कहानी- व़क्त का एक टुकड़ा 1 (Story Series- Wqat Ka Ek Tukda 1)

… पर आज मेरे रातभर जागने एवं करवटें बदलने का कारण मां-बेटे के बीच मन-मुटाव नहीं है, बल्कि बहुत निजी है. सोऊं कैसे? पलकें बंद करते ही तो सामने नंदिनी आ खड़ी होती है. कहते हैं, व़क्त बीत जाता है, पर हमेशा ऐसा होता है क्या? कभी-कभी व़क्त का एक टुकड़ा तमाम उम्र हमारे साथ ही चलता रहता है. उम्रभर विलग नहीं हो पाता वह हमसे. उससे जुड़े व्यक्ति वैसे ही ताज़ा रहते हैं हमारी स्मृति में- उम्र और समय के प्रभाव से अछूते.

सौभाग्यशाली होते हैं वे लोग, जो तकिये पर सिर रखते ही गहरी नींद की आगोश में चले जाते हैं. मैं तो घंटों जगा रहता हूं, करवटें बदलता हुआ, दिनभर की घटनाओं का लेखा-जोखा करता हुआ और इन्हीं में से कोई बात अतीत के किसी क़िस्से की उंगली पकड़ लेती है. मन ही मन इतनी बार दोहरा चुका हूं पुरानी घटनाओं को कि वे आज भी मन-मस्तिष्क में ताज़ा हैं. खुली आंखों से छत को निहार रहा हूं, मानो वहां कोई फिल्म चल रही हो, जिसे मैं पूरे मनोयोग से देख रहा हूं.

मेरी पत्नी शालिनी उन सौभाग्यशाली लोगों में से एक है, जो तकिये पर सिर रखते ही सो जाते हैं. धर्मपरायणा, स्नेहमयी, किसी से राग-द्वेष नहीं. भीतर-बाहर से एकदम खरे सोने की तरह. अपने कर्त्तव्यों के प्रति बहुत निष्ठावान है शालिनी. चाहूं भी तो कोई दोष नहीं ढूंढ़ पाऊंगा उसमें. पर क्या करूं? अपने अतीत को भुला भी तो नहीं पाया हूं आज तक. बहुत प्रयत्न किया है भूल जाने का, पर अनचाहे भी पुराना ज़ख़्म टीस मारने लगता है. धर्म और विज्ञान दोनों कहते हैं कि संसार की हर एक चीज़ नश्‍वर है- हर चीज़ का अंत है, फिर इन यादों का अंत क्यों नहीं है?

शालिनी मेरा तो पूरा ख़्याल रखती ही है, दोनों बच्चों की भी बहुत अच्छी परवरिश की है उसने. दोनों बच्चे डॉक्टर बन चुके हैं. बेटी का तो अपनी ही जाति के डॉक्टर लड़के से धूमधाम से विवाह भी हो चुका है. मां जैसी ही है बेटी शीरी भी. सरल स्वभाव और मृदु भाषिणी. वो ख़ूब ख़ुश है अपने परिवार में. माता-पिता के लिए इससे बड़ी तसल्ली और क्या हो सकती है? पर बेटा अरविंद वैसा नहीं है न! बेटा जान के मां ने बिगाड़ा हो, यह बात भी नहीं है. वह स्वतंत्र विचारों का है.

