कोयलिया
तू हर दिन किसे बुलाती है?
भोर होते ही सुनती हूं तेरी आवाज़
विरह का आर्तनाद
प्रणयी की पुकार
मनुहार
सभी कुछ है उसमें
गूंज उठता है उपवन
हर दिन
दिन भर
ढूंढ़ती है उसे तू डाल-डाल
भोर से सांझ तक
तेरा खुला निमंत्रण पाकर भी
नहीं आता क्यों मीत तेरा?
विरक्त है तुझसे?
या वह
विवश?
प्रात: होते ही गूंज उठती है
फिर वही पुकार
कुहू-कुहू की अनुगूंज
खिड़की की राह भर जाती है
मेरे कमरे में
द्विगुणित हो गूंजती है
मेरे आहत मन में
पुकारता है मेरा भी मन
मनमीत को
विरह का आर्त्त
प्रणयी की पुकार
मनुहार
सभी कुछ उसमें
पर सखी
कैसे पहुंचे उस तक
मेरी आवाज़?
पंख विहीन मैं
मेरे तो लब भी सिले हुए हैं!..
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