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कहानी- रात के हमसफ़र… (Short Story- Raat Ke Humsafar…)

विराग की बात को बीच में ही काटकर वो बोली, “अब आप से तुम तक का सफ़र तय कर ही लिया है, तो फिर लौट क्यों रहे हो?”
विराग बोला, “पता नहीं क्यों हर बार ऐसा होता है? जब-जब किसी से बहुत मिलता हूं, प्रारंभ में सुख का जो वातावरण होता है, कुछ मुलाक़ातों के बाद वह एक प्रकार की उदासी में बदल जाता है. मेरा दम घुटने लगता है और मैं स्वयं को उनसे अलग कर लेता हूं…”

शब्दों को ख़र्च करना उसे पसंद नहीं. जैसे एक नन्हीं चिड़िया दाना चुगती है, ठीक वैसे ही उसका मन क्षणों को चुगता. बिन कहे, बस सुने और संवाद समाप्त हो जाए. तभी जब लोग उसे किसी समारोह के लिए आमंत्रित करते, वो असहज हो जाता और अक्सर अनुपस्थित ही रहता. किंतु नेहा को वो मना नहीं कर पाया. इसका कारण भी था. इस धरती पर उसके 36 वर्षों में से 10-15 वर्षों को तो नेहा ने अपनी मैत्री से सौम्य अवश्य किया था. जिस देश में पुरुष और स्त्री की मित्रता, सदा संशय की तलवार के साए में रही, वहां उन दोनों का साथ एक मधुर उदाहरण है. अतः जब नेहा ने विराग को अपनी किताब की सक्सेस पार्टी में बुलाने के लिए फोन किया, तो वो मना नहीं कर पाया.
प्रवेश के साथ ही विराग का मन पार्टी से निकल जाने का हो गया. उसे वहां सब कुछ नीरस और घुटन भरा लगा. यदि नेहा उसे दरवाज़े पर ही न मिली होती, तो बहुत संभव है कि वह प्रवेश द्वार से ही लौट गया होता. नेहा उससे डिनर के बाद ही जाने का वादा लेकर अन्य अतिथियों को अटेंड करने चली गई. अब विराग के पास वहां रुकने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था, सो उसने ड्रिंक उठाई और एक सरसरी निगाह से अपने चारों तरफ़ देखा. उसे पार्टी वैसी ही लगी, जैसी अमूमन वो होती है… शोर, कृत्रिम भावनाओं का फूहड़ प्रदर्शन करती भीड़, असंख्य लोग, उनकी असंख्य प्रतिक्रियाएं और शब्दों का अतिव्यय. अब कोई सुनना ही नहीं चाहता, सभी को मात्र बोलने का आकर्षण रह गया है. यही कारण है कि अब राजनीति और धर्म जैसे गैरज़रूरी मसलों पर वर्षों पुरानी मित्रता टूटने लगी है. संवेदना का स्थान घृणा ने ले लिया है, क्योंकि सुनता तो अब कोई नहीं, बोलता भी नहीं, मात्र चीखता है. विराग का मन कसैला हो गया. उसे भय हुआ कि कहीं इस भीड़ से उठकर कोई उससे बात करने न आ जाए, सो किसी अप्रिय घटना से स्वयं की रक्षा हेतु वो अपनी ड्रिंक के साथ उस समय घर के सबसे उपेक्षित स्थान, बैकयार्ड में आ गया.
यहां एकांत लगा, निपट अकेलापन. रात के अंधियारे में धरती और आसमान का संधि-स्थल समीप ही बिखरा-बिखरा सा प्रतीत हो रहा था. आज पूर्णिमा नहीं थी, पर चांद आधा भी कहां था. विराग अनजाने में ही निशाकर के इस रूप पर कुछ द्रवित और कुछ मोहित होकर कह उठा, “आज के इस चांद का आकर्षण मोहक है. न तो वो पूरा है और न आधा, बस अधूरा है. जैसे कि कोई अतृप्त रूह… जैसे…”
“जैसे क्या?”
यह एक स्त्री का स्वर था. घर के इस भाग को निर्जन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा, क्योंकि वहां रोशनी के नाम पर एक छोटा बल्ब जल रहा था. सिगरेट तथा सामीप्य के लिए एकांत खोजने वाले लोग या तो टैरेस पर गए या घर के किसी खाली कमरे को भरते दिखे अथवा लॉन के अंधेरे का लाभ उठाने में व्यस्त थे. सो, अपने एकांत में किसी के होने की संभावना उसे चौंका गई.
