कहानी- सुज़ैन 2 (Story Series- Suzanne 2)

“मैं सब कुछ अपने पति की पसंद से ही करती हूं.” सुज़ैन बोली, तो हम सब हतप्रभ हो उसका चेहरा देखने लगे, “तुमने हमें बहुत इंप्रेस कर दिया सुज़ैन. यह तो हमारी भारतीय संस्कृति है.” मैं बोली.

दो दिन में सुज़ैन हमारे साथ ख़ूब घुल-मिल गई थी. प्यार जताने व चुंबन लेने में खुलेपन की संस्कृति के आदी सुज़ैन व ऊली ने भारतीय संस्कृति को समझकर यहां कोई अभद्र हरकत नहीं की थी. सुज़ैन की उपस्थिति ने विवाह के उल्लासमय वातावरण को आनंद के साथ-साथ एक अलग तरह के कौतूहल व रोमांच से भर दिया था.

फिर तो शुरू हुआ सुज़ैन को कपड़े पहनाने और बदलने का सिलसिला. किसके कपड़े यानी ब्लाउज़, लहंगा, सूट वगैरह उस पर फिट आएंगे. सुज़ैन बार-बार ड्रेसिंग रूम में जाती और कुछ पहनकर आ जाती. फिर उसे कुछ और थमा दिया जाता और वह उसे ट्राई करती, फिर ड्रेसिंग रूम में घुस जाती व कुछ और पहनकर आ जाती. और कमरे में हंसी का फव्वारा फूट पड़ता. ख़ूबसूरत सुज़ैन जो भी पहनती उसमें सुंदर लगती. हम सबकी सम्मिलित हंसी से परेशान सुज़ैन कह उठी, “मेरा मज़ाक मत बनाओ प्लीज़.” वह अंग्रेज़ी में बोली.

“तुम्हारा मज़ाक नहीं बना रहे हैं स़ुजैन.” पारुल बोली, “बल्कि हर कोई तुम्हें अपना कुछ न कुछ देना चाहता है. तुम सबको बहुत अच्छी लग रही हो.”

“थैंक्यू-थैंक्यू.” सुज़ैन सबकी तरफ़ गर्दन घुमाकर बोली.

कई ड्रेसेस ट्राई करने के बाद सुज़ैन को किसी न किसी का कुछ न कुछ फिट आ ही गया. तभी दरवाज़े पर आहट सुनकर मैंने उधर देखा. दुल्हन का भाई सूरज यानी शिखा का बेटा व उसके दो दोस्त खड़े थे.

“अंदर क्या हो रहा है मामी?” अपनी बदतमीज़ियों के लिए रिश्तेदारों में प्रसिद्ध सूरज खींसे निपोरता हुआ बोला.

“कुछ भी हो रहा हो, पर तुम यहां क्या कर रहे हो?”

“क्यों मामी अपने ही घर में मैं क्या कर रहा हूं? हम भी अंदर आ जाते हैं.” वह बेशर्म नज़रें बीच कमरे में लहंगा-चोली पहन सबको दिखाती सुज़ैन पर डालता हुआ बोला.

“तुम लोग जाते हो यहां से या नहीं?” मैं ग़ुस्से में बोली.

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“जाते हैं मामी, जाते हैं. हम क्या कर लेंगे अंदर आकर.” कहकर वह ढीठ हंसी हंसता हुआ मुड़ गया, पर उसकी व उसके दोस्तों की नज़रें मुझे अंदर तक आहत व आशंकित कर गईं कि ये विदेशी मेहमान आदर-सम्मान के साथ अपने देश लौट जाएं. कुछ अप्रिय न हो इनके साथ.

दूसरे दिन हल्दी की रस्म पर सबको साड़ी पहनते देख सुज़ैन ने भी साड़ी पहन ली और चूड़ी-बिंदी भी लगाई. हल्दी की रस्म में भी सुज़ैन व ऊली कुर्सियों पर बैठे सब कुछ बड़े ध्यान से देख रहे थे. तभी ऊली किसी काम से उठकर अंदर चला गया. मौक़ा देखकर सूरज व उसके दोस्त सुज़ैन को घेरकर बैठ गए. उनके इरादों से अनजान सुज़ैन उन्हें देखकर मुस्कुराने लगी. वे उससे तरह-तरह की बातें कर रहे थे. मैं जानती थी कि मेरे वहां जाने से तीनों उठनेवाले नहीं हैं, इसलिए मैंने बेटे को बुलाया और उसके कान में कहा कि ऊली को बुला लाए रस्म देखने के लिए. कहां है वह?

