वहां जाकर उसे पता चला कि वह कुछ लोगों के मुक़ाबले कितनी अच्छी स्थिति में थी. वे औरतें जो जीती-जागती लाशें थीं, निराशा और अवसाद की दलदल में प्रायः डूब ही चुकी थी. तिरस्कृत, बलात्कृत, अवहेलित, बहिष्कृत नारी प्रतिमाएं, संवेदनाहीन, अनुभूति शून्य, उन्हें सहारे की आवश्यकता थी. अकल्पनीय भीषण हादसों का सामना करके पत्थर हो गई थीं वे.
उन्हें देखकर शालिनी जैसे अट्ठाइस बरस की नींद से जाग उठी. उसे महसूस हुआ कि वह यह काम कर सकती है, क्योंकि उनके दुखों की भाषा उसके लिए भी अजनबी नहीं है. ज़ख़्म उनके जैसे गहरे नहीं हैं तो क्या, कांटों की वेदना तो उसने भी अनुभव की है.
“मैं जा रहा हूं. दरवाज़ा बंद कर लेना. अब उठोगी भी कि टुकुर-टुकुर देखती रहोगी.”
शालिनी ने उठकर दरवाज़ा बंद कर लिया. इस तरह के अपमान के घूंट पीने की वह आदी हो गई थी. अब ठीक दस मिनट बाद सामनेवाले घर से शिखाजी निकलेंगी. उन्हें निकलते देखने का मोह वो संवरण नहीं कर पाती. शालिनी ने खिड़की के परदे को ज़रा-सा सरकाया और आंखें सामनेवाले घर पर गड़ा दीं.
क़लफ़वाली कॉटन साड़ी, सौम्य मेकअप, अनुभवी मुखमुद्रा, कंधे पर टंगी पर्स ओझल हो जाती, तो अनायास ही शालिनी कमर में खोंसे पल्लू को मुक्त करके चेहरे का पसीना रगड़-रगड़कर पोंछती.
ये लोग कॉलोनी में नए आए हैं. उस दिन परिचय के लिए घर आए थे. बड़ी असहज हो गई थी शालिनी.
“मैं शिखा गुप्ता.” उस महिला ने शिष्टता से उसे नमस्कार करते हुए पूछा “आपका नाम?” “जी, मैं शालिनी शर्मा.” शालिनी ने अचकचाकर जवाब दिया. बुद्धू, बेवकूफ़, गंवार, मूर्ख, घर में नित्य सुने जाने वाले विभिन्न नामों के कारण अपना असली नाम याद करने में उसे ख़ासी मश़क़्क़त करनी पड़ी.
“शालिनी… शालू मेरी छोटी बहन. हां, अपनी बहन को मैं इसी नाम से बुलाती हूं. तुम्हें मंज़ूर है?”
“जी…” शालिनी बुरी तरह हकला गई. इतने स्नेह से उसे किसी ने कभी बुलाया हो, याद नहीं पड़ता. वह अपलक उसे यूं ताकती रह गई जैसे उस जैसी अयोग्य महिला पर किसी ने आश्चर्यजनक रूप से कृपादान किया हो.
शिखाजी हंसमुख और मिलनसार थीं, पर व्यक्तित्व में ज़मीन-आसमान का अंतर शालिनी को उनसे दूर कर देता. फलतः परिचय यहीं तक सीमित रह गया.
शाम को वही उबाऊ क्रम. योगेशजी का ऑफ़िस से आगमन. शालिनी द्वारा चाय-नाश्ता पेश किया जाना, पति का उसमें ढेरों नुक्स निकालना, शालिनी के गंवार पहनावे पर उबलना, शालिनी का गरदन झुका लेना, स्वयं को कोसना, फिर खाना, फिर मीन-मेख और फिर जानलेवा रात.