“मेरी बात का बुरा लगा हो, तो क्षमा कीजिएगा. किंतु इस चांद पर आपका कुछ कहना मुझे मोहित कर गया. कई दफ़ा लोगों को दूज के चांद की तारीफ़ करते सुनती हूं, पर अर्धाधिक चांद के लिए कुछ पहली बार ही सुना है.” अब वह स्त्री चलकर विराग के समीप खड़ी हो गई.


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बल्ब की फीकी ज़रद रोशनी में विराग ने उसे देखा. उसकी स़फेद साड़ी के स़फेद सितारे पीले प्रकाश में सुनहरे हो चमक उठे. उसके रूखे-रेशमी केश हवा में उड़ रहे थे. दोनों हाथ सामने बांधकर उसने अपनी गहरी आंखों की लंबी पलकों को, विराग पर रोक दिया. विराग उसके गेहुंए मुखमंडल का मात्र आधा हिस्सा ही देख पाया. किंतु उसे आकर्षित, उस स्त्री के सौंदर्य ने नहीं, उसके स्वर की प्रांजलता और दृढ़ता ने किया.
वह तब तक असमंजस में था.
अजीब-सी दुविधा की स्थिति में बोल पड़ा, “आप भी लिखती हैं!” और फिर ऐसा कहने पर स्वयं ही झेंप भी गया. तभी वह खिलखिलाकर हंस पड़ी, “हे ज्योतिषाचार्य, जिस प्रकार बारात में आया हर पुरुष दूल्हा नहीं होता, उसी प्रकार बुक की सक्सेस पार्टी में आया हर व्यक्ति लेखक नहीं होता.”
“माफ़ करें, आपसे पूछे बिना ही मैंने पूर्वानुमान लगा लिया.”
“तो क्या पूछकर लगाते!”
“जी क्या?”
“पूर्वानुमान और क्या!” वो पुनः हंस पड़ी. विराग को अब रंचमात्र भी संदेह नहीं रहा कि यह स्त्री या तो पागल है अथवा
मायावी. निर्जन स्थान पर किसी अजनबी के साथ हंसी, क्या कोई सामान्य स्त्री ऐसा कर सकती है?
“सॉरी, कारण मिलने पर मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाती. बचपन से हंसी पर इतनी पाबंदी लगी कि ये बेलगाम हो गई. आप अपनी जगह सही हैं. किसी भी संवाद का आगाज़ परिचय से ही होना चाहिए. तो दीजिए.” बोलकर उसने विराग की बांहों को छू भर लिया.
उस अंधियारे ही में झटके से वो पीछे हट गया. बोला, “क्या! मैं कुछ समझा नहीं.”
विराग की प्रतिक्रिया पर वह पुनः हंस पड़ी. हंसती रही देर तक पागलों की तरह. फिर स्वयं ही गंभीर होकर बोली, “आपका परिचय मांग रही थी. आप तो ऐसे डर गए जैसे आपसे आपकी रूह मांग ली हो.”
हंस तो इस बार विराग भी पड़ा. यूं ही हंसने भर के लिए. बोला, “मेरा नाम विराग कश्यप है. अब लेखक नहीं हूं. कभी था. अब लेखकों के काम को जांचता और छापता हूं. एक पब्लिशिंग कंपनी में एडिटर हूं…
और आप?”
“अगर मैं कहूं कि एक चुड़ैल हूं, तो आप मान लेंगे?”
अब तक विराग को भी इस खेल में मज़ा आने लगा था. बोला, “बिल्कुल मान लूंगा. इस वीराने में मुझ जैसे बोरिंग अजनबी से बात करने का रिस्क एक चुड़ैल ही उठा सकती है, जीवित स्त्री तो बिल्कुल नहीं.”
इस बार विराग की बात पर वह हंसी नहीं, मुस्कुरा भर दी. बोली, “मैं किताबें लिखती नहीं, पर पढ़ लेती हूं, कभी-कभी, जब मनुष्यों को पढ़ने से ब्रेक मिल जाता है.”
“मैं कुछ समझा नहीं.”
“मैं सायकियट्रिस्ट हूं. नाम है, माया!”
“माया… आपका पूरा नाम…”
“इसमें क्या अधूरा लगा आपको?”
