कहानी- तुम न करना… 3 (Story Series- Tum Na Karna… 3)

अस्थाई रूप से उपजे मन-मुटाव को बेटियों से साझा करने की बजाय मन में रखना बेहतर था. भाई-बहन बचपन में परस्पर ख़ूब लड़ते-झगड़ते हैं, फिर एक हो जाते हैं, क्योंकि उस समय उनके वैचारिक मतभेदों को कोई हवा नहीं देता. 

हर भाई-बहन की अपनी ख़ासियत, अच्छाइयां-बुराइयां, उनके  व्यवहार का हिस्सा होती हैं. बचपन में उसी व्यवहार के साथ वह एक-दूजे संग अनेक मतभेदों के बीच रहते हैं. पर विवाह के बाद मतभेद जब बच्चों तक पहुंचते हैं, तब वे कई गुना बढ़ जाते हैं.

सुलभा ने कई बार कभी हंसकर, तो कभी संजीदा होकर आभा के तुनकमिज़ाज बर्ताव को बढ़ा-चढ़ाकर बड़ी होती बेटियों के समक्ष रखा. अपनी मौसी की दख़लंदाज़ी और तुनकमिज़ाज व्यवहार का उनके मन में ऐसा खांचा खिंचा कि उनकी छवि तेज़तर्रार और मां सुलभा की सीधी-सादी छवि बनी.

“मम्मी, आपने एक बात नोटिस की. मौसी ने नानी की कांजीवरम साड़ी पहनी थी. प्योर में थी. अब ये साड़ी तीस हज़ार से कम नहीं होगी. आप इसी साड़ी के बारे में बता रही थीं न.”

एक बार शुभ्रा ने सुलभा से पूछा, तो वह संभलकर बोली थी, “देख शुभ्रा अच्छा है, जो अम्मा से यह साड़ी आभा ने ली. आज उसने पहनी, तो अम्मा की याद आ गई. वह शौक से साड़ी पहन रही है, तो ख़ुशी है कि इस्तेमाल हो रही है, वरना जैसे मां ने बक्से में बंद रखी, वैसे ही मैं भी बक्से में बंद रखती. न मैं पहनती, न तुम लोग.”

काश! कभी उसने बेटियों के सामने यह न कहा होता… “ये आभा भी न. बड़ी चालू है. अम्मा की सबसे महंगी और सुंदर साड़ी उनसे निकलवा ली. दूर रहती है, इसीलिए अम्मा भी अपना सारा प्यार उस पर उड़ेल देती हैं.

“आप मांगतीं, तो नानी न देतीं वो साड़ी आपको?” पंद्रह साल की शुभ्रा ने उससे पूछा था, तब ही उसे संभल जाना चाहिए थी.

अस्थाई रूप से उपजे मन-मुटाव को बेटियों से साझा करने की बजाय मन में रखना बेहतर था. भाई-बहन बचपन में परस्पर ख़ूब लड़ते-झगड़ते हैं, फिर एक हो जाते हैं, क्योंकि उस समय उनके वैचारिक मतभेदों को कोई हवा नहीं देता.

हर भाई-बहन की अपनी ख़ासियत, अच्छाइयां-बुराइयां, उनके  व्यवहार का हिस्सा होती हैं. बचपन में उसी व्यवहार के साथ वह एक-दूजे संग अनेक मतभेदों के बीच रहते हैं. पर विवाह के बाद मतभेद जब बच्चों तक पहुंचते हैं, तब वे कई गुना बढ़ जाते हैं.

भाई-बहन एक-दूसरे के प्रति व्यावहारिक बनते हैं. यही व्यावहारिकता उनके बीच के नैसर्गिक अपनत्व को ख़त्म कर देती है.