शालिनी को परे धकेल दिया जाता. जिस तरह डिस्पोज़ेबल कप को इस्तेमाल के बाद तोड़-मरोड़कर फेंका जाता है. शरीर का पोर-पोर टीसने लगता, पर विरोध करना जैसे उसने सीखा ही नहीं था.
जब से ब्याहकर इस घर में आई, अपने लिए यह सुनती रही, “मुंह में ज़ुबान ही नहीं है. बिल्कुल गऊ है.
एक आदर्श बहू के लिए इससे बड़ा कॉम्प्लीमेंट क्या हो सकता है. चार भाई-बहनों में दूसरे क्रमांक की शालिनी को अपने भाई-बहनों से युक्तिपूर्ण और तार्किक संवाद करना तो अच्छी तरह आता था, पर माता-पिता ने बुज़ुर्गों के सामने कम बोलने के संस्कार दिए थे, जिन्हें वह अच्छी तरह निबाह रही थी.
सास की दुलारी बहू पति की आंख की किरकिरी बनी रही. उसकी एक-एक बात उन्हें काट खाने दौड़ती. गुण भी अवगुण नज़र आते.
बढ़ती उम्र की बेटियों ने भी मां को कभी सम्मान नहीं दिया. उनकी और योगेश की ख़ूब घुटती थी. उन तीनों में वह कभी शामिल होने की कोशिश करती तो उसे चावल में कंकर-सा निकाल कर अलग कर दिया जाता.
अब ऐसी भी गई- गुज़री नहीं?थी वह. बी.ए. द्वितीय वर्ष पास थी. परंतु इन कृतघ्न लोगों की चाकरी बजाते-बजाते कहीं की नहीं रही. समाचार कान पर पड़ते हैं, सुनती भी है. इतनी अज्ञानी भी नहीं थी कि समझ भी न पाती. बस चर्चा नहीं कर पाती थी. अपने विचारों को प्रकट करना वह भूल ही गई थी. बरसों पहले ज़ुबान बंद हो गई थी तो खुलती कैसे!
उसकी शादी को अभी तीन-चार दिन ही हुए थे. पति के मित्र ने उन दोनों को खाने पर बुलाया. कुछ और दंपति भी आमंत्रित थे. घर के बुज़ुर्गों से दूर हमउम्र लोगों में उसे बड़ा खुला-खुला सा लग रहा था. तरह-तरह के विषयों पर चर्चा चल रही थी. वह अधिकार से भाग ले रही थी. अच्छी तरह स्वयं को प्रस्तुत कर रही थी. हंसी-मज़ाक, बातचीत में खाना कब ख़त्म हुआ पता ही नहीं चला.
“बड़े भाग्यशाली हो यार! बड़ी बुद्धिमती पत्नी मिली है.” एक मित्र ने कहा.
योगेश की पीठ पर धौल जमाते हुए दूसरे मित्र ने मज़ाक किया, “बंदर के गले में मोतियों की माला.” ठहाकों के बीच शालिनी ने देखा कि योगेश के चेहरे की रेखाएं खिंचने लगी हैं. बगैर एक शब्द बोले वे दोनों घर आए.
रात को अकेले में उन्होंने शालिनी को एक थप्पड़ रसीद कर दिया. “बहुत खी-खी कर रही थी वहां. एक से जी नहीं भरता?” लगा, जैसे कानों में किसी ने पिघला सीसा डाल दिया हो.
उस रात का वह अपमान आज भी वह याद करती है, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. पति का सारा क्रोध उस पर बिजली बनकर टूट पड़ा था. पति-पत्नी के प्रणय की कोमल संवेदनाएं तार-तार हो गई थीं. एक सुंदर अनुभूति को अभिशाप के रूप में झेलने को वह विवश हो गई. पलंग के कोने में गुड़ीमुड़ी पड़ी शालिनी देर तक सिसकती रही. योगेश कब के सो चुके थे.
ज़ुबान तब से लेकर आज तक ख़ामोश है. संवेदनाओं ने बेहोश पड़े रहने में ही खैर समझी थी. मन के विचारों को दस दिशाओं का आकाश देने के बदले उसने उन्हें नियंत्रण के ताले में बंद कर दिया. आत्मा जड़ हो गई थी.
