“इस दुनिया में सभी बिज़ी हैं, बस एक मैं ही हूं धरती पर बोझ.” बड़बड़ाते हुए वह स्वचालित-सी रसोईघर की ओर चौथी कप चाय बनाने चल दी. प्रशांत के घर से निकलने के बाद उसका यही रूटीन हो गया था. चाय पर चाय और मोबाइल पर स्क्रोलिंग.
ट्रिन… ट्रिन… ट्रिन… सुबह साढ़े नौ बजे भी बिस्तर में दुबकी अपर्णा लैंडलाइन फोन की लगातार बज रही घंटी को अनसुना कर रही थी. वह मोबाइल पर फेसबुक अपडेट देख रही थी. पता नहीं ये प्रशांत की क्या प्रॉब्लम है, मोबाइल पर कॉल क्यों नहीं करता? एक वही तो था, जो आज भी उस बाबा आदम के ज़माने के फोन पर रिंग मारता था. यह कहते हुए कि इस फोन पर तुम्हारी आवाज़ की मिठास बरक़रार रहती है, मोबाइल पर जब तुम चिल्लाकर ऊंचा बोलती हो, तो कोयल से कौआ बन जाती हो.
फोन लगातार बज रहा था. आख़िरकार वह तंग आकर उठी, “यार, कितनी बार कहा है इस पर नहीं, मोबाइल पर कॉल कर लिया करो. कितनी दूर आना पड़ता है इसे अटेंड करने.”
“हां सच में, बेडरूम से लिविंग रूम की दूरी दो किलोमीटर जो है.” प्रशांत ने हंसकर ताना मारा.
“और सुनाओ क्या कर रही थी? तुमने प्रॉमिस किया था कि आज से मॉर्निंग वॉक शुरू करोगी? नहीं गई ना, झूठी.” प्रशांत ने तक़ादा किया. अपर्णा ने हड़बड़ाकर घड़ी देखी, ‘हे भगवान, प्रशांत को ऑफिस गए डेढ़ घंटा हो गया. समय का पता ही नहीं चला. सोचा तो था कि आज से मॉर्निंग वॉक पर जाऊंगी, मगर हाथ में मोबाइल आते ही समय कहां उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता.’
“नहीं, नहीं… वो क्या हुआ कि मेड आज जल्दी आ गई, इसलिए नहीं निकल पाई. कल से पक्का प्रॉमिस.”
प्रशांत समझ गया कि फिर इसने अपनी सुबह सोशल मीडिया पर ख़राब कर दी. कल कितना समझाया था कि हर व़क्त मोबाइल स्क्रीन में आंखें न गड़ाए रहा करो. आंखों के साथ दिमाग़ की भी बैंड बज जाएगी. सोशल मीडिया की लत के साइड इफेक्ट्स वाला आर्टिकल भी फॉरवर्ड किया था. सब कुछ देखा होगा, बस वही नहीं देखा होगा. खैर, थोड़ा डांट-डपटकर प्रशांत ने फोन रख दिया.
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अपर्णा अभी अलसाई-सी सोच ही रही थी कि दिन की शुरुआत कहां से करूं? तभी मोबाइल पर नए नोटिफिकेशन दिखाई दिए. उसके हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद मोबाइल की तरफ़ बढ़ गए. पुरानी कलीग निशा ने इंस्टाग्राम पर ग्रुप फोटो पोस्ट की थी. उसके पहले ऑफिस का गैंग लोनावला ट्रेकिंग पर गया था. ‘मिसिंग यू डियर’ का मैसेज मुंह चिढ़ाता प्रकट हुआ, तो दिल पर छूरियां चल गईं. जब मैं वहां थी, तब तो किसी ने कोई प्लानिंग नहीं की और जब से यहां आई हूं, हर महीने कहीं न कहीं उड़ते फिर रहे हैं.
पुरानी सहेलियों के व्हाट्स ऐप ग्रुप पर एक फोटो बचपन की सहेली रश्मि ने भी डाली थी. अंडमान आइलैंड के बीच पर जलपरी बनी पड़ी थी. ‘यलो सनग्लासेस और बिंदी लगाकर कौन स्विमिंग करता है. ज़रा भी अक्ल नहीं है. गवार कहीं की.’ दिल में पनपी ईर्ष्या ज़बान के रास्ते फूट पड़ी.
पूरी दुनिया मौज़ उड़ा रही है, बस एक मैं ही घर में अकेली पागलों की तरह बैठी हुई हूं. सचमुच बेकार ही आ गई प्रशांत की बातों में. मुंबई में अच्छी-ख़ासी जॉब थी. बहुत कुछ नहीं था, लेकिन इतनी भी बुरी नहीं थी.
कम-से-कम दोस्तों के साथ आउटिंग पर तो जा पाती. देखो, सब कितने ख़ुश लग रहे हैं. धड़ाधड़ स्टेटस अपडेट कर रहे हैं और एक मैं… हफ़्तों हो गए स्टेटस अपडेट किए हुए. एक फोटो, एक क़िस्सा भी तो ऐसा नहीं, जो दोस्तों के साथ शेयर कर सकूं. क्या भेजूं? ‘देखो, ये है दिन में भी नाइटी पहने घर की चारदीवारी में भटकती आत्मा अपर्णा.’
अपर्णा जैसे-जैसे दोस्तों के स्टेटस देख रही थी, ख़ुश होने की बजाय दिल की जलन बढ़ती जा रही थी. लग रहा था दुनिया में सबसे मनहूस जीवन उसी का चल रहा है. इसी झुंझलाहट में दीदी को ही फोन घुमा दिया. “और सुनाओ दी, क्या हालचाल है?”
“सुन, मैं तुझे शाम को फ्री होकर फोन करती हूं.” कहकर दीदी ने तुरंत फोन काट दिया.
“इस दुनिया में सभी बिज़ी हैं, बस एक मैं ही हूं धरती पर बोझ.” बड़बड़ाते हुए वह स्वचालित-सी रसोईघर की ओर चौथी कप चाय बनाने चल दी. प्रशांत के घर से निकलने के बाद उसका यही रूटीन हो गया था. चाय पर चाय और मोबाइल पर स्क्रोलिंग.
तीन महीने पहले तक अपर्णा मुंबई में एक प्रसिद्ध पत्रिका में फीचर एडिटर के पद पर कार्यरत थी, पर अब उसका दिल उस काम में लगना बंद हो गया था. वह बेहतरीन लेखिका थी. बेहद क्रिएटिव, एक सिंपल-सी फेसबुक पोस्ट भी ऐसे लिखती कि लोग वाह-वाह कर उठते. बहुत-सी कहानियों, उपन्यासों के कीड़े उसके दिमाग़ में सालों से कुलबुला रहे थे, मगर एडिटर का डिमांडिंग रोल उसे इतना थका देता कि अपने मन का कुछ लिखने का न व़क्त मिलता, न ही उत्साह बचता. जब प्रशांत को सालभर के लिए झारखंड में एक प्रोजेक्ट पर आना था, तो वह कहने लगा,“ख़ूबसूरत जगह है. सालभर की बात है. साथ चलना चाहो तो चलो, वरना दोनों बारी-बारी एक-दूसरे के पास अपडाउन कर लेंगे. जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. आई एम विद यू.”
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अपर्णा को यह ईश्वर का दिया हुआ अवसर नज़र आया. उसने सोचा कि चलो इसी बहाने जॉब से ब्रेक मिलेगा और वहां प्रकृति की छांव में बैठकर वह सब कुछ पन्नों पर उतार देगी, जो सालों से भीतर छटपटा रहा है. एक पब्लिशर से बात भी करके आई थी कि सालभर के अंदर एक कहानी संग्रह और एक शॉर्ट नॉवेल तैयार करके देगी, मगर पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि बेहद मसरूफ़ व़क्त में जिन चीज़ों को करने के लिए हम मरे जा रहे होते हैं, व़क्त मिलने पर वही चीज़ें हमें याद भी नहीं रहतीं.
दीप्ति मित्तल
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