बेटा गया और ऊली को बुला लाया. उसके आते ही सूरज ने सुज़ैन के बगलवाली सीट छोड़ दी. थोड़ी बहुत औपचारिक बातें करके तीनों उठ गए. शाम को शादी थी. तैयार होने सब ब्यूटीपार्लर जाने लगे, तो हमने सुज़ैन को भी साथ ले लिया, तभी ऊली सामने से आता दिखाई दिया.

“मेरी वाइफ को कहां लेकर जा रहे हो?”

“ब्यूटीपार्लर जा रहे हैं.” पारुल उससे अंग्रेज़ी में बोली. फिर हमसे हिंदी में बोली, “मुझे आज पता चला कि ये दोनों पति-पत्नी हैं.” सुनकर हम सब हंसने लगे. सुज़ैन भी बिना कुछ समझे हमारे साथ हंसने लगी. उसे हंसता देख हम सब और ज़ोर से हंसने लगे. पार्लर में भी सुज़ैन ने हम सबके जैसा मेकअप व जूड़ा बना लिया. तभी पारुल बोली, “अब बस करो सुज़ैन, पता नहीं ऊली को यह सब अच्छा लगेगा या नहीं.”

“मैं सब कुछ अपने पति की पसंद से ही करती हूं.” सुज़ैन बोली, तो हम सब हतप्रभ हो उसका चेहरा देखने लगे, “तुमने हमें बहुत इंप्रेस कर दिया सुज़ैन. यह तो हमारी भारतीय संस्कृति है.” मैं बोली.

दो दिन में सुज़ैन हमारे साथ ख़ूब घुल-मिल गई थी. प्यार जताने व चुंबन लेने में खुलेपन की संस्कृति के आदी सुज़ैन व ऊली ने भारतीय संस्कृति को समझकर यहां कोई अभद्र हरकत नहीं की थी. सुज़ैन की उपस्थिति ने विवाह के उल्लासमय वातावरण को आनंद के साथ-साथ एक अलग तरह के कौतूहल व रोमांच से भर दिया था.

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बारात आ गई थी. सभी ख़ुश व उल्लासित थे. पर उस उल्लासभरे वातावरण में एक काली घटना ने सुज़ैन की सारी ख़ुशियों को जैसे रौंद डाला और मैं सोचती रह गई कि ‘अतिथि देवो भव’ की हमारी गौरवशाली संस्कृति आख़िर इतनी खोखली क्यों हो गई. हमारी युवापीढ़ी स़िर्फअपने स्वार्थ व क्षणिक सुख के लिए इस महान संस्कृति की जड़ें खोदने पर क्यों तुली हुई है? कई समन्वित परंपराओं की संस्कृतिवाला हमारा देश अपनी इस महान सभ्यता से निकलकर बलात्कारियों का देश कहलाने की तरफ़ क्यों अग्रसर है? महिला सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें आख़िर जन-जन के मानसपटल पर कब आकार लेंगी?

रात को फेरे के समय सभी परिवारजन बेदी के चारों तरफ़ कुर्सियां लगाकर दूल्हा-दुल्हन को फेरे लेते देख आपस में चुहलबाज़ी करने में मस्त थे. ऊली और सुज़ैन भी बहुत ध्यान से सब कुछ देख रहे थे. थोड़ी देर में मैंने देखा कि सुज़ैन और ऊली अपनी कुर्सियों से नदारद हैं. मैंने इधर-उधर देखा, फिर सोचा शायद दोनों सोने चले गए होंगे. तभी मुझे ऊली अंदर से बाहर आता दिखाई दिया. मैं थोड़ी देर सुज़ैन के आने का इंतज़ार करती रही. अनायास ही मेरा ध्यान सूरज व उसके दोस्तों की तरफ़ गया. वे तीनों कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे.

मुझसे अब बैठा नहीं जा रहा था.

मैं बहाने से उठकर घर के अंदर चली गई. अंदर सुनसान था. सुज़ैन और ऊली का कमरा ऊपर की मंज़िल पर था. अभी मैं ऊपर जाने का सोच ही रही थी कि मुझे एक अजीब-सी कसमसाहटभरी आहट सुनाई दी, जैसे कहीं छीना-झपटी हो रही है. तभी मुझे सुज़ैन के ग़ुस्से में कुछ बोलने व बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई दी. वह अंग्रेज़ी में ग़ुस्से में कुछ बोल रही थी. लग रहा था जैसे वह ख़ुद को छुड़ाने का प्रयास कर रही है.

   सुधा जुगरान

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