स्वयं के साथ बिताया हुआ यह एकांत मुझे बहुत प्रिय था, परंतु उस रात मैं अकेली कहां थी. वह भी तो था. हां, यह बात मुझे ज्ञात तब हुई, जब उसने मुझे पीछे से आवाज़ दी थी.
“आरोहीजी सुनिए…”
मैं ठिठक गई. एक आर्द्र पुरुष कंठ की आवाज़ ने मेरे कदमों पर विराम लगा दिया था.
स्वर की दिशा में मैं मुड़ गई थी. जानती हूं आप सभी को मेरा यह निर्णय मूर्खतापूर्ण लग रहा होगा, परंतु उस समय मुझे वही सही लगा था.
वेदना में एक शक्ति होती है, जो दृष्टि देती है अगोचर के सदृश्य पहुंच जाने की. आप इसे मेरी शेखी समझ सकते हैं, किंतु घनीभूत वेदना के इन पलों में ही मुझे उस रात के पीछे की कई रातों को शब्दबद्ध कर पाने का साहस आया था.
संभव है आप जानना चाहेंगे कि वह रात कैसी थी? किंतु कुछ निजी बातों का वर्णन नहीं होता और न उन बातों का इस बात से कोई प्रयोजन है. आपके लिए उसका यही महत्व हो सकता है कि वह रात मुझे उपलब्ध कैसे हुई? ऐसा क्या हुआ था मेरे पूर्वकालिक जीवन में, जो उस रात अपहरणकर्ताओं की तरह आकर पुलिस मुझे बंदी बनाकर ले गई थी.
मेरी स्थिति मानो भावानुभावों के घेरे से बाहर निकलकर अन्य व्यक्तियों और समाज के लिए समस्या के रूप में बाहर आई थी, परंतु मैं असाधारण रूप से स्थितप्रज्ञ थी. पौ फटने तक बहुत-से सूत्र समाज के हाथ आए थे, जो मेरे असामाजिक और चरित्रहीन होने को प्रमाणित करते थे.
अक्सर समाज ऐसी महिलाओं को अपनाने से इंकार कर देता है, जो अपनी इज़्ज़त की रक्षा नहीं कर पातीं अथवा शादी से पहले किसी के साथ संबंध बनाती हैं. मैं सोचती हूं, तो लगता है कि बंदिशों का जाल स्त्री के लिए ही कुछ इस तरह बुना गया है कि बंदिशें ख़ुद की मर्ज़ी से तोड़े अथवा किसी और के अत्याचार से, बदनाम स्त्री ही होती है.
मैं अब उस दिन का प्रत्यावलोकन करती हूं, तो पाती हूं कि उस दिन की सहर भी सामान्य ही थी. मेरे पति श्री अरविंद सिंह अपने कार्यालय जाने की तैयारी में व्यस्त थे. मैं, जैसा कि हर कामकाजी स्त्री करती है, कार्यालय जाने से पहले घर के सारे काम समाप्त करने में लगी थी.
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यह समाज और उसका परिवार स्त्री के ऊपर पंच बने बैठे रहते हैं. उसे जैसे भूल करने का अधिकार ही प्राप्त नहीं है. एक पुरुष अपने कार्यालय का काम करने में ही थक जाता है, वहीं स्त्री घर और बाहर के मध्य सामंजस्य स्थापित करते हुए भी आलोचनाओं का शिकार होती रहती है.
सेवानिवृति के बाद सास-ससुर हमारे साथ हैदराबाद रहने आ गए थे. मैं हैदराबाद के एक प्रख्यात स्कूल में शास्त्रीय संगीत पढ़ाती थी. एक अध्यापिका के रूप में भले ही मुझे प्रशंसा मिले अथवा एक गायिका के रूप में प्रशस्तिपत्र प्राप्त हो, लेकिन एक गृहिणी के रूप में मैं पराजित थी. ऐसा मेरी सास और पति का मत था. वैसे भी शादी के आठ साल के बाद भी मेरा मां न बन पाना मेरी विफलताओं में से एक था. समाज हर अवस्था में स्त्री को ही कठघरे में खड़ा करता है, पुरुष तो सदा से ही स्वतंत्र है. वैसे भी जो स्त्री मां न बन पाए, समाज के लिए उसकी अन्य सभी उपलब्धियां कोई मायने नहीं रखतीं थीं.
