प्रकृति प्रेम… अभी तलाश रही हूं कुछ पीले शब्द कि एक कविता लिखूं पीली सी ठीक उस पीली सोच वाली…
द्रौपदी स्वयंवर मैं अग्निसुता, मैं स्वयंप्रभा मैं स्वयं प्रभासित नारी हूं मैं यज्ञ जन्मा, और पितृ धर्मा नहीं किसी से…
कोयलिया तू हर दिन किसे बुलाती है? भोर होते ही सुनती हूं तेरी आवाज़ विरह का आर्तनाद प्रणयी की पुकार…
दिवाली की झालरें… ..टिम-टिम करती रंग-बिरंगी झिलमिलाती हुईं झालरें बतियाती रही रातभर दो सहेलियों की तरह कभी हंसतीं-खिलखिलाती.. कभी चुप-चुप…
पूर्णता की चाहत लिए प्रतीक्षारत कविताएं.. कुछ अधमिटे शब्दों की प्रस्तावित व्याख्याएं.. कब से, पल-पल संजोई हुई आशान्वित कल्पनाएं.. संभावनाओं…
मुझे तन्हाई से अक्सर मिला हैख़्यालों में वहीं दिलबर मिला है यूं मिलने के ठिकाने और भी थे कभी छज्जे…
कभी-कभी मैं कुछ नहीं भी कहती हूं तुम तब भी सुन लेते हो.. कैसे! कभी-कभी मैं कुछ कहती हूं तुम…
* गुज़र जानी थी ये उम्र किसी बेनाम कहानी की तरह कि बियाबान में फैली ख़ुशबू और उसकी रवानी की…
अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं… निदा…
बारिश की बूंदों ने आज फिर दिल को गुदगुदाया है रिमझिम फुहारों ने मौसम को आशिक़ाना बनाया है ठंडी बयार…
लॉकडाउन पर विशेष... सब प्रतीक्षारत हैं बैठे हैं वक़्त की नब्ज़ थामे कि कब समय सामान्य हो और रुके हुए…
सुनो कवि.. पहाड़ी के उस पार वो स्त्री.. रोप रही है नई-नई पौध सभ्यताओं की और उधर.. गंगा के किनारे…