एक बार हिम्मत करके मैंने बाबा के सम्मुख अपने मन की बात रखी. उन्होंने मां से कहा, “ऐसा कुछ किया, तो उस लड़की की जान की ख़ैर नहीं, कह देना उससे.”
मैंने नंदिनी से तो यह बात नहीं कही, पर उससे विवाह का सपना पूरी तरह से त्याग दिया. अपनी ख़ुशी की ख़ातिर मैं उसकी जान ख़तरे में नहीं डाल सकता था. मैं जब कभी देर सांझ नंदिनी को उसके घर छोड़ने जाता, तो कभी-कभी उसके भाई से मुलाक़ात भी हो जाती. इस तरह उनसे भी परिचय हो गया था. मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि नंदिनी का विवाह जहां तय है, वहीं होने दिया जाए, क्योंकि हमारे विवाह की कोई संभावना नहीं है.
बेटे का प्यार सच्चा है, मेरा नहीं था क्या? न! उंगली मत उठाओ मेरे प्यार की सच्चाई पर, चाहत की गहराई पर. शिद्दत से न चाहा होता, तो उसकी कमी यूं महसूस न करता आज तक? आज भी उसे यादकर अकेले में आंखें भर आती हैं. कितना अंतर आ गया है आज की पीढ़ी और हमारी पीढ़ी में.
बाबा ने दफ़्तर से हेड क्लर्क के पद से अवकाश प्राप्त किया था. दोनों बहनों का विवाह स्कूल पास करते ही कर दिया गया था- अपनी ही जाति के वर ढूंढ़कर. उन्होंने कोई ऐतराज़ भी नहीं किया था. मेरी शिक्षा बिना अवरोध चलती रही. बीएड कर लिया, एमए करने लगा और यूं मेरे लिए अध्यापन का रास्ता खुल गया, जो कि मेरा ध्येय था. यूं रुचि तो मेरी प्रारंभ से ही साहित्य पढ़ने-पढ़ाने में थी, परंतु बाबा ने विज्ञान पढ़ने पर दबाव डाला. उनका कहना था कि विज्ञान पढ़ानेवाले अध्यापकों की मांग रहती है. उनका तर्क था, सो विज्ञान पढ़ाता रहा. घर की आलमारियां साहित्यिक पुस्तकों से भरी रहीं. ख़ैर, इस बात से उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी.
मुझे स्कूल में पढ़ाते दो-ढाई वर्ष बीत चुके थे, नंदिनी उसी स्कूल में हिंदी की अध्यापिका बनकर आई. विद्यार्थियों को स़िर्फ शब्दार्थ बताकर और प्रश्न-उत्तर तैयार करवाकर नंबर दिलवाना उसका लक्ष्य नहीं था. गद्य पढ़ाती अथवा पद्य, जान डाल देती उसमें. जो बच्चे पहले हिंदी पढ़ने से कतराते थे, उन्हें भी रुचि आने लगी. स्कूली कार्यक्रमों में वह नाटकों का मंचन करवाती. अपने मधुर स्वर में गीत एवं ग़ज़ल गाकर सुनाती. स्वयं भी कविताएं लिखती थी, अतः शहर की गोष्ठियों में बुलाई जाने लगी. मुझे तो इन सबमें रुचि थी ही, मैं भी श्रोता के रूप में ऐसे कार्यक्रमों में जाने लगा.
धीरे-धीरे हमारी मैत्री बढ़ने लगी. हमारी बातों का मुख्य विषय पुस्तकें ही होतीं. एक-दूसरे से अदला-बदली कर क़िताबें पढ़ते. उसका तो विषय ही साहित्य था, सो नई पुस्तकों के बारे में मुझसे अधिक जानकारी रहती. हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी एवं कुछ अन्य भाषाओं के साहित्य का भी उसे पता होता. उसकी स्वयं की लिखी रचनाओं का मैं पहला श्रोता एवं विवेचक होता और वह मेरी राय को मान्यता देती. इस बीच मैंने बाइक ख़रीद ली थी. कवि सम्मेलनों एवं अन्य साहित्यिक गोष्ठियों से लौटते हुए मैं उसे घर भी छोड़ देता.
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धीरे-धीरे हम अपने सुख-दुख और परेशानियां एक-दूसरे से बांटने लगे. क़रीब पांच वर्ष पहले नंदिनी की मां कैंसर से लंबी लड़ाई लड़ते हुए चल बसी थीं. उसके दो वर्ष पश्चात् भाई का विवाह हुआ. उसके पापा को जाने क्या सूझी कि बेटे के विवाह के क़रीब छह माह पश्चात् उन्होंने अपनी एक सहकर्मी से कोर्ट मैरेज कर ली. विमाता ने अपनी तरफ़ ़से नंदिनी की तरफ़ दोस्ताना हाथ बढ़ाया था, पर नंदिनी ही अपने पापा को दूसरी स्त्री के संग देख असहज हो उठती. उसके मन में अपनी मां की स्मृति अभी बहुत ताज़ा थी. संवेदनशील तो वह थी ही, बीएड समाप्त होते ही वह भाई-भाभी के पास आ गई और यहीं के स्कूल में आवेदन-पत्र दे दिया. समान रुचियों के कारण हमारे बीच मैत्री हुई, जो गहरी होती चली गई. यूं समझो, एक-दूसरे की ज़रूरत ही बन गए हम. किसी दिन वह स्कूल न आ पाती, तो मेरे लिए दिन बिताना मुश्किल हो जाता. यही बात उस पर भी लागू होती थी.
यह वह समय था जब परंपराओं का निर्वाह बड़ी कड़ाई से किया जाता था. समाज की पकड़ सख़्त थी, विशेषरूप से मध्यम वर्ग पर भिन्न जाति में विवाह सरल नहीं था. हां! कहीं-कहीं अपवाद ज़रूर होते थे, पर अनेक बार उनके माध्यमिक परिणाम भी सामने आते. मैं अपने बाबा के विचारों से भली-भांति परिचित था. मां को तो किसी तरह मना भी लेता, लेकिन बाबा के हुकुम के आगे बोलना असंभव था. जिन्होंने मुझे मनभावन विषय नहीं लेने दिए थे, वे दूसरी जाति में विवाह की इजाज़त कैसे दे सकते थे? ऐसा भी नहीं कि मैंने नंदिनी को किसी तरह के धोखे में रखा हो. मैंने शुरू से ही पूरी बात उससे स्पष्ट कर दी थी. नंदिनी के पापा ने भी उसका रिश्ता अपने एक मित्र के बेटे के साथ मौखिक रूप से तो तय कर ही रखा था, घर छोड़ आने के कारण अभी तक कोई रस्म नहीं हुई थी.
एक बार हिम्मत करके मैंने बाबा के सम्मुख अपने मन की बात रखी. उन्होंने मां से कहा, “ऐसा कुछ किया, तो उस लड़की की जान की ख़ैर नहीं, कह देना उससे.”
मैंने नंदिनी से तो यह बात नहीं कही, पर उससे विवाह का सपना पूरी तरह से त्याग दिया. अपनी ख़ुशी की ख़ातिर मैं उसकी जान ख़तरे में नहीं डाल सकता था. मैं जब कभी देर सांझ नंदिनी को उसके घर छोड़ने जाता, तो कभी-कभी उसके भाई से मुलाक़ात भी हो जाती. इस तरह उनसे भी परिचय हो गया था. मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि नंदिनी का विवाह जहां तय है, वहीं होने दिया जाए, क्योंकि हमारे विवाह की कोई संभावना नहीं है. और मन ही मन निश्चय किया, उससे दूरी बनाने का.
उषा वधवा
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