर फ़ोन उठा लिया. धड़कनें बेताब हो उठी थीं. सांसें टूटती-सी महसूस हो रही थीं.

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क्षितिज बेबाक़ी से बोलता जा रहा था, “तुम स़िर्फ सुनो और जब तक मैं अपनी बात पूरी ना कर लूं, तब तक तुम फ़ोन नहीं काटना. तुम तो जानती हो, जब मैं तीन साल तक तुम्हारे लिए फ़ोन कर सकता हूं तो… (वह ज़ोर से हंस पड़ा) कुमुद मैं जानता हूं कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो. तुम्हें क्या लगता है, मैं यूं ही आसानी से बोल रहा हूं. मैंने तुम्हें तीन साल देखा ही नहीं, जाना भी है. मेरी आवाज़ सुनने के लिए तुम्हारा फ़ोन पर कभी रोना, कभी प्यार से बातें करना, कभी नाराज़ होना, क्या मैं नहीं जानता कि तुम भी मेरे प्यार में पोर-पोर डूब चुकी हो.”

कैसे इतनी आसानी से वो मेरे दिल की बातें कहता जा रहा था. एक आश्‍चर्य, एक ख़ुशी, दिल के धड़कनों की ऱफ़्तार ही बदल गई थी. मैं शर्म के मारे स़िर्फ इतना ही बोल पाई, “आप झूठ बोल रहे हैं?”

तभी मां की आवाज़ आई, “कौन है कुमुद फ़ोन पर?”

“मेरी सहेली है मां.” झूठ कितनी आसानी से बोल दिया था मैंने आज मां से.

वो फ़ोन पर ही हंस पड़ा, “बहुत अच्छी सहेली.”

वो फिर बोला, “वैसे मुझे पता है, फिर भी तुम्हारे इकरार का इंतज़ार है. मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं. कहो, कब तक तरसाने का इरादा है?” लेकिन फिर परिवार की प्रतिष्ठा और समाज की बंदिशों का डर और अपनी सीमाओं के टूट जाने के डर से मैंने स़िर्फ इतना ही कहा, “नहीं, ये नहीं हो सकेगा. फिर इससे क्या फ़ायदा.”

वो मानने को तैयार ना था. उसने दुखी होकर कहा, “क्या हर कोई प्यार फ़ायदा-नुक़सान सोचकर करता है. मैं कल दो बजे फ़ोन करूंगा. मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए.”

फ़ोन बंद हो गया. मैं काफ़ी देर तक ऐसे ही खड़ी रही. दिल हां करता और दिमाग़ मानने को तैयार न था. अजीब कशमकश थी. लग रहा था जैसे वो अब भी मेरे कानों में प्यार का इज़हार कर रहा है. रात के दो बज रहे थे. मैं अपनी क़िताब लिए कमरे में आ गई, रिमी सो चुकी थी. आंखों से नींद कोसों दूर थी. अब जब कि वो मुझे मिल

गया था तो यह डर सताने लगा था कि जाने मेरा परिवार इसे स्वीकार करे या ना करे. मैं एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से थी.

जहां एक लड़की के प्यार के लिए कोई जगह नहीं थी. सोचते-सोचते जाने कब मैं गहरी नींद में डूब गई.

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मैंने सुबह उठते ही रिमी से कहा, “रिमी, आज तुमसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं.” वह कॉफ़ी का मग लेकर मेरे पास बैठ गई. मैं उधेड़बुन में थी. कहां से बात शुरू करूं, समझ में नहीं आ रहा था. वो मेरे नज़दीक आई तो मैं अपने आपको रोक नहीं सकी. रोते हुए मैं उसे सब कुछ बताती चली गई. उसने मेरी बातों में उसके लिए दीवानगी महसूस की थी. उसने ऊंच-नीच समझाकर मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा. आज उससे अपने दिल की बात कह काफ़ी सुकून महसूस कर रही थी. अगले दिन परीक्षा के लिए दिनभर पढ़ाई करती रही. पेपर काफ़ी अच्छा हुआ था. मैं अपनी सहेलियों के साथ पेपर के बारे में डिस्कशन करती आ रही थी, तभी अचानक उसे सामने खड़ा देखकर दिल बेचैन-सा हो उठा. इक प्यास-सी थी कि उसे जी भर देख लेती. एक बार उसे मुड़कर देख लूं, यही हसरत लिए मैं घर आ गई. रास्ता ख़त्म हो गया था. व़क़्त भी तेज़ी से करवट बदल रहा था. वो जब भी फ़ोन करता, हमेशा वही बात दोहराता. मैं हमेशा टाल जाती. मैंने इकरार तो नहीं किया, पर बातें होती रहीं. उसकी प्यार भरी बातों में मैं सब भूल जाती. जाने कौन-सी कशिश थी, जिसकी वजह से मैं खिंचती चली गई. मैं डरती, घबराती. लेकिन बात ज़रूर करती. समय पंख लगाकर उड़ रहा था और मैं आंखें बंद किये बैठी थी. जानती थी, जब भी आंखें खुलेंगी तो यह सपना बन कर यादों में सदा के लिए दफ़न हो जाएगा. दिल हमेशा उसके इंतज़ार में रहता.

– श्‍वेता भारद्वाज

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Usha Gupta

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