याद आते हैं वो दिन कभी मेरे दिन की शुरुआत ही जहां से होती थी
अब तुम उस खिड़की से दिखाई नहीं देती..
आज भी सोचता हूं कभी मेरी सुबह कि पहली नज़र ख़ुद-ब-ख़ुद वहीं पड़ती थी
पर अब वो प्यारी-सी झलक वहां उस खिड़की से दिखाई नहीं देती..
कभी मेरी सुबह वाली चाय की चुस्की में तेरे ख़्यालो की चाशनी घुली होती थी
ढूंढ़ती है मेरी नज़र तुम्हें पर अब तुम उस खिड़की से दिखाई नहीं देती..
जब कभी मेरी सुबह की पहली धूप की किरणों में अचानक तुम अपनी झलक की रोशनी बिखेरती थी
होता हूं आज परेशान क्यों नहीं आज तुम उस खिड़की से दिखाई नहीं देती..
रोज़ की तरह जब तेरे घर के सामने से गुज़रता था दिल में एक उम्मीद की किरण होती थी
पर आज सब बदल गया है मैं मायूस हूं क्यों तुम अब उस खिड़की से दिखाई नहीं देती..
शाम होते ही ढलते सूरज की लाली में तेरे चेहरे को निहारने की कसक होती थी
पर आज तुम मेरे पास नहीं हो क्यों तुम अब उस खिड़की पर दिखाई नहीं देती..
कितने ख़ुशनुमा पल होते थे जब भी कभी ठंडी हवा के झोंके तुझसे मिलके मेरी तरफ़ आते हुए तेरी ख़ुशबू का एहसास मुझे करवाते थे
आज वो सब नहीं है मैं अकेला बैठा हूं, क्योंकि अब तुम उस खिड़की पे दिखाई नहीं देती..
याद है मुझे वो बारिश के दिन, जब हल्की फुहार की बूंदें तुझको छूते हुए मुझे छू लेती थी
अब वो दिन शायद लौट कर नहीं आएंगे क्योंकि अब तुम उस खिड़की पे दिखाई नहीं देती..
शाम होते ही चांद की चांदनी में तेरे हुस्न के नूर की मुझ पे रिमझिम बारिश होती थी
पर अब तुम कहीं दूर चली गई हो इसीलिए तुम अब उस खिड़की पे दिखाई नहीं देती..
कभी अंधेरी रात में मोमबत्ती की रोशनी में तेरी परछांई की ख़ुशनुमा हलचल होती थी
अब अंधरे में अपनी आंखें बंद ही रखता हूं
जानता हूं डर जाऊंगा मैं तन्हाई से क्योंकि अब तुम उस खिड़की पे दिखाई नहीं देती..
तो क्या हुआ तुम दूर चली गई हो पर मेरे दिल में कभी ना मिटने वाला अपना एक अक्स छोड़ गई हो
ख़ुश हो जाता हूं अपने अंदर ही झांक कर तो क्या हुआ जो अब तुम उस खिड़की पे दिखाई नहीं देती..
देखो अभी सूरज ढल रहा है इसकी सिंदूरी रोशनी में बस तुम मेरे पास नहीं हो
पर सोचता हूं कि जहां भी हो कभी कभार भूले से ही मेरा एक छोटा सा ख़्याल तुम्हें छू लेता होगा
हंस लेता हूं तुम्हारी याद की खुमारी में क्योंकि अब में जान गया हूं अब तुम उस खिड़की पे दिखाई नहीं दोगी..
अब तो चांद की चांदनी भी मेरा मजाक़ उड़ाती हुई खिलखिला के हंसती है जान गई है वो भी मैं अकेला हो गया हूं
पर मैं तो इसी बात से सुकून में हूं
के तुम ख़ुश हो वहां पर जहां पर तुम्हें होना था
तो क्या हुआ जो इस तन्हाई की हक़ीक़त को मैं जान गया हूं समझ गया हूं पहचान गया हूं
अब कभी तुम उस खिड़की पर फिर कभी भी दुबारा दिखाई नहीं दोगी…
– राजन कुमार
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