नाट्य अकादमी में उस शाम मेरी प्रस्तुति थी. संगीत प्रेमियों के बीच कुछ मेरे भी मित्र उपस्थित थे. मेरे माता-पिता सुदूर ग्वालियर से आ नहीं सकते थे और मेरे ससुरालवालों के पास समय बर्बाद करने हेतु समय नहीं था, परंतु मैं मुदित थी आनेवाले समय से अनभिज्ञ.
प्रस्तुति के पश्चात् घर लौटने की कोई शीघ्रता तो नहीं थी, किंतु लौटना तो था ही. मैं घर से कुछ ही दूरी पर टैक्सी से उतर गई थी. मुझे यहां से घर तक पैदल जाना पसंद था. स्वयं के साथ बिताया हुआ यह एकांत मुझे बहुत प्रिय था, परंतु उस रात मैं अकेली कहां थी. वह भी तो था. हां, यह बात मुझे ज्ञात तब हुई, जब उसने मुझे पीछे से आवाज़ दी थी.
“आरोहीजी सुनिए…”
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मैं ठिठक गई. एक आर्द्र पुरुष कंठ की आवाज़ ने मेरे कदमों पर विराम लगा दिया था.
स्वर की दिशा में मैं मुड़ गई थी. जानती हूं आप सभी को मेरा यह निर्णय मूर्खतापूर्ण लग रहा होगा, परंतु उस समय मुझे वही सही लगा था.
सामने वह खड़ा था. मध्यम कदकाठी, गेहुंआ रंग और चेहरे पर बिखरे बेतरतीब बाल. उस चेहरे की जिस बात ने मुझे सम्मोहित कर लिया था, वह थी उसकी
बाल सुलभ मुस्कान और छोटी किंतु गहरी आंखें. उसका चेहरा परिचित अवश्य था, किंतु हमारी कोई घनिष्ठता नहीं थी. नाट्य कला में कई बार संलिप्त मुलाक़ातें हुई थीं. वह सितार वादक था. आयु में मुझसे सात-आठ वर्ष छोटा भी था. अत: हमारा मित्र वर्ग भी भिन्न था. हां, कई मौक़ों पर हमने एक साथ प्रस्तुति अवश्य दी थी. इतनी कम उम्र में संगीत को लेकर उसकी संजीदगी की मैंने एक-दो बार प्रशंसा भी की थी. हमारा परिचय मात्र इतना ही था.
कहना नहीं होगा कि कमरे की सज्जा मुझे पसंद आई थी. मेरे अंदरूनी उत्साह को मैंने तनिक भी छिपाया नहीं था.
“शशि, तुम्हारा यह कमरा, मकान तो नहीं लगता.”
“फिर?” उसने मुस्कुराते हुए पूछा था.
“घर लगता है, यहां की नीरवता में सुंदरता है.”
शशि की दोनों आंखों में चमक थी. मेरे लिए इस चमक का अर्थ अंजाना नहीं था.
संभवत: पहले तो मुझे उसका नाम याद ही नहीं आया था. फ़िर उसने ही याद दिलाया था.
“मैं शशि!” उसकी वाणी में उत्साह का पुट था, जिसे मैंने नज़रअंदाज़ कर दिया था. यहां पर यह कहना कोई अतिश्योक्तिनहीं होगी कि अप्रत्याशित रूप से मैं भी आवेश में आ गई थी, किंतु मैंने अपने उत्साह को संजीदगी का नक़ाब पहना दिया था.
“क्या बात है, आप यहां?”
“मैं सामनेवाली इमारत में रहता हूं.”
“हम्म्…” इतना भर कह मैं जाने के लिए मुड़ी ही थी कि उसकी आवाज़ ने पुनः मेरे कदमों को रोक लिया था.
“संभवतः आप हाईटेक सिटी के पास रहती हैं?” मेरी उदासीनता ने उसके उत्साह को लेशमात्र भी कम नहीं किया था.
“जान पड़ता है आपको मेरे बारे में काफ़ी जानकारी है?”
“जी, आपको प्रतिदिन आता-जाता देखता हूं.” इस बार उसकी वाणी तनिक झिझकी थी.
