कहानी- सिर्फ़ एहसास है ये…2 (Story Series- Sirf Ehsaas Hai Ye… 2) 

 

धीरे-धीरे मेरे प्रश्न पकते गए और साथ में उनके उत्तर भी. मैं उनकी भेजी मार्क्स, टॉलस्टाय, वर्ड्सवर्थ और जाने किन-किन की पुस्तकें रस लेकर ख़त्म करती रही. उगते दिनकर की कच्ची गुलाबी किरणों की तरह बचपन कब गुज़रा, कब मन का आसमान कैशोर्य की सुनहरी आभा बना और कब दिल में यौवन की ज़िद्दी शोख धूप पसर गई, पता ही न चला. नदी चुनौतियों को जीत उनपर हंसती खिलाड़ी हो गई. कलियां हवा के झूलों पर झूलती मस्त सहेलियां. और दोस्त! वो कार्टून से बदलकर फिल्मों के हीरो हो गए थे. आख़िर काम तो सभी हीरो का एक ही होता है.

दिल की जो बातें मम्मी-पापा से कभी न कह पाई वो दोस्त को बताती. उनकी आत्मीयता ने मन को वो सुमन बना दिया था, जो धूप के स्पर्श से अपने आप खुल जाता है.
जल्द ही मैं उन्हें एक लंबा-चौड़ा खत लिखने लगी, मन की पर्तों में छिपी जाने कितनी ही बातों के साथ, जाने कितने अनुत्तरित प्रश्नों के साथ. उनके पत्रोत्तर भी भरे-भरे होते. अपनी उपलब्धियों और नाकामियों से, कुछ उत्तरों और कुछ जवाबी प्रश्नों से.
जब वे आते, तो उनका कैमरा स्टैंड पर खड़ा प्रकृति के नायाब नज़ारों के साथ हमारी अठखेलियां देख-सुन मुस्कुराता रहता और मैं उन चंद दिनों में अपना पूरा साल जी लेती. जब चले जाते, तो टीवी पर उनकी डाक्यूमेंन्ट्रीज़ और कार्यक्रम देखती रहती. उनके मन की बावड़ी मुझे अपने मन की दुनिया का आईना लगती और मेरा वहीं बसने का सपना मज़बूत होता जाता.
उनका हाथ हाथों में आता, तो नदी दौड़ प्रतियोगिता में शामिल प्रतिद्वंदी बन जाती. कलियाँ पेंटिंग की किताब से निकलकर आज़ाद हुई परियाँ और लताएं वो सीढ़ियाँ जो जादुई कहानी की तरह एक दिन बादलों पर बने परी महल तक जाने की सीढ़ियाँ बन जाएंगी। और दोस्त! वो कार्टून सीरियलों के हीरो, जो कुछ भी कर सकता है, कहीं भी जा सकता है, किसी की भी भाषा समझ सकता है और इन सबसे बढ़कर वो सबका रक्षक है। सबसे प्यार करता है और सबका प्यारा है.
धीरे-धीरे मेरे प्रश्न पकते गए और साथ में उनके उत्तर भी. मैं उनकी भेजी मार्क्स, टॉलस्टाय, वर्ड्सवर्थ और जाने किन-किन की पुस्तकें रस लेकर ख़त्म करती रही. उगते दिनकर की कच्ची गुलाबी किरणों की तरह बचपन कब गुज़रा, कब मन का आसमान कैशोर्य की सुनहरी आभा बना और कब दिल में यौवन की ज़िद्दी शोख धूप पसर गई, पता ही न चला. नदी चुनौतियों को जीत उनपर हंसती खिलाड़ी हो गई. कलियां हवा के झूलों पर झूलती मस्त सहेलियां. और दोस्त! वो कार्टून से बदलकर फिल्मों के हीरो हो गए थे. आख़िर काम तो सभी हीरो का एक ही होता है.
हम ही तो अपनी उम्र के हिसाब से उससे रिश्ते गढ़ लेते हैं. शायद इसीलिए जब कभी मम्मी ने टोका कि मैं दोस्त को अंकल बोला करूँ या वे मुझे बातों-बातों में बच्चे या बेटा बोल देते तो मैं तुनक उठती. एक वही तो थे जो मुझे अंतर्मन की गहराइयों तक समझते थे. जो मुझे मेरे मन के हमउम्र लगते थे। उनसे दोस्ती के अलावा और कोई संबंध बनाना मुझे गँवारा न था.
मैं स्कूल से कॉलेज में पहुँच गई थी. लड़के-लड़कियों के जोड़े देखकर उम्र की दहलीज पर खड़ी मेरी रूह में भी किसी नायक की नायिका होने का ख्वाब सुगबुगाने लगा था. चाहती मैं भी थी कोई हो, जो मुझे रूह की गहराइयों तक समझे. मेरे मन की अंध कंदराओं में उतरना चाहे, मेरी छोटी-छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने को अपना मक़सद कहे. जो मेरे जैसा हो, जो मुझे अपने मन की बावड़ी मे उतारने का आमंत्रण लेकर आया हो, पर दोस्त के मन की गहराई में उतरने के बाद मुझे हर मन बहुत उथला लगता था. दिखावे और वासना के लालच से लबरेज हमउम्रों में एक अंतर्मुखी, किताबों में खोई रहने वाली लड़की में कोई रुचि रखने की आदत न थी और ख़ुद से दोस्ती के लिए कदम बढ़ाना मेरी फ़ितरत में कब था.
पापा की सेवानिवृत्ति में डेढ़ साल बचे थे. फिर हमें जयपुर शिफ्ट होना था. जहाँ उनका अपना मकान था. बचपन से आज तक की अपनी सबसे प्रिय और एकमात्र सखि, प्रकृति से बिछड़ने की बेला नज़दीक आ रही थी और मेरी उदासी बढ़ती जा रही थी. एक दोस्त ही थे जो मेरी उदासी को समझ सकते थे. उन्होंने पापा से बात की, “वादी असली जंगल, समूचे बर्फ़ीले पहाड़ और ऐसी बहुत सी चीज़ें देखना चाहती है. एक बार यहाँ से चले जाओगे, फिर शायद संभव न हो. क्यों न इस बार मेरे साथ तुम सब भी उत्तराखंड घूमने चलो. ” एक व्यावसायिक जानकार के साथ ऐडवेंचर ट्रिप का विचार सबको भा गया और हम निकल पड़े अपने सपनीले सफ़र पर.

भावना प्रकाश

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Usha Gupta

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