इतने बोझ तले जी सकता है इन्सान? शायद इसीलिए वह एक चेतनाहीन ज़िंदगी जी रही थी.
अपना अस्तित्व शनैःशनैः इसी रूप में उसने स्वीकार कर लिया. स़िर्फ एक ही क्षण उनके स्थिर जीवन में हलचल मचा देता था. सामने से निकलने वाली शिखाजी का दर्शन. ऊर्जा से भरपूर, आनंद से लबरेज़, कल्पना से परे वह नारी व्यक्तित्व.
आज…आज वह उसी के घर की ओर आ रही थी.
‘नमस्ते’ शिखाजी के अभिवादन के प्रत्युत्तर में वह सकुचाकर बोली, “आप तो बड़ी हैं, अभिवादन करके शर्मिंदा मत कीजिए..”
“अच्छा, मैं तुम्हें शालू ही कहूंगी जैसा हमने उस दिन तय किया था.” वह हंसकर बोली, “क्या तुम कभी घर से बाहर नहीं निकलती?”
“ज़रूरत ही नहीं पड़ती. सामान ये ला देते हैं, घर में काम भी बहुत हो जाता है.”
“काम का तो बहाना होता है हम औरतों का! दरअसल हम घर के बाहर निकलना ही नहीं चाहतीं. देखो, तुम्हारी दोनों बेटियों की शादी हो गई. अब घरेलू ज़िम्मेदारियां ख़त्म हो गईं. लेकिन समाज के प्रति भी हमारी ज़िम्मेदारी है या नहीं?”
शालिनी क्या कहती. उस प्रतिभावान गरिमापूर्ण व्यक्तित्व की धनी महिला से उसकी क्या बराबरी? पति के अनुसार तो वह परले दर्ज़े की बेवकूफ़ है, जिसने घरेलू ज़िम्मेदारी भी अच्छी तरह नहीं निभाई, लेकिन वह करती भी क्या? अपने घर की न सही, अपनी रसोई की भी वह रानी होती तो एक बात थी, पर योगेश वहां भी चले आते.
समाज सेवा कहां से होती. घर को अपना नहीं बना सकी, समाज को कैसे बनाती? शिखाजी के प्रस्ताव पर शालिनी मौन ही रही.
ताज्जुब था! ऐसी महिला उसके जैसी नगण्य निहायत घरेलू किस्म की महिला के साथ एकतरफ़ा संबंध बनाए हुए थी.
उस रात बरसों बाद शालिनी ने कोई सपना देखा. उसने देखा, शिखाजी उसका हाथ पकड़े रूई के फाहे जैसे बादलों में सैर करा रही थीं. वह मुक्त थी. निर्द्वंद्व. सिर पर हमेशा लदा रहने वाला हीनता का बोझ न जाने कहां गायब हो गया था.
अगले दिन सुबह ग़लती से उसने चाय में शक्कर ज़्यादा डाल दी. योगेश ने हमेशा की तरह उसे गाली दी. “ज़ाहिल कहीं की! चाय है या चाशनी.”
आज उनकी गाली को वह निर्लिप्त भाव से स्वीकार नहीं कर पा रही थी. अंतर में चिंगारी उठती हुई उसने साफ़ महसूस की. शिखाजी ने उसमें यह कैसा परिवर्तन ला दिया है? जिस मन को मृत समझकर उस पर टनों मिट्टी डाल चुकी थी, उसमें से न जाने कैसे जीवन की धड़कन सुनाई दे रही थी.
उस दिन योगेश घर लौटे तो बड़े चिंतित दिखाई दे रहे थे.
“क्या हुआ जी?” उसने चाय का प्याला उन्हें पकड़ाते हुए विनम्रता से पूछा. “मुझे ट्रेनिंग के लिए दिल्ली भेजा जा रहा है. दो महीने की ट्रेनिंग है. अब तुम बिल्कुल अकेली यहां कैसे रहोगी?”
