“बिल्कुल, ज़िंदगी की किताब के वे पन्ने जो हमेशा खिलखिलाते हैं, बचपन की यादें ही तो समेटे होते हैं.” प्रशांत सहमत था.
“पापा चूंकि प्रशासनिक सेवा में थे, इसलिए उनकी पोस्टिंग गांवों कस्बों में ज़्यादा रही. कच्ची इमली, कैरी, सौंफ के बूटों की ख़ुशबू अभी तक मेरे नथुनों में बसी है. कच्चे लहसुन और सरसों के तेल में पके गोभी, गाजर, शलगम, मूली के अचार के तो हमने मर्तबान के मर्तबान उड़ाए हैं. जहां भी पापा की पोस्टिंग होती वहां नए सरकारी आवास में सामान बाद में जमता पहले हम बहनों के लिए पेड़ पर झूला बंध जाता. कंचे, स्टापू, गड्डे खेलने, रस्सी फांदने में कोई हमारा हाथ नहीं पकड़ सकता था. प्रायमरी, मिडल क्लासेस तो हमने ऐसे हंसते-खेलते ही पास कर ली थी…”
“तो फिर बेचारे चीकू पर इतना प्रेशर क्यों?” प्रशांत ने बीच में ही सवाल दाग दिया.
“मैंने भी दीदी से यही कहा था. वे भी चाहती हैं कि चीकू उन्मुक्त बचपन जीएं. उस पर पढ़ाई का प्रेशर ना हो. एक मां हर दर्द बर्दाश्त कर जाती है, पर बच्चे की ज़रा-सी तकलीफ़ से टूट जाती है, पर उनकी भी मजबूरी है. आजकल प्रतिस्पर्धा इतनी ज़्यादा है कि चीकू से यह सब नहीं करवाया गया, तो वह अपनी उम्र के अन्य बच्चों से बहुत पीछे रह जाएगा. तब उसमें जो हीनभावना आएगी उससे उसका मानसिक विकास कुंठित हो जाएगा.”
“लेकिन बच्चे से उसका बचपन छीनना कहां की समझदारी है? उड़ने दो परिंदों को अभी शोख हवा में, फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते.” प्रशांत अभी भी सहमत नहीं हो पा रहा था.
“ख़ुद तुम चीकू की व्यस्त दिनचर्या देखकर इतनी दहशत में आ गई हो कि तुम्हें इतना भयावह सपना आया.”
“मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं. किंतु दीदी की मजबूरी भी मैंने अपनी आंखों से देखी है. दोनों पति-पत्नी शादी-विवाह, मुंडन आदि पारिवारिक उत्सवों में जाना लगभग भूल ही गए हैं. दीदी बता रही थी कि गत वर्ष ननद के बेटे के मुंडन के लिए दो दिनों के लिए वे लोग आगरा गए थे. दो दिन और आने-जाने में लग गए. जाने के उत्साह और लौटने के बाद वहां की मौज-मस्ती की ख़ुमारी में चीकू की सात दिनों की पढ़ाई चौपट हो गई. परिणामस्वरूप सेकंड टेस्ट में कुछ नंबरों से पिछड़ कर वह सेकंड से फोर्थ रैंक पर आ गया था. क्लास में हर आधे नंबर पर रैंक बदल जाती है. इसके बाद पूरे साल मेहनत करवाने के बावजूद वह रैंक कवर नहीं कर पाया.”
“हूं…” प्रशांत गंभीर था.
“मैंने कहा भी कि दीदी नंबर गेम में उलझना ज़्यादा मायने नहीं रखता. बच्चे की मासूमियत ज़िंदा रहनी चाहिए. उसका बचपन यादगार होना चाहिए जैसा कि हमारा है.”
“बिल्कुल सही कहा तुमने.”
“पर बहुत-सी चीज़ों को समझने के लिए दृष्टि से ज़्यादा दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है. दीदी का तर्क भी उतना ही न्याय संगत था. कहने लगीं कल को चीकू औरों से पिछड़कर कुछ बन नहीं पाया, तो बड़े होकर हमें ही दोष देगा कि हमने उस पर ध्यान नहीं दिया. उसे समुचित टयूशन, महंगी किताबें उपलब्ध नहीं करवाई. रिश्ते-नाते निभाने के चक्कर में उसकी पढ़ाई चौपट कर दी. कहेगा, वह बहुत कुछ बन सकता था, पर हमारी लापरवाही की वजह से उसका करियर बनने से पूर्व ही बिखर गया. वैसे भी पर उपदेश कुशल बहुतेरे… जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. कल जब यही समय तुम पर आएगा, तब देखती हूं तुम क्या करती हो?”
“चुनौती जैसी बात हो गई यह तो?”
“मैं तो यह सोच कर ही कांप जाती हूं कि जो अभी पैदा ही नहीं हुआ है यानी कि हमारा बच्चा वह जब चीकू की अवस्था तक पहुंचेगा, तब तक प्रतिस्पर्धा किस मुक़ाम तक पहुंच चुकी होगी. हम उसके साथ अपना बचपन जिएंगे या वह पैदा होते ही हमारे साथ बूढ़ा जाएगा?” अचानक प्रशांत की नज़र दीवार घड़ी पर गई, तो वह चौंक उठा.
“अरे, बातों बातों में नौ बज गए. बच्चे पढ़ने आते होंगे. तैयार हो जाओ. सप्ताहभर की छुट्टियों की कसर भी निकालनी होगी.” नव्या का चेहरा लटक गया.
शैली माथुर
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