कहानी- स्व का विस्तार 1 (Story Series- Swa Ka Vistar 1) 

“आपको पता है आत्महत्या कैसे की जाती है? मैं आपके पास आना चाहता हूं.” उधर से एक मुश्किल से चार-पांच साल के बच्चे की मासूम और विक्षुब्ध आवाज़ ने उनका दिमाग़ झनझना दिया. कुछ क्षण को समझ नहीं आया कि क्या करें फिर आख़िर ख़ुद को समेटा.

वीना का मन पिछले कुछ दिनों की तरह बहुत प्रसन्न था. कारण दुहरा था. एक तो भागवत के दिनों में दिन-रात अपने कान्हा के गीत गाकर मन यों भी आनंद विभोर रहता था और अबकी तो भागवत ख़त्म होते ही बच्चे आनेवाले थे. वीना का मन हुआ एक बार फिर अपना बंगला घूमकर देख आए. अबकी सालों बाद उन्होंने बंगले में रंगाई-पुताई कराई थी. ख़ूब तसल्ली से बिल्कुल मन मुताबिक. आख़िर बच्चे तीन साल बाद आ रहे थे. पूरे एक महीने के लिए, वो भी सपरिवार. मोहिनी के बच्चों को तो देखा तक नहीं है उन्होंने. वाट्सऐप आदि पर देखी उनकी तस्वीरों को आंखों में बसाकर ही तैयार कराया है उनका कमरा. किसना का गोलू भी तीन साल में कितना बदल गया है. पिछली बार आया था, तो प्ले-ग्रुप जाता था. अबकी स्कूल जाने लगा है. उससे पूछा था कि तुम्हें नए स्कूल में क्या पसंद आया, तो कितनी मासूमियत से बोला था, ‘बाल-पूल’… उसके कमरे में तो एक बॉल-पूल बनवा डाला है. मोहिनी और किसना के कमरे भी दिल से सजाए हैं. उनके सपाउस को ये नहीं लगना चाहिए कि छुट्टियां ख़राब हो गई हैं.
‘बड़ा नटखट है ये, किसन कन्हैया…’ मोबाइल फोन की रिंग टोन पर झपटकर फोन उठाया.
“मगर ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा क्या काम है, जो दोनों को एक साथ?”
“इस प्रोजेक्ट में हाथ हम दोनों ने एक साथ डाला है, मां…”
“और यहां मैं…” वीना का गला रुंध गया और आंखों में झिलमिलाते आंसू सामने रखी किसी भी चीज़ को पहचानने से इनकार करने लगे. एक पल में उम्मीदों का कांचमहल बिखर गया और रह गया सिर्फ़ एक अवसाद. मन में जमा ज़िद्दी अवसाद जब आंसुओं के खारे पानी से न धुला, तो अपने कान्हा की मूर्ति के सामने जाकर बैठ गईं.
“एकाकीपन का ये अवसाद मेरे किस दुष्कर्म का प्रतिफल है प्रभु? मेरी पूजा में कहां कमी रह गई? बचपन से आज तक मैंने तुम्हें अपना माना, तुम्हें पूजा, तुम पर विश्वास किया, पर अब लगने लगा है कि तुम वास्तव में एक निष्ठुर पत्थर के अलावा और कुछ नहीं. तुमने मुझे हर कदम पर तन्हाई दी. बचपन में मां छीन ली और जवानी में पति और अब बच्चों की ये उपेक्षा. तीन साल में तीसरी बार उम्मीद बंधाकर तोड़ देना. क्या यही प्रतिकार है मेरी सारी ज़िंदगी की तपस्या का? उन्हें अब मेरी कोई ज़रूरत नहीं रही. किसी को मेरी ज़रूरत नहीं रही. अब और नहीं प्रभु. अब और बर्दाश्त नहीं होता. एकाकीपन का ये दर्द अब और नहीं सहा जाता प्रभु. या तो मेरी ज़िंदगी को जीने की वजह दो, भरेपन का सुकून दो या अपने पास…” वीना अपने दिल की भड़ास निकाले जा रही थीं और उनके कान्हा की मूर्ति बंसी बजाते हुए मुस्कुराए जा रही थी.

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फोन की घंटी लगातार टुनटुनाए जा रही थी. वाट्सऐप के मैसेजेज़ की धुन भी अपना राग अलापे जा रही थी, पर वीना के ज़ख्मी दिल पर इन मरहमों का अब कोई असर होता न था. बच्चों के ही उनके इस तरह फोन रख देने पर चिंता जताते फोन होंगे. वाट्सऐप पर कुछ गुलदस्ते, कुछ कान पकड़कर सॉरी बोलती हुई फोटो, और चंद वादे जिन्हें उन्हें कभी पूरा नहीं करना है…
आख़िर ‘तंग न करो’ कहकर उन्हें डांटने के लिए ही फोन उठाना पड़ा.
“आपको पता है आत्महत्या कैसे की जाती है? मैं आपके पास आना चाहता हूं.” उधर से एक मुश्किल से चार-पांच साल के बच्चे की मासूम और विक्षुब्ध आवाज़ ने उनका दिमाग़ झनझना दिया. कुछ क्षण को समझ नहीं आया कि क्या करें फिर आख़िर ख़ुद को समेटा.
“क्यों बेटा, तुम्हें आत्महत्या क्यों करनी है?”…

भावना प्रकाश

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 

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Usha Gupta

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