एक समर्थक चोर को सूचना दे रहा है, “पिछली रात सुकई चाचा के घर में चोर घुसा और सब कुछ लूट लिया. ग़लती सरासर सुकई की है, उसे आंख खोल कर सोना चाहिए था.”
चोर ने मुंह खोला, “मैं तो गांव हित में सोता ही नहीं! पूरी रात चिंतन, मनन और खनन में बीत जाती है. ख़ैर, पुलिस भी आई होगी?”
मेरे गांव में चोर को चोर नहीं कहा जाता! कैसे कहें- चोर बुरा मान जाएग. फिर गांधीजी ने कहा भी है कि बुरा मत मत कहो, बुरा मत सुनो और बुरा मत देखो! गांव वाले अक्षरशः पालन करते हैं. चोरी करते देख कर लोग आंखों पर गांधारी पट्टी बांध लेते हैं. चोर को बुरा कहने की जगह पीड़ित की ग़लती निकालते हैं. चोर के अतीत और वर्तमान पर कुछ इस तरह अध्यात्म छिड़कते हैं, “वो अगर चोर है, तो इसके लिए वो नहीं उसके हालात कुसूरवार हैं. चोर को नहीं हमें उसके हालात की निन्दा करनी चाहिए. पाप और पापी का ये रहस्यवाद गांववाले निगल रहे हैं. अब आगे से जब भी चोरी होगी चोर की जगह हालात को ढूंढ़ा जाएगा. अपराध की इस नई नियमावली से सबसे ज़्यादा स्थानीय पुलिस ख़ुश है.
गांववाले जानते हैं कि वह चोर है, पर संस्कार से मजबूर हैं. चोर को चोर नहीं कह सकते. चोर को चोर कहने के लिए जो नैतिक साहस चाहिए, वो अब ऑउट ऑफ डेट हो चुका है. उल्टे गांव के लोग चोर से बडे़ सम्मान के साथ पेश आते हैं. चोर भय बिन होय न प्रीत की हकीक़त जानता है. कई लोग उसके फन से भयभीत होकर इसके पक्के समर्थक बन गए हैं. उनमें से कई उसके चौपाल में चिलम पीने भी पहुंच जाते हैं. चोर का जनाधार बढ़ रहा है, मगर गांव बंट रहा है. समर्थक उसके पक्ष में चमत्कारी दलील दे रहे हैं, “वो चोर नहीं दरअसल संत है.’ विरोधियों को चोरी नहीं करने दे रहा है, इसलिए वो लोग एक संत को चोर कह रहे हैं. संत के आने के बाद विरोधियों की आपदा बढ़ गई और चोरी करने का अवसर गायब हो गया.”
चोर का एक और समर्थक आध्यात्म का सहारा ले रहा है, “हमें चोर से नहीं चोरी से घृणा करना चाहिए. क्या पता कब चोर का हृदय परिवर्तन हो जा. अंगुलिमाल पहले डकैत थे बाद में संत हो गए. ये जो चोर और डाकू होते हैं न, उन्हें ‘संत’ होते देर नहीं लगती. हमें तो भइया पूरा यक़ीन है कि सिद्ध प्राप्ति का कठिन मार्ग चोरी और डकैती से ही निकल कर जाता है. अपन तो कभी भी उसे चोर नहीं मानते, क्या पता कब चोर और भगवान दोनों बुरा मान जाएं… (भगवान तो मान भी जाते हैं, पर चोर की नाराज़गी अफोर्ड नहीं कर सकते. क्या पता कल आंख खुले, तो तो घर स्वच्छ भारत अभियान से गुज़र चुका हो)
गांव के दो-चार मुहल्ले अभी भी विरोध में हैं, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुने, जबकि अब खुलकर चोर को संत घोषित किया जा रहा है. सुबह देर से उसके चौपाल में पहुंचा. एक समर्थक चोर को सूचना दे रहा है, “पिछली रात सुकई चाचा के घर में चोर घुसा और सब कुछ लूट लिया. ग़लती सरासर सुकई की है, उसे आंख खोल कर सोना चाहिए था.”
चोर ने मुंह खोला, “मैं तो गांव हित में सोता ही नहीं! पूरी रात चिंतन, मनन और खनन में बीत जाती है. ख़ैर, पुलिस भी आई होगी?”
“हां, आई थी और चोरी के ज़ुर्म में सुकई को पकड़ कर थाने ले गई! दरोगाजी कह रहे थे, “ज़रूर तूने इस गांव के किसी संत को फंसाने के लिए अपने घर में चोरी की होगी! जब तक ज़ुर्म कबूल नहीं करेगा छोडूंगा नहीं…”
“किसी संत पर इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए.”
“और क्या! पिछले हफ़्ते जगेसर के घर में चोरी हुई और चोर अपनी सीढ़ी छोड़ गया. पूरे गांव में किसी ने सीढ़ी को नहीं पहचाना कि उसका मालिक कौन है. दरोगाजी ने तीसरे दिन जगेसर को पीट कर थाने में बंद कर दिया. शाम होते-होते जगेसर ने कबूल कर लिया कि उसी ने अपने घर में चोरी की थी.”
कुछ प्रशंसक अब बाकायदा चारण हो गए हैं, हर जगह चोर के शौर्य, सदाचार और सत चित आनंद का गुणगान करते रहते हैं, “अगर वो कभी चोर था, तो वो उसका अतीत था. वर्तमान में वो संत है. हमें उस पर गर्व करना चाहिए.” चोर को अपने फन पर गर्व है. कभी-कभी वो चोरी और गर्व साथ-साथ कर लेता है. गांव के कुछ चारण, तो उसके फन में भी रहस्यवाद ढूंढ़ रहे हैं. चाय की गुमटी के पास शाम को एक चारण गांववालों से कह रहा था, “संत और फकीरों की बातें वही जानें. उनके हर काम के पीछे दूरदृष्टि या कोई दिव्य मक़सद होता है. प्रथम दृष्टया, जो हमें चोरी लग रही है, वो आत्मनिर्भरता हो सकती है.” (जैसे सुकई और जगेसर के दिन फिरे) गांववाले बहुमत का रुझान देख कर भी कन्विंस नहीं हो रहे हैं. ये वो लोग हैं, जिन्होंने कई बार रात के अंधेरे में चोर को आत्मनिर्भर होकर लौटते हुए देखा है. (उनके मन मंदिर से वो दिव्य छवि अब तक नहीं उतरी)
आत्मनिर्भर संत अब सरपंच बनने की ओर अग्रसर है, मगर दुर्भाग्य देखिए कि इतने भागीरथ प्रयत्न के बाद भी गांव और गांववाले ग़रीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं!..
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