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जात-पात के विरुद्ध अनेक तर्क हैं उसके पास. इस विषय पर बहस में आप उससे जीत नहीं सकते. इतने तक तो ठीक था, पर आज तो उसने अपनी बात को अमल में लाकर दिखा दिया है. वह वैशाली से विवाह करना चाहता है- यह कहकर उसने ऐसा झटका दिया है, जिसे सुन शालिनी सकते में आ गई है. ऐसा नहीं कि हम वैशाली को जानते नहीं. जानते हैं, तभी तो धक्का लगा है. इस अपार्टमेंट में हम सब एक ही दफ़्तर के लोग रहते हैं और किसी कारण उस पूरे परिवार से मैत्री है. परंतु मैत्री होना अलग बात है और विजातीय की बेटी को घर की बहू बनाकर लाना एकदम अलग और उसी बात पर बेटा आमादा है. ‘तो इसमें हर्ज क्या है?’ यही आ रहा है न आपके अत्याधुनिक मन में? अरविंद की मां से कह देखिए ज़रा! उसके हिसाब से तो यह संबंध ही सही नहीं है. कहां हम शुद्ध ब्राह्मण और लड़की कायस्थ परिवार की. बेटे के सब कसूर माफ़ सिवाय इस एक के. और बेटा है कि इसी पर आमादा है. और उम्मीद कर रहा है कि मैं किसी तरह शालिनी को राज़ी कर लूंगा, जो मुझे नामुमकिन लग रहा है, क्योंकि शालिनी का मानना है कि सामाजिक व पारिवारिक परंपराओं की रक्षा करना परम आवश्यक है. यह उसका कर्त्तव्य भी है और हमारे परिवार में आज तक तो कभी जाति के बाहर विवाह हुआ नहीं.

अरविंद अठारह वर्ष का भी नहीं हुआ था, तभी से शालिनी उसके विवाह के सपने संजोने लगी थी. कैसी लड़की होगी, बहू व अपने लिए क्या-क्या गहने बनवाएगी से लेकर कितना बड़ा जश्‍न होगा इन सब का लेखा-जोखा वह मन ही मन सैकड़ों बार दोहरा चुकी है. और इन सबसे बढ़कर यह कि एक लंबी लिस्ट है उसके मन में अपनी बहू के गुणों को लेकर. बहुत छांटकर लानेवाली थी वह बहू.

आज अरविंद ने एक बेटे की मां होने का सबसे बड़ा हक़- ‘बहू ढूंढ़ने का हक़’ उससे छीन लिया है. मुझे शालिनी के साथ पूरी हमदर्दी है.

पर आज मेरे रातभर जागने एवं करवटें बदलने का कारण मां-बेटे के बीच मन-मुटाव नहीं है, बल्कि बहुत निजी है. सोऊं कैसे? पलकें बंद करते ही तो सामने नंदिनी आ खड़ी होती है. कहते हैं, व़क्त बीत जाता है, पर हमेशा ऐसा होता है क्या? कभी-कभी व़क्त का एक टुकड़ा तमाम उम्र हमारे साथ ही चलता रहता है. उम्रभर विलग नहीं हो पाता वह हमसे. उससे जुड़े व्यक्ति वैसे ही ताज़ा रहते हैं हमारी स्मृति में- उम्र और समय के प्रभाव से अछूते. मेरी यादों में नंदिनी आज वैसी ही है. उसकी इकहरी देहयष्टि और सलोने चेहरे पर नीला रंग ख़ूब फबता था. मेरी उम्र ढल गई, तो वो भी…! अरसा बीत गया उसे देखे. न उम्मीद है उसे देखने की, न कभी कोशिश ही की है. फिर भी एक अदृश्य तार से जुड़ा हूं आज भी. मैं क्यों नहीं हो पाया बेटे जैसा साहसी? क्यों नहीं कर पाया मां-बाबा के सम्मुख विद्रोह?

          उषा वधवा

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कहानी- व़क्त का एक टुकड़ा 1 (Story Series- Wqat Ka Ek Tukda 1) | Kahaniya
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पर आज मेरे रातभर जागने एवं करवटें बदलने का कारण मां-बेटे के बीच मन-मुटाव नहीं है, बल्कि बहुत निजी है. सोऊं कैसे? पलकें बंद करते ही तो सामने नंदिनी आ खड़ी होती है. कहते हैं, व़क्त बीत जाता है, पर हमेशा ऐसा होता है क्या? कभी-कभी व़क्त का एक टुकड़ा तमाम उम्र हमारे साथ ही चलता रहता है. उम्रभर विलग नहीं हो पाता वह हमसे. उससे जुड़े व्यक्ति वैसे ही ताज़ा रहते हैं हमारी स्मृति में- उम्र और समय के प्रभाव से अछूते.
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