काव्य- समर शेष है… (Poetry- Samar Shesh Hai…)

और…
प्रेम के लिए क्या गया स्त्री का समर्पण
ना जाने कब बदल गया समझौते में उपेक्षा
तिरस्कार से कुम्हला गए पत्ते प्रेम के
सहनशक्ति की झीनी चादर तले
दब गए इंद्रधनुषी रंग नेह के
दो व्यक्ति के मध्य किया जाने वाला प्रेम
शनै शनै बदल गया एकालाप में
वह अब बात तो करते हैं
मगर ख़ुद से…

एकतरफ़ा इन संवादों से
मौन हो गया है मुुुखर
खिलखिलाहटें खो गई हैं
मुंह छुपाए बैठी हैं मुस्कुराहटें
हरसिंगार के फूल खिलकर गिर जाते हैं
कि ढल गए हैं दिन गजरे के
बारिश की बूंदें बरसते ही गुम हो जाती हैं
विरह की तपिश में
गरम तवे पर पड़ी पानी की बूंदों सदृश
सावन के झूले पड़े हैं रीते
कि यदा-कदा छोटी चिड़िया आ बैठती हैं उन पर
लेना चाहती हैं पींगे पर
पुरवाई से हिल कर ही रह जाता है झूला…

प्रेम से पहले…
स्त्री चाहती है मान सम्मान के दो बोल
तिरस्कार, उपेक्षा में लिपटे प्रेम के शब्द भी
लगते हैं चासनी में लिपटे करेले सरीखे
क्या-क्या नहीं किया तुम्हारे लिए मैंने
भौतिक सुविधाओं की लंबी फ़ेहरिस्त
पर छीन ली गई आज़ादी
हाथ बराबरी का, स्वीकारोक्ति एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की
स्त्री का समर अभी शेष है
ए पुरुष! कब लोगे तुम
आहत आत्मसम्मान की सुधि
काश के दो बोल प्रेम के बोलना भी
तुमको रहता याद…

यामिनी नयन गुप्ता
    

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Usha Gupta

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Usha Gupta
Tags: poetryKavya

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