शालिनी ख़ुद भी फिक्रमंद हो गई. कभी भी अकेली नहीं रही वह.
“तुम ठहरी परले दर्ज़े की बेवकूफ़! लापरवाही तुम्हारी नस-नस में भरी हुई है. लौटूंगा तो पता नहीं मुझे घर दिखेगा या खंडहर.”
शालिनी क्या जवाब देती! इसका जवाब तो वह ख़ुद भी नहीं जानती थी.
“और हां, बाहर के कामों के लिए एक-दो दोस्तों को बोल दूंगा. वे लोग कर देंगे. ठेलेवाले से सब्ज़ी लेना, पर हिसाब ठीक तरह करना, वरना पकड़ा दोगी उसे सौ का नोट और वापस लेना भूल जाओगी.”
‘जी… जी’ करती रही शालिनी. भीतर ही भीतर वह भी चिंतित हो गई थी. योगेश के जाने के बाद शिखाजी ने उसे हिम्मत बंधाई, फिर उसे डांटकर बोली, “तुम इतना अपमान क्यों सहन करती हो? पत्नी पति को सम्मान देती है, तो पति का भी फ़र्ज़ है कि अपनी पत्नी को सम्मान दे.”
पत्नी को सम्मान? यह कैसी हैरतअंगेज़ बात थी.
“क्या आपके पति आपसे दबते हैं?” शालिनी अटपटा-सा प्रश्न पूछ बैठी.
“पागल हो गई हो? हम पति-पत्नी हैं, एक गृहस्थी के बराबर के साझेदार. एक-दूसरे के ग़ुलाम नहीं.”
पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक, साथी मित्र, सहयोगी? ये कैसे अनोखे शब्द हैं. वह तो स़िर्फ इतना जानती है कि पति स्वामी है, तो पत्नी दासी. पति पालनकर्ता है, तो पत्नी पालित. पति आश्रयदाता है, तो पत्नी आश्रित. पति जीवनरस से भरपूर वृक्ष है, तो पत्नी अमरबेल.
शिखाजी हंसकर उसे उलाहना देतीं, “बरसों से घर ही घर में रहकर तुम्हारा दिमाग़ जंग खा गया है. तुम भूल गई हो कि तुम पढ़ी-लिखी हो, सिलाई-बुनाई में माहिर हो, ये गुण कोई कम तो नहीं! कल से तुम मेरे साथ चलोगी.
“कहां?”
“हाफ वे होम, जहां मानसिक रूप से विक्षिप्त महिलाओं को रखा जाता है. ऐसी महिलाएं, जिन्हें उनके परिजन ठीक होने पर भी स्वीकार नहीं करते.”
“लेकिन मैं क्या करूंगी वहां जाकर?’
“तुम उनसे बातें करके उन्हें उनकी अंतर्वेदना से मुक्त करोगी? उन्हें एहसास दिलाओगी कि वे अकेली नहीं हैं. अपना हुनर सिखाओगी. अवसाद के अंधे कुंए
से उन्हें बाहर निकालने की हर संभव कोशिश करोगी.”
“लेकिन मुझे तो यह सब नहीं आता…”
“यह तुम्हारा वहम है, तुमने मुझसे अपनी ज़िंदगी के बारे में विस्तार से बताया तभी तो मुझे पता चला.”
“मुझसे नहीं होगा…”
वह ना-ना करती रही और शिखाजी कब खींचकर उसे ले गईं, उसे स्वयं पता नहीं चला.
वहां जाकर उसे पता चला कि वह कुछ लोगों के मुक़ाबले कितनी अच्छी स्थिति में थी. वे औरतें जो जीती-जागती लाशें थीं, निराशा और अवसाद की दलदल में प्रायः डूब ही चुकी थी. तिरस्कृत, बलात्कