परीक्षा का समय आता था और मैं एक्ज़ाम फ़ीवर से पीड़ित हो जाती थी. इस बार भी ऐसा ही हुआ. मुझे पढ़ा हुआ कुछ भी याद नहीं रहता था और इस बार भी ऐसा ही हुआ. तब मेरी एक सहेली ने बताया कि शहर में एक डॉक्टर हैं, जिनके पास इसका इलाज है. मैं मम्मी को लेकर डॉक्टर से मिली. वे बैच फ्लावर थेरेपी से ट्रीटमेंट करते थे.
डॉ. प्रसून ने ढेर सारे प्रश्न पूछे. फिर कहा, “ज़रा जीभ बाहर निकालिए.” उन्होंने दवा की 3-4 बूंदें जीभ पर टपका दीं. कुछ चमत्कार-सा अनुभव हुआ. मैं नियमित दवा लेती रही. मेरे पेपर्स अच्छे होने लगे. साथ ही मुझे एहसास हुआ कि मेरी स्मरणशक्ति धीरे-धीरे लौट रही है, मगर दिल का नियंत्रण छूट-सा रहा है.
26 वर्षीय डॉ. प्रसून का व्यक्तित्व मुझे आकर्षित कर रहा था. वे होमियोपैथी के साथ-साथ बैच फ्लावर थेरेपी द्वारा मरीज़ों का उपचार करते थे. मेरी परीक्षा कब समाप्त हो गई, पता भी नहीं चला. “आपकी दवा ने तो कमाल कर दिया.” मैंने उनसे कहा. वे स़िर्फ मुस्कुरा दिए. उनकी सौम्य मुस्कुराहट पर मैं मर मिटी.
किसी ने सच ही कहा है, “आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा…” और मेरे साथ भी यही हुआ. उन्होंने एक दिन मुझसे कहा, “छुट्टियों में तुम मेरी डिस्पेंसरी में बैठकर मरीज़ों को क्यों नहीं देख लेती? तुम्हें दवाओं के विषय में धीरे-धीरे बताता रहूंगा. अगर तुम चाहो, तो होमियोपैथी का कोर्स भी कर सकती हो.” कहते हुए उन्होंने स्टेथोस्कोप पकड़ा दिया.
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होमियोपैथी में धीरे-धीरे मेरी रुचि बढ़ने लगी. वे बीच-बीच में मुझे गाइड भी करते रहते और क़िताबें व नोट्स भी देते रहते. मैं दवाओं व मरीज़ों के बीच रम-सी गई. मैं घंटों डिस्पेंसरी में बैठी रहती. हमारी आत्मीयता रंग लाने लगी. कुछ मरीज़ मुझे डॉक्टर साहिबा कहकर संबोधित करते, तो मैं गौरव का अनुभव करती.
बाहर बारिश हो रही थी, “दही-कचौड़ी खाओगी?” उनकी आवाज़ में आत्मीयता थी. मैंने ङ्गहांफ में सिर हिलाया. धीरे-धीरे हमारा मूक प्यार अंगड़ाई लेने लगा. “कल शाम को मैं अपने परिवार के सदस्यों से तुम्हारा परिचय करवाऊंगा.” उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा.
मैंने यह बात अपनी मम्मी से कही. वे मुस्कुरा दीं, शायद मम्मी को हमारे मेल-जोल से कोई आपत्ति नहीं थी. मेरे दिल में प्रसून मुहब्बत बन महकने लगे. मैं अपने भाग्य पर इतराने लगी. मुझे लगने लगा कि मैं अब प्रसून के बिना जी नहीं पाऊंगी.
यही हाल शायद प्रसून का भी था. “एक गोलगप्पा और लोगी… मेरी क़सम.” प्रसून ने मुझ पर अधिकार जमाया. मुझे लगा हर लड़की की यही इच्छा होती है कि कोई उस पर अपना अधिकार जताए. शायद अधिकार के पीछे उसका प्यार ही होता है. मैं अप्रत्यक्ष रूप से प्रसून की हो चुकी थी. बस, प्रतीक्षा थी, तो परीक्षा परिणाम की.
परीक्षा में तो मैं पास हो गई, मगर हमारा प्यार फेल हो गया. हताश-निराश प्रसून ने जब बताया कि उसकी बहन छुटकी का विवाह जिस परिवार में हो रहा है, उनकी एक शर्त है कि प्रसून के होनेवाले जीजाजी की बहन से वह विवाह कर लें. “और मैंने हां कर दी. मैं आख़िर करता भी क्या? बड़े लाड़ से छुटकी को हमने पाला है. मेरा फ़र्ज़ बनता है न कि मैं बड़े भाई होने का कर्तव्य निभाऊं.” वे नम आंखें पोंछते हुए बोले.
मैं उनके त्याग पर फिर मर मिटी. मैं अपने प्यार पर फ़क़्र महसूस कर रही थी. मैंने उनका समर्थन करते हुए कहा, “प्रसून, सच तो यह है कि प्यार एक गोलगप्पे की ही तरह खट्टा-मीठा होता है. गोलगप्पे कितने नाज़ुक होते हैं न, इधर झटका लगा और उधर फूटा. मगर हमारा प्यार तो चटपटी कचौड़ी-सा है न, आज यह स्वाद भी आज़मा लें.” मैंने अपने पहले प्यार की कुर्बानी देकर प्रसून को धीरे से “बेस्ट ऑफ़ लक” कह दिया.
– नलिनी मेहता
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