“क्या आप मेरा पीछा करते रहते हैं?” अपनी वाणी को सख़्त कर मैंने पूछा था.
कुछ समय के लिए उसके चेहरे का रंग अवश्य उड़ गया था, परंतु शीघ्र ही अपनी वाणी को संतुलित कर पुनः बोला था.
“पीछा तो नहीं, परंतु आपका अनुसरण अवश्य करता हूं. आपके स्वर और विशेषत: आपकी लिखी हुई रचनाओं का अनुगामी हूं.”
उसकी वाणी की मधुरता में लेशमात्र भी बनावट नहीं थी. उसकी साफ़गोई ने मुझे भी सहज कर दिया था.
“धन्यवाद! मेरी रचनाएं पढ़ी हैं तुमने?” मैं स्वयं अचंभित थी कि कितनी जल्दी मैंने आप से तुम तक का सफ़र तय कर लिया था. इस बात का अनुभव उसे भी हो गया था.
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“पढ़ा, कई-कई दफ़ा पढ़ा. यहां आपसे माफ़ी चाहूंगा कि आपसे बिना अनुमति लिए उनमें से कइयों को सुरबद्ध करने की धृष्टता भी की है.”
“क्या सच में! कभी समय हो, तो सुनना चाहूंगी.”
अस्पष्ट अंधेरे में खड़े लैंप पोस्ट की मंद रोशनी में भी उसने मेरे नेत्रों की तरलता में मिश्रित उत्साह को देख लिया था.
“कभी क्यों? आज ही क्यों नहीं? वैसे भी आप कुछ समय पश्चात् ही जा पाएंगी.”
“ऐसा क्यों?” मेरा संदेह मिश्रित स्वर सुन वह पुनः सकुचा गया था.
“आगे भीड़ ने मार्ग बंद किया हुआ है.”
“क्यों? कोई दुर्घटना हुई है क्या?”
वह कुछ कहता कि सामने से पुलिस की गाड़ी और एंबुलेंस आती दिखाई दी थीं. दोनों गाड़ियों के निकल जाने के बाद वह मेरे निकट आ गया था.
“कुछ लोगों ने सरेआम एक लड़के और उसकी पत्नी को गोली मार दी है.”
“हे भगवान! क्यों भला?”
“ठीक-ठीक कारण तो ज्ञात नहीं, परंतु कुछ लोग बता रहे थे कि दोनों ने घरवालों के विरुद्ध अंतर्जातीय विवाह किया था.”
“यह उन्माद और कितने निर्दोष प्राणों की बलि लेगा?” मेरे स्वर की निराशा को उसने भांप लिया था.
“हम तो मात्र उम्मीद कर सकते हैं.”
चंद सेकंड तक एक मौन हमारे मध्य पसरा रहा. फिर उसने ही मौन-भंग किया था.
“शीघ्र घर पहुंचने की आपकी व्यग्रता को मैं समझ सकता हूं. घर पर सब आपके लिए परेशान भी होंगे, किंतु मेरे विचार में इन हालात में अभी आपका जाना ठीक नहीं होगा.”
घर! उस फ्लैट को, जहां मेरे पति और सास-ससुर रहते थे. उसे और चाहे कुछ भी कहो, लेकिन मेरा घर तो नहीं कह सकते थे. मुझे इस बात का आभास था कि परेशान वे मेरे लिए नहीं, बल्कि रात्रि भोजन में हो रहे विलंब हेतु हो रहे होंगे. उस स्थान से चंद कदमों का ही तो फ़ासला था, परंतु मेरे कदम शशि के घर की तरफ़ मुड़ गए थे.
काफ़ी बड़ा और हवादार कमरा था. पश्चिम की तरफ़ एक छोटी-सी बालकनी थी. कमरे की सजावट गृहस्वामी के संगीत के प्रति प्रेम को प्रदर्शित कर रही थी. एक कोने में सितार था, तो दूसरे कोने में गिटार भी रखा था, जो उसके पाश्चात्य संगीत के प्रति रुझान को भी साबित कर रहा था. सामने की दीवार के बीचोंबीच एक स्त्री की आदमकद पेंटिंग लगी हुई थी, जो कुछ गा रही थी. चित्र में एक छोटी-सी खिड़की के बाहर उदय होता हुआ सूर्य भी दिख रहा था, जो यह प्रदर्शित करता था कि वह स्त्री प्रभाती गा रही थी. प्रभाती यानी सुबह के समय गाया जानेवाला राग.