विवाह के बाद क्यों हमारा-तुम्हारा अलग-अलग परिवार होता है. उसने भी कभी नासमझी की… छोटी बहन के प्रति अंतर्विरोधों को अपनी बेटियों  से साझा करना उसकी ग़लती थी.   अपने मन में आते-जाते हर प्रकार के विचारों को  बेटियों से साझा करने की ललक का परिणाम है कि अपनी ही मौसी के प्रति उनके मन में दुर्भावना है. आभा ज़ाहिर करे न करे, पर क्या शुभ्रा-भावना की तल्ख़ी और खिंचाव महसूस नहीं करती होगी.

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ये बेटियां कहां से समझेंगी हम भाई-बहनों के प्रेम की जड़ों की गहराई. हमारी आपसी बॉन्डिंग… ये बॉन्डिंग ही है, जो आज भी अनेक गतिरोधों के बाद भी रह-रहकर एक-दूसरे के पास ले आती है और जो दिलों में दूरियां आ जाएं, तो मन को सालती है.

उसे याद आया जब भावना-शुभ्रा छोटी थीं, तब शिशिर और आभा में होड़ होती कि कौन सुलभा के घर जाएगा. आभा बच्चों के मोहवश सुलभा के पास  जब-तब खिंची आती थी. उनको दुलाराना-संभालना, खाना खिलाना… सब तो किया है आभा ने…

उसने भावना-शुभ्रा को अपनी बेटियों की तरह माना… पर वह सब तो उनके बचपन के साथ रीत गया. रह गया तो सब कुछ सयाना…

बड़ी होती शुभ्रा-भावना ने अपनी मां की रिश्तों के प्रति व्यक्त प्रतिक्रिया के अनुरूप ही अपनी समझ को विस्तार दिया और उसी के अनुसार मौसी को परखा…

आज बेटियों के लिए आभा महज़ मौसी है… ‘मां सी’ का जज़्बा सुलभाकोमल मन में कभी पनपा ही नहीं पाई, बल्कि वह आभा को लेकर जाने-अनजाने अनेक भ्रामक तथ्यों, प्रपंचों से उन्हें भ्रमित करती रही… तो बेटियों का क्या दोष…

बेटियों के लिए आभा वह है जिससे उनकी मां जाने-अनजाने आहत हुई, वो कैसे अपनी मौसी को माफ़ कर देतीं. सुलभा तो आभा के पीठ पीछे उसकी खिंचाई करने के बावजूद उससे कभी मन से दूर न हुई… जब भी आभा सामने आती है, मन में स्वाभाविक प्रेम की ऊष्मा आती है. यह बहनों के बीच स्वाभाविक है, पर बेटियां बहनों के बीच की प्रतिबद्धता से अंजान उनके सहज-स्वाभाविक प्रेमपूर्ण व्यवहार को भी दुनियादारी मानती हैं.

“क्या हुआ, आप तो सीरियस हो गईं. बहन है मेरी… ग़ुस्से में बोल गई.”

भावना की आवाज़ सुनकर सुलभा विचारों के घेरे से बाहर आ गई. कुछ देर के मौन के बाद वह भावना से बोली, “तुम ख़ुशक़िस्मत हो कि तुम्हारी बेटी है… बेटियां मां से मन से जुड़ी होती हैं. मां हर छोटी-बड़ी बात अपनी बेटी से साझा कर सकती हैं, पर याद रखना बालमन पर अपने अस्थाई रूप से उपजे रोष के बीज पड़ते हैं, तो वह आगे चलकर बबूल बन जाते हैं. बड़े तो बोल-बालकर भूल जाते हैं, पर बच्चे नहीं भूलते.”

“ओह मां, तुम भी न बहुत संवेदनशील हो…” भावना बोलकर चली गई, तो सुलभा फुसफुसाई, ‘ये जो रिश्ते हैं न ये बड़े संवेदनशील होते हैं. नेह-प्रेम की खाद-पानी न पड़े, तो सूख जाते हैं. मेरी तरह तेरी भी एक ही बहन है, जो ग़लती मैंने की ‘तुम न करना…’

    मीनू त्रिपाठी

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