कहानी- व़क्त का एक टुकड़ा 3 (Story Series- Wqat Ka Ek Tukda 3)

प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुज़ुर्गों के आदेशों के आगे मुंह सिये खड़ा रह गया था. पुरुष होने के कारण आंसू भी खुलकर नहीं बहा पाया, भीतर ही पी गया. प्यार क्या योजना बनाकर, जाति-धर्म परखकर किया जाता है? या किया जा सकता है? हमें अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ क्यों नहीं है? हम किसी का अहित करें, ज़ोर-ज़बर्दस्ती करें, तो ज़रूर रोको हमें, सज़ा दो, पर प्रीत-प्यार के बीच जाति का सवाल कहां से आ जाता है? प्यार सामाजिक वर्जनाओं को नहीं स्वीकारता, फिर क्यों वर्जनाओं के कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है? कितना नीरस होगा वह जीवन जो स़िर्फ बुद्धि के तर्को के सहारे जिया जाएगा. बुद्धि के साथ-साथ एक मन भी तो दिया है विधाता ने. उसे कोई अच्छा लगता है, तो लगता है बस!

सब कुछ जानते-समझते भी त्रासदी यह थी कि हम एक-दूसरे की तरफ़ खिंचे चले जा रहे थे. मालूम था कि वो मेरी नहीं हो सकती थी, पर दिल पर कहां किसी का बस चलता है. अपने को समझा लेते ‘स़िर्फ मित्र ही तो हैं हम. क्या इतना भी हमारा हक़ नहीं?’

इस बीच एक और बात हो गई, नंदिनी ने स्कूल में अनेक क्लासिक नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन करवाया था, जिससे शहर में हमारे स्कूल का नाम हो गया. कालीदास जयंती पर शिक्षा विभाग से कालीदास के लिखे किसी नाटक का मंचन करवाने का विशेष आग्रह आया. शहर के गणमान्य लोग देखने आनेवाले थे. प्रिंसिपल के लिए यह स्कूल की प्रतिष्ठा का सवाल था. नंदिनी को ही

ज़िम्मेदारी सौंपी गई. उसने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ को अभिनीत कराने की सोची, क्योंकि उसकी कहानी से लोग परिचित थे और संस्कृत में होने पर भी समझी जा सकती थी. यूं एक विषय के रूप में तो हम सब ने संस्कृत पढ़ रखी थी. छात्रों में से योग्य पात्रों का चयन किया गया. उच्चारण शुद्ध रखने के लिए रिहर्सल के समय संस्कृत के अध्यापक भी उपस्थित रहते थे. मंच सज्जा एवं उस समय के परिधानों का इंतज़ाम मुझे करना था. कुटिया, जंगल, नदी और राजमहल अनेक दृश्य उपस्थित करने थे. महीनाभर अभ्यास चलता रहा, शाम को देर हो जाने के कारण भाग लेनेवाले कलाकारों को घर छोड़ने का प्रबंध किया गया. नंदिनी को घर पहुंचाने का ज़िम्मा मेरा था. उस महीने में हम एक-दूसरे के और क़रीब आ गए थे. भूल गए थे दूरी बनाए रखने के अपने निश्‍चय को.

और फिर नंदिनी के विवाह की तिथि निश्‍चित हो गई. उसने अपना त्यागपत्र भी दे दिया. स़िर्फ एक महीना और बचा था उसका स्कूल आने के लिए. हम मौक़ा मिलते ही कैंटीन में जा बैठते. मन के भीतर गहरी उदासी होने पर भी एक-दूसरे की ख़ातिर सामान्य दिखने का असफल प्रयत्न करते हुए ज़्यादातर ख़ामोश ही बैठे रहते. बातें चुक गई थीं मानो या शायद बेमानी ही हो गई थीं अब.नंदिनी के पापा उसका विवाह अपने ही घर से करना चाहते थे और उसे भाई-भाभी के संग विवाह से 15 दिन पूर्व चले जाना था. अपनी सब ख़रीददारी उसने यहीं से कर ली थी. उसके जाने की पूर्व संध्या को मैं उपहार लेकर उससे मिलने गया. उसके भाई किसी आवश्यक कार्यवश घर से बाहर गए हुए थे. नंदिनी और उसकी भाभी से बातें कर मैं उठा, तो नंदिनी भी मुझे बाहर विदा करने उठी. पर मैंनेे उसे मना कर दिया और पीछे किवाड़ बंद करता हुआ जल्दी से सीढ़ियां उतर आया. मैंने शायद अपने अतीत की ओर किवाड़ बंद कर देना चाहा था यह सोचकर कि मुझे अब नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करनी है, पर नंदिनी तो मन में ही बसी हुई थी, उसकी स्मृति तो संग ही चली आई.

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प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुज़ुर्गों के आदेशों के आगे मुंह सिये खड़ा रह गया था. पुरुष होने के कारण आंसू भी खुलकर नहीं बहा पाया, भीतर ही पी गया. प्यार क्या योजना बनाकर, जाति-धर्म परखकर किया जाता है? या किया जा सकता है? हमें अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ क्यों नहीं है? हम किसी का अहित करें, ज़ोर-ज़बर्दस्ती करें, तो ज़रूर रोको हमें, सज़ा दो, पर प्रीत-प्यार के बीच जाति का सवाल कहां से आ जाता है? प्यार सामाजिक वर्जनाओं को नहीं स्वीकारता, फिर क्यों वर्जनाओं के कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है? कितना नीरस होगा वह जीवन जो स़िर्फ बुद्धि के तर्को के सहारे जिया जाएगा. बुद्धि के साथ-साथ एक मन भी तो दिया है विधाता ने. उसे कोई अच्छा लगता है, तो लगता है बस! यहां क्यों का उत्तर नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उसका निर्णय मन करता है, बुद्धि नहीं.

दोहरा जीवन जिया मैंने. एक मन के भीतर का, एक बाहर का, छटपटाता ही रहा जीवन भर. कर्त्तव्य भी सब पूरे किए. विडंबना तो देखो, दोहरा जीवन जीकर भी लगता है- अधूरी ही रह गई मेरी ज़िंदगी. जिया तो ज़रूर, पर काट दी, जी नहीं. शालिनी के प्रति अपराधबोध भी तो है. सब गुण हैं मेरी पत्नी में, मेरे प्यार पर तो उसका पहला हक़ था. पर उसकी ख़ूबियों के बावजूद नहीं दे पाया मैं उसे वह स्थान. हां! अपना घाव उससे छुपाए रखा, ताकि उसके मन को ठेस न पहुंचे. बिना किसी कसूर के वो मानसिक यंत्रणा से न गुज़रे.

मेरा बेटा मुझ जैसा दोहरा जीवन नहीं जिएगा, मैंने यह दृढ़ निश्‍चय कर लिया है. तब सवाल मेरी ख़ुशी का था और मैं अपने बाबा के आगे बेबस था. आज सवाल मेरे बेटे की ख़ुशी का है और उसकी ख़ुशी मेरी भी ज़िम्मेदारी है. मुझे साहस करना होगा, जैसे भी हो, शालिनी को समझाना होगा. कुछ ग़लत बात के लिए दबाव नहीं डाल रहा मैं शालिनी पर. शायद इसी से ही मेरे मन को कुछ शांति मिल सके.

          उषा वधवा

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प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुज़ुर्गों के आदेशों के आगे मुंह सिये खड़ा रह गया था. पुरुष होने के कारण आंसू भी खुलकर नहीं बहा पाया, भीतर ही पी गया. प्यार क्या योजना बनाकर, जाति-धर्म परखकर किया जाता है? या किया जा सकता है? हमें अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ क्यों नहीं है?
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