कहना नहीं होगा कि कमरे की सज्जा मुझे पसंद आई थी. मेरे अंदरूनी उत्साह को मैंने तनिक भी छिपाया नहीं था.
“शशि, तुम्हारा यह कमरा, मकान तो नहीं लगता.”
“फिर?” उसने मुस्कुराते हुए पूछा था.
“घर लगता है, यहां की नीरवता में सुंदरता है.”
शशि की दोनों आंखों में चमक थी. मेरे लिए इस चमक का अर्थ अंजाना नहीं था. मैंने इसके पहले भी यह चमक देखी थी. कई वर्षों पहले अपनी आंखों में. उन आंखों की चमक का सामना कर पाने में मैं असमर्थ हो गई थी, इसलिए बातों का रुख दूसरी तरफ़ करने की चेष्टा की थी.
“चलो चाय पिलाओ और गाना सुनाओ.”
“आपकी आज्ञा को ठुकरा नहीं सकता, परंतु यदि आप साथ दें, तो आनंद आ जाएगा.”
“तुम शुरू तो करो…”
शशि ने इंडक्शन कुकर पर केतली चढ़ाई और भरी आवाज़ में गाना शुरू किया-
तेरी यादों की ख़ुशबू से भीगा मेरा तकिया
आज भी तेरी सांसों की राह तकता है
तू जो सपने टांग आई थी मेरे कमरे की खूंटी पर
आज भी हर आहट पर हिलता है.
वो तू ही थी या कोई और थी
आज भी क्या वह तुझमें ज़िंदा है… आ… आ…
मैं मंत्रमुग्ध होकर अपनी रचना को उसके मुख से सुन रही थी. स्वयं के लिखे शब्द जैसे अपरिचित बन उससे मित्रता निभा रहे थे. उसके सुरों ने जैसे मेरे शब्दों को रूह प्रदान कर दी थी. मुझे यूं निहारता देखकर वह रुक गया था.
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“क्या बात है, संगीत अच्छा नहीं लगा क्या?”
“तुमने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया. ऐसा लग रहा था, जैसे- मेरी देह को रूह मिल गई हो.”
बड़ी नम्रता से उसने गर्दन झुका ली थी और फिर चाय का कप मेरी तरफ़ बढ़ाता हुआ बोला था.
“जब लोग आपकी इस रचना को पढ़ेंगे, तो प्रथम दृष्टि में उन्हें यह विरह में डूबी हुई रोमानी कविता प्रतीत होगी, परंतु वास्तविकता भिन्न है.”
उसकी आवाज़ में पता नहीं ऐसा क्या था कि मैं मुग्ध होकर उसे अपलक देखती रह गई थी.
“बोलो शशि, अब मौन मत रहो.” मैंने उसका नाम लिया और वह मुझे एकटक देखता रह गया था.
“आरोही, यह एक रोमानी कविता है, जो स्वयं से स्वयं को प्रेम करने को कह रही है.”
यह अलौकिक प्रेम था. मेरी इस कविता को न कोई समझ पाया था और न कभी मैंने समझाने का प्रयत्न ही किया था. यथार्थ में प्रियतम भी मैं थी और प्रेयसी भी मैं. प्रियतम मेरा अतीत था और प्रेयसी मेरा वर्तमान. अतीत मुझे मेरे वास्तविक रूप, मेरे सपनों और मेरी भावनाओं से पुनः समागम कराना चाहता है और मेरा वर्तमान उन्हें मस्तिष्क के किसी अंधे कोने में बंद कर चुका था.
आप कभी दर्पण के सम्मुख मैं के साथ खड़े हुए हैं. कभी मैं को निहारा है. कभी अपनी आंखों से मैं को देखा है. कभी मैं के साथ समय व्यतीत किया है. मेरे साथ उस पल यही सब हो रहा था.
मैं उस क्षण को खोना नहीं चाहती थी, हाथ बढ़ाकर थाम लेना चाहती थी. मैंने वही किया भी था.
उसके होठों से अपना नाम सुनना कानों को मधुरता प्रदान कर रहा था. कब चाय का कप नीचे गिरकर बिखर गया, मुझे पता ही नहीं चला. मैं तो स्वयं को समेटने में व्यस्त थी. आगे बढ़कर मैंने उसके गर्म कपोलों को अपनी ठंडी हथेलियों में भर लिया था.
वह मेरा प्रथम पुरुष स्पर्श अथवा प्रथम परपुरुष स्पर्श नहीं था. इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मेरे अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों से भी संबंध थे, किंतु पुरुष सहकर्मियों के साथ कभी-कभी तो हाथ मिलाने अथवा किसी भी वस्तु के आदान-प्रदान के दौरान आंशिक रूप से स्पर्श तो हो ही जाता था, परंतु आज के इस स्पर्श ने जैसे मुझे वास्तव में छू लिया था. कभी खिलते हुए फूल की पंखुड़ियों को देखा है. जब वे खिल रहे होते हैं, तो अपनी सभी पंखुड़ियों को फैला देते हैं, जैसे सूर्य की किरणों को अपने अंदर समेट लेना चाहते हों.
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मैं भी वही चाहती थी. उसके सीने से लगकर आंखें बंद किए हुए मैंने उसकी गर्माहट का आनंद लिया था. जब उसकी उंगलियां मेरे केशों का स्पर्श करतीं, तो मैं सिहर उठती थी. कमरे में और कोई नहीं. स़िर्फ हम दोनों थे. उसने मुझे और सघनता के साथ जकड़ रखा था. मेरी काया की अभियाचना को मैं आज स्पष्ट सुन पा रही थी. अभी बहुत कुछ कहना शेष था, परंतु इसी बीच वे आ गए थे.
‘ठक-ठक-ठक-ठक…’
दरवाज़े पर हुई तेज़ दस्तक ने हमें पुनः यथार्थ में ला पटका था. द्वार पर पुलिस की एक छोटी टीम खड़ी थी. उन्होंने न कुछ पूछा और न हम कुछ कह पाए. अकारण लगभग घसीटते हुए नीचे गाड़ी में बैठा दिया गया था.
थाने जाने पर ज्ञात हुआ कि शशि के पड़ोसी के बुलाने पर पुलिस आई थी. उनकी धारणा थी कि शशि ने घर में वारांगना बुलाई थी. उस रात मैं दो बातें समझ गई थी.
एक- मिथ्या आरोप लगाकर समाज के सामने किसी को चरित्रहीन सिद्ध करना प्रतिकार पाने का सुगम और द्रुतगामी मार्ग था, दो- मैं इतने सालों से स्वयं को छल रही थी. मैं वह थी ही नहीं, जिसकी भूमिका मैं इतने वर्षों से निभा रही थी. समय हो गया था वास्तविक भूमिका को अंगीकार करने का.
उस रात के बाद मेरी पुलिस के उच्च अधिकारियों से बातचीत हुई.
येन-केन-प्रकारेण मैं और शशि वहां से बाहर आए, किंतु पौ फटने तक सारा चित्र बदल गया था. अर्थ के बहुत सारे सूत्र मेरे हाथ में थे, लेकिन देह जैसे झर गई थी. अतएव मैं अपनी सहेली के घर चली गई थी. पिता के घर नहीं गई थी. कारण आपको स्पष्ट होगा. वहां भी मेरा स्वागत लांछनों से ही होना तय था. इस समय मैं एकांत और शांति चाहती थी.
थककर, किंतु शांति पाकर मैं सो गई थी और संभवतः दो-तीन दिन तक कुछ और नहीं किया था. जब मैं उठी, मैं जाग चुकी थी. मैंने संभवतः इतने वर्षों में पहली बार स्वयं को दर्पण में निहारा था. अपने जीवन के 33 वर्षों का लेखा-जोखा निकला और निर्णय ले लिया था.
कहना न होगा कि मेरे तलाक़ का मार्ग सरल और सहज नहीं था. अवहेलना, लांछन, बहिष्कार, तिरस्कार और अपमान की आंधियों का सामना करना पड़ा था. शशि मेरे साथ था. हर परीक्षा और उपेक्षा हमने साथ ही झेली थी.
मेरा संघर्ष चलता रहा और मेरे अंधकार के पट पर बिजली की तरह थिरकती हुई एक रेखा- शशि. मेरी अनेक चिंताओं और पीड़ा में पीड़ित शशि, अपनी पीड़ा से अंजान शशि, अपने भविष्य को मेरे वर्तमान पर बलि चढ़ाता हुआ शशि. उसने जैसे मेरे भीतर की शून्यता को विधाता से अपने लिए मांग लिया था.
उसके स्वप्नों से आलिंगनबद्ध मैं, शायद उसकी वास्तविकता को कभी समझ ही नहीं पाती, यदि एक दिन शशि की मां मुझसे मिलने न आतीं तो. आज सोचती हूं, तो लगता है उन्होंने मुझे कुछ भी ग़लत नहीं कहा था. उनके अपशब्दों में भी उनका अपने पुत्र के प्रति प्रेम ही तो था. यदि वे जानकारी नहीं देतीं, तो मैं कहां जान पाती कि शशि को पेरिस से इतना अच्छा ऑफर आया था. यदि वे नहीं बतातीं, तो मैं कहां जान पाती कि मैं ही वह कारण थी, जो शशि को अपने परिवार के प्रति विद्रोही और अपने स्वप्नों के प्रति लापरवाह बना रही थी.
शशि स्वयं को धीरे-धीरे खो रहा था और मुझसे अधिक स्वयं को खोने की पीड़ा का अनुभव किसे था.
मैंने स्वयं को शशि से दूर कर लिया था. आरंभ में उसने मुझसे संपर्क करने का प्रयास किया था, किंतु मेरे प्रमाद ने शीघ्र ही हमारे मध्य एक अबोला कीदीवार बना दी थी. वह चला गया था. जाने से पूर्व न वह मुझसे मिलने आया और न ही मैंने उसे फोन किया. कुछ ही महीनों बाद मैंने भी तेलंगाना के एक छोटे-से शहर में स्थानांतरण ले लिया और यहीं बस गई. कभी-कभी प्रेम की पूर्णता उसके अधूरेपन में ही होती है.
प्रेम! मैं शशि से प्रेम करती थी और आज भी करती हूं, तभी तो उसे जाने दिया. जहां बंधन आ जाता है, प्रेम वहीं समाप्त हो जाता है. साहित्य में, यात्रा में, कला में, जीवन में- सब जगह वही मनमोहक प्रवाह और आरंभ है प्रेम. प्रेम पक्षी के समान उड़ान भरने की स्वतंत्रता देता है, देवता बनाकर उसे इमारत में कैद नहीं करता.
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पिछले पांच वर्षों में मैं उससे मिली नहीं थी और न ही कभी उसका फोन आया था. हालांकि मैं उसकी कुशलता की सूचना अवश्य लेती रहती थी. वह पेरिस में कब तक रहा, फ्रांस के किस शहर को उसने अपना निवास स्थान बनाया, कब-कब वह भारत आया और यहां तक कि कनाडा से लेकर श्रीलंका तक के उसके हर प्रदर्शन की मुझे जानकारी थी, किंतु मैं चतुरा सूचनाओं का स्रोत भांप न सकी थी. जहां मैंने विरह में प्रेम को पूर्ण मान लिया था, वहीं उसने अपने स्वप्नों के साथ मेरे स्वप्नों को जोड़कर प्रेम की संपूूर्णता को अंगीकार कर लिया था.
मैं अब तक यह सोच रही थी कि शशि पर से मेरी यादों का विषम ज्वर उतर गया होगा, किंतु मैं ग़लत सोच बैठी थी. अत: कल जब ईमेल के इस दौर में मेरे घर डाकिया पत्र लेकर आया था, मैं चिहुंक गई थी. सुंदर व गोल लिखावट के साथ ही परिचित मंजुल सुगंध मेरे गले में बांहें डालकर झूल गई थी. पत्र में कोई संबोधन नहीं था और न ही भेजनेवाले का नाम था, किंतु मात्र एक वाक्य से लिखनेवाले ने मेरे मन के तारों को झंकृत कर दिया था…
“… प्रभाती साथ गाने का समय हो गया है, जाग रही हो ना!…”
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