“मैं आपका सरनेम पूछ रहा था!”
“किसी गोत्र, किसी धर्म, किसी जाति, किसी शहर, किसी गांव अथवा किसी व्यक्ति के साथ मैं स्वयं को क्यों बांधूं? मेरा परिचय बस मैं हूं. प्रकृति कभी किसी जानवर अथवा पेड़-पौधे को नाम नहीं देती. नाम देने का काम तो हम मनुष्य करते हैं. प्रभुत्व का प्रथम सोपान है वर्गीकरण.”
माया की कंपन भरी आवाज़ सुनकर विराग क्षण भर को पत्थर बन गया.
क्या-कहे, क्या न कहे. उसे कुछ सूझता नहीं था. इस स्थिति से उसे माया ने ही निकाला. बोली, “सॉरी, मैं कुछ अधिक बोल गई.”
“मायाजी, हम सभी किसी-न-किसी विषय को लेकर बहुत संजीदा होते हैं. उन पर ग़लत टिप्पणी देखकर मन और ज़ुबान दोनों विद्रोह कर देती है.


“अच्छा लगा.” वो बोली.
“क्या?”
“तुमने मौन होकर वह सुना, जो मैंने कहा और समझ लिया, जो मैंने नहीं कहा…” सामने बिखरे बालों को झटके के साथ पीछे फेंकती हुई वो जिस प्रकार विराग से सटकर बैठ गई, वह सायास ही लगा. एक सहज और आत्मीय मुस्कान के साथ बोली, “तुमने बताया नहीं.”
विराग भी अपनी मुस्कान छिपा न पाया, “आपने पूछा ही नहीं.”
अभी विराग की बात समाप्त हुई थी कि माया अपना चेहरा, विराग के बिल्कुल क़रीब लाकर बोली, “अर्धाधिक चांद, जैसे क्या?”
विराग उसकी गरम-गरम सांसों का स्पंदन साफ़ अनुभव कर पा रहा था. क्षण भर को उसकी दृष्टि माया के क्रिम्ज़न होंठ पर ठहर गई. उसके होंठ सचमुच बहुत सुंदर थे. अब तक की ज़िंदगी में इतने आकर्षक होंठ शायद ही उसने किसी स्त्री का देखा हो. अपनी बात कह, वह तो पीछे हट गई, लेकिन विराग ठहर गया. उसी अचल अवस्था में बोला, “जैसे क्रिम्ज़न आकाश में खिला भूरा बनफूल!”
वह ज़ोर से हंस पड़ी. सुगंधित हवा का तेज़ झोंका-सा आया. उसके स्फटिक दांत इस समय बहुत चमक रहे थे. बोली, “मैं भी कहां एक संपादक से उलझ रही हूं, जो अपने शब्दों से लेखकों को बांध लेता है, वो मुझे कहां छोड़ेगा.”
विराग हंसा, “जी नहीं. इसका श्रेय मुझे नहीं, आपकी सम्मोहन विद्या को जाता है. कहीं तंत्र विद्या तो नहीं जानतीं आप!”
“जिस प्रकार मेरे चेहरे और अंगों को देखकर तुमने तंत्र विद्या में मेरी रुचि को पढ़ लिया, मालूम होता है, तुम सामुद्रिक शास्त्र के विद्यार्थी रहे हो. अब ज्योतिष शास्त्र में शरीर का अध्ययन कर व्यक्तित्व और भाग्य तो मात्र इसी विद्या के द्वारा बताया जा सकता है.”
विराग ने देखा, माया के होंठों पर आती हंसी बड़ी मुश्किल से रुकी है. बोला, “अध्यात्म में आपकी विशेष रुचि है?”
“दर्शन शास्त्र में रुचि है और इसी कारण अध्यात्म को भी पढ़ा, समझा और
मनन किया.”
“फिर तो अब आप ही कहें.”
“क्या?”
इस पर विराग बिना किसी झिझक, माया के कानों के पास जाकर धीरे से बोला, “अर्धाधिक चांद, जैसे क्या…” वह अभी कह ही रहा था कि माया, जो अब तक सामने देख रही थी, ने अनायास ही अपना मुंह विराग की दिशा में घुमा लिया. यदि विराग की प्रतिवर्ती क्रिया ने सजगता नहीं दिखाई होती, तो
माया के होंठ, उसके होंठों को छू लेते. विराग के पीछे हटते ही वह ठहाका लगाकर हंसी, “आप तो परेशान हो गए एडिटर साहब. जब तैरना नहीं आता, तब नदी की गहराई में नहीं उतरना चाहिए. साहिल पर खड़े होकर नदी के प्रवाह की प्रतीक्षा करो कि वो आए और तुम्हें सराबोर कर दे.”


सकुचाया हुआ-सा विराग बैठ गया था चुपचाप. वहां से उठने की सोच ही रहा था कि वो बोली, “तुम बुरा तो नहीं मान गए. विराग ऐसी ही हूं मैं. क्षणों में जीती हूं और इस क्षण का सत्य है कि तुम्हारे शब्द मुझे मेरे लगे, इसलिए तुम मुझे अच्छे लगे. अच्छे नहीं लगते, तो तुम्हारी दिशा में देखती भी नहीं.”
प्रत्युतर में विराग चुप रहा. माया ने उसकी ओर देखा, तो निगाहें टकरा पड़ी थीं. फिर बड़े अधिकार से माया ने विराग का हाथ अपने हाथ में ले लिया, जैसे उनके मध्य कोई मौन संवाद हुआ और दोनों चुपचाप चलकर बोगनवेलिया के पेड़ के पास जाकर खड़े हो गए.
सवा ग्यारह बज रहे थे अब.
माया अपनी अधमुंदी पलकों से आसमान की ओर देखती पता नहीं किस स्वप्न में खोई थी. किंतु विराग उस पूरे समय माया को देखता रहा. लगा जैसे कि वही अर्धाधिक चांद, अपना धवल चोला उतार, सांवला रूप धर के सामने खड़ा हो गया है. थोड़ी देर बाद जब माया ने अपनी आंखें विराग की दिशा में घुमाईं, तो उसे अपनी ओर देखता पाया. बोली, “पूनम और अर्द्धचंद्र के मोह में पड़े इस संसार को अर्धाधिक चांद का सौंदर्य नहीं मोह पाता. यूं भी इस संसार को सब कुछ स़फेद अथवा श्याम देखना ही तो भाता है या तो सब कंप्लीट हो अथवा हाफ कंप्लीट हो, कुछ भी इनकंप्लीट नहीं भाता. फिर हम जैसे इनकंप्लीट लोगों को कैसे पसंद कर पाएगा ये समाज…”
“मेरा हाथ छोड़ो!” खोए-खोए से स्वर में बुदबुदाते हुए विराग ने कहा, तो माया ने अपनी हथेली में बंद उसके हाथ को एक बार देखा और छोड़ दिया. उसके हाथ छोड़ते ही विराग को अपना हाथ ही पराया सा लगा. एक अजीब-सी सिहरन हुई शरीर में.
सोचा- मैं इस ़कैद में रहना चाहता हूं… ऐसे ही रखे रहो… मुझे अपनी ओर देखने दो… देखने दो ना… लेकिन बोला, “मैं यहां नहीं आना चाहता था. यहां क्या, मैं ऐसी किसी जगह पर नहीं जाना चाहता, जहां लोग नहीं मुखौटे घूमते हैें.”
“जानती हूं…”
“जानती हो! तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मुझे वर्षों से जानती हो!” विराग अनजाने में ही माया को तुम कहकर संबोधित कर गया. जब तक वो उसे सुधार पाता अथवा क्षमाप्रार्थी होता, माया ने जवाब दे दिया.
“किसी को जानने के लिए कितना वर्ष बहुत होता है? क्या होती है वह समय सीमा जिसके बाद हम कह सकते हैं कि हमने उस
मनुष्य को पूरी तरह जान लिया. यह मैं इसलिए पूछ रही हूं, क्योंकि 12 वर्ष की शादी और चार वर्ष की दोस्ती के बाद भी मुझे नहीं लगता कि मेरा पूर्व पति मुझे जान पाया या मैं उसे.” इतना बोल वो बोगनवेलिया के नीचे बिछे सूखे पत्तों और फूलों की मैली चादर पर बैठ गई.
“आप शादीशुदा हैं!”
“थी… अब नहीं… और तुम?”
“शादी मेरे लिए नहीं!”
“यानी तुम स्वयं को इस लायक समझते ही नहीं.” माया के चेहरे पर थकान-सी उभर आई थी. उसने विराग को अपने पास बैठने का इशारा किया और फिर अपना हाथ बढ़ाया, तो विराग ने थाम लिया. झटके के साथ नीचे बैठने के बाद भी विराग ने हाथों को छोड़ नहीं. बोला, “शायद आप…” विराग की बात को बीच में ही काटकर वो बोली, “अब आप से तुम तक का सफ़र तय कर ही लिया है, तो फिर लौट क्यों रहे हो?”
विराग बोला, “पता नहीं क्यों हर बार ऐसा होता है? जब-जब किसी से बहुत मिलता हूं, प्रारंभ में सुख का जो वातावरण होता है, कुछ मुलाक़ातों के बाद वह एक प्रकार की उदासी में बदल जाता है. मेरा दम घुटने लगता है और मैं स्वयं को उनसे अलग कर लेता हूं…”
विराग के दाहिने हाथ को अपनी हथेलियों के बीच थामकर माया चुपचाप सहलाने लगी. बोली, “विराग, तुमने अपने पंख बांध रखे हैं. तुम उड़ना तो चाहते हो, पर पंख खोलने से डरते हो. घायल होने का भय इतना अधिक है कि उड़ान के रोमांच से तुमने स्वयं को दूर कर लिया है.”
कुछ क्षण सहलाने के बाद माया ने हाथों की तरफ़ सिर नीचे झुकाया और विराग की उंगलियों को चूम लिया. विराग को धधकता अंगारा-सा छू गया जैसे. उसने अचकचाकर हाथ खींचा, तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी. तब मात्र एक पल के लिए माया के बिखरे केश हवा में लहराते हुए चेहरे पर उलझ आए. उन रूखे केशों की सुगंध विराग के नथुनों में भर गई. वह जान गया कि अब लंबे समय तक वह सुगंध उसके चारों ओर महकती रहेगी.
विराग कुछ कहता कि किसी की आवाज़ सुनाई पड़ी, “डिनर लग गया है.”
दोनों साथ ही निकले, पर विराग के मन में उसके साथ दिखने की समस्या आ गई. माया की पारखी निगाहों ने उसके मनोभावों को ताड़ लिया.
“तुम बहुत परेशान लग रहे हो?”
“नहीं, बस वो…”
“क्या हम कोई गुनाह कर रहे थे?”
“तुम समझती नहीं!”

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“मैं सब समझती हूं.” अपने बिखरे बालों को समेटते हुए माया ने कहा, “पार्टी में साथ-साथ दिखने से क्या हो जाएगा? यही कि तुम्हारे लिए लिखनेवाले लेखक देख लेंगे, वो लेखक भी देख लेंगे, जो तुम्हारे लिए लिखना चाहते हैं, दोस्त देख लेंगे, दुश्मन देख लेंगे… यही डर है ना तुम्हें? मैं कहती हूं, वे देखेंगे भी तो क्या होगा? भय वहां होता है, जहां स्वयं पर विश्‍वास नहीं होता या फिर वहां जहां दूसरों की दृष्टि में स्वयं को सही, सफल और श्रेष्ठ साबित करना लक्ष्य होता है. कहीं तुम…” कहते-कहते उसकी आंखें विराग की आंखों से मिलीं और वह चुप हो गई. बोली, “तुम जाओ, मैं बाद में आऊंगी.” उसने जैसे अंतिम निर्णय ले लिया था.
“नहीं… नहीं, मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा…” विराग ने तड़पकर कहा, तो वह पलटी और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. पर अधिक आगे न जा सकी, क्योंकि विराग तेजी से चलकर उसके सामने खड़ा हो गया. ऐसा विराग ने क्यों किया, इसका उत्तर स्वयं उसके पास भी नहीं था. शायद जीवन में पहली बार उसके मन ने मस्तिष्क पर विजय पाई. हॉल के प्रवेश द्वार पर अपने हाथ की रुकावट लगाने के बाद उसने माया की आंखों में झांककर पूछा, “तुम्हें तैरना आता है?”
वो इस अप्रत्याशित प्रश्‍न पर चौंककर बोली, “हां, आता तो है…”
“फिर ठीक है.”
“क्या ठीक है?”
“अगर, मैं सांवले चांद की अर्धाधिक आंखों में डूब गया, तो मुझे बचा तो लोगी?”
“नहीं!”
“डूबने दोगी?”
“हां…” वह हंसने लगी थी ज़ोर से.
“सच!”

पल्लवी पुंडीर

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