कहानी- सज़ा 3 (Story Series- Saza 3)

मेरे कारण लोग तुम पर फब्तियां कसें और तुम्हें शर्मसार होना पड़े, यह मुझे कैसे मंजूर होगा? तुम, पापा और मेरी बहनें लोगों के व्यंग्यबाण से कैसे बच सकते हैं, मुझे यही चिंता सताए जा रही है. कल्पना में मुझे दिखाई दे रहा है- लोग मुझे देखकर हंस रहे हैं, तुम्हें पूछ रहे हैं- ‘तुम्हारे घर लड़का पैदा हुआ है न. यही है वह लड़का? ऐसा होता है लड़का…? हा!हा!हा!…’ जैसे किसी समझदार बच्चे की निकर उतार दोस्त उसे कहते हैं… नंगा, शेम-शेम. मुझे भी वही व्यंग्य-ताने सुनाई दे रहे हैं… शेम..शेम..शेम… बहनों की सहेलियां मुंह छिपाकर हंस रही हैं- ‘तेरे घर भाई पैदा हुआ है. क्या सचमुच वह लड़का है?’ पापा अपने भाग्य को कोस रहे हैं… पता नहीं किन पापों की सज़ा है यह.

बहुत अच्छी तरह जानती थीं, लेकिन तुम परम्पराओं की परिपाटी से बाहर नहीं आना चाहती थीं. लड़के के बिना वंश कैसे चलेगा, यही दलील थी न तुम्हारी! अच्छा बताओ, पापा अपने दादा-परदादा का नाम या उनके बारे में कुछ बता सकते हैं? नहीं न? फिर किस वंश-परम्परा को चलाने की तुम्हें चिंता लगी रहती है? अब कोख में मेरे आ जाने से तुम चिंतामुक्त हो गयी हो कि तुम्हारा वंश चलता रहेगा. तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा आ जाएगा, तुम्हें मृत्यु के बाद सद्गति प्राप्त होगी. परलोक सुधर जाएगा. कोई तुम्हें ‘निपूती’ नहीं कहेगा. ख़ुशी से तुम बौरा रही हो. जैसे पहली बार मातृत्व सुख प्राप्त हो रहा हो, कुछ ऐसा ही तुम्हारा व्यवहार, सोच होते जा रहे हैं.

कोख में लड़की न होने के कारण इस बार गर्भावस्था में परिवर्तन तुम जबरन महसूस कर रही हो. तुम्हारा जी मिचलाना इस बार बहुत कम समय तक हुआ है. खट्टा खाने की बजाय मीठा खाने की इच्छा होती है. चेहरे पर थकान-झाइयों के स्थान पर लावण्य आ गया है. रंग निखर गया है, पेट का उभार पहले की बजाय अधिक तेज़ी से हो रहा है, चाल में परिवर्तन आ गया है (ये सारे परिवर्तन केवल तुम ही महसूस कर रही हो. कहनेवाला तो कोई नहीं है).

लेकिन अंधविश्‍वासों, परम्पराओं में जकड़ी अज्ञानी मां यह नहीं जानतीं कि विज्ञान चाहे कितनी भी तऱक़्क़ी कर ले, कभी-कभी और कहीं-कहीं वह भी ग़लत सिद्ध होता है. और मेरे बारे में तो डॉक्टर भी गच्चा खा गए. बहुत बड़ी भूल कर बैठे. तुम्हें बताया कि तुम्हारे गर्भ का शिशु लड़का है, लेकिन असलियत यह है कि मैं लड़का नहीं हूं. मेरे जन्म के बाद ख़ुशियां मनाने के बड़े-बड़े ख़्वाब तुमने देख डाले हैं, योजनाएं बना रखी हैं. मोहल्ले भर में लड्डू बंटवाए जाएंगे, बैंड बाजा बजेगा, पटाखे-अतिशबाजी चलाए जाएंगे, घर में शुद्ध घी के दीए जलाए जाएंगे. मगर तुम्हारी सारी योजनाएं धराशायी हो जाएंगी, ख़्वाब बिखर जाएंगे, जब जन्म के बाद तुम मुझे देखोगी. कभी-कभी नियति भी ऐसी अनहोनी घटनाएं प्रस्तुत कर देती है, जिसे देख मानना पड़ता है कि होनी बड़ी बलवान है. मुझे देखने के बाद तुम तो गश खाओगी ही, मोहल्ले-बिरादरी के लोगों के बीच भी हड़कंप-सा मच जाएगा. मजमा लग जाएगा तुम्हारे घर मुझे देखने के लिए और आनन-फानन में तालियां पीटते गानेवालों की जमात पहुंच जाएगी. अपनी बिरादरी के बच्चे को ले जाने की उनकी कोशिश होगी और तुम्हारी हालत सांप-छुछंदर-सी होगी.

शायद विधाता ने तीन-तीन लड़कियों की हत्या के तुम्हारे अपराध के दंडस्वरूप मुझ जैसे मानव को तुम्हारी कोख में डाल दिया. ऐसे मानव की उत्पत्ति के कारण का जवाब तो डॉक्टरों के पास भी नहीं है, लेकिन उस अदृश्य शक्ति या होनी अथवा विधाता कह लें के आगे किसी की नहीं चलती.

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औलाद चाहे लड़का हो या लड़की (या बदक़िस्मती से मेरी तरह) मां के प्रति मोह-प्यार तो उसे होता ही है. मैं भी यह सोचकर परेशान हूं कि मेरे जन्म के बाद तुम पर जो दुख-तनाव का पहाड़ टूटेगा, उससे तुम्हें कैसे निजात मिल सकती है? मेरे कारण लोग तुम पर फब्तियां कसें और तुम्हें शर्मसार होना पड़े, यह मुझे कैसे मंजूर होगा? तुम, पापा और मेरी बहनें लोगों के व्यंग्यबाण से कैसे बच सकते हैं, मुझे यही चिंता सताए जा रही है. कल्पना में मुझे दिखाई दे रहा है- लोग मुझे देखकर हंस रहे हैं, तुम्हें पूछ रहे हैं- ‘तुम्हारे घर लड़का पैदा हुआ है न. यही है वह लड़का? ऐसा होता है लड़का…? हा!हा!हा!…’ जैसे किसी समझदार बच्चे की निकर उतार दोस्त उसे कहते हैं… नंगा, शेम-शेम. मुझे भी वही व्यंग्य-ताने सुनाई दे रहे हैं… शेम..शेम..शेम… बहनों की सहेलियां मुंह छिपाकर हंस रही हैं- ‘तेरे घर भाई पैदा हुआ है. क्या सचमुच वह लड़का है?’ पापा अपने भाग्य को कोस रहे हैं… पता नहीं किन पापों की सज़ा है यह.

बस मां, अब मुझसे और नहीं देखा-सोचा जा रहा. पूरे परिवार को नारकीय जीवन की भट्टी में नहीं झोंका जा सकता. मैंने बहुत सोच-समझ कर निर्णय कर लिया है. सभी को जिल्लतभरी ज़िंदगी से उबारने का एक ही रास्ता है. मेरे जन्म को रोकना. इसे तुम तो करोगी नहीं चूंकि तुम तो लड़के की ग़लतफ़हमी में पुलकित हो रही हो, अत: यह कार्य मैं ख़ुद ही कर रहा हूं. तुम्हारी कोख में मैं आत्महत्या कर रहा हूं… अलविदा…

तुम्हारा अभागा शिशु

नरेंद्र कौर छाबड़ा

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