जब वंचना मुखर हो, युग धर्म निभाएं कैसे
लगता नही है मुमकिन, सुख चैन पाएं कैसे
जब हर पलक पे आंसू, इस जगत में भरे हों
तब लेखनी को सौंदर्य, लिखना सिखाएं कैसे…
पतझड़ को हराने को, ताक़त की न दरकार है
वो तो मां प्रकृति का, पौधों को मिला उपहार है
नई कोंपलों को जब मिलती, कुदरत की मंज़ूरी है
उनके लिए जगह बनानी, भी तो एक मजबूरी है
बस थोड़ा सा इंतज़ार, मुस्कुरा कर करना होगा
करवट बदलेगी धरती, फिर फूलों का झरना होगा
ठुकरा-ठुकराकर ख़्वाहिशें, ठोकर खाना सिखा गए
शुक्रिया अस्वीकार तुम, क्या ख़ूब दोस्ती निभा गए
मन को भरकर अंधेरों से, रोशनी की चाह जगा गईं
शुक्रिया असफलताओं, तुम गुरु का फर्ज़ निभा गईं
चोट लगाकर इस दिल में, इसको मज़बूत बना गईं
शुक्रिया ऐ बाधाओं तुम, संघर्ष से पहचान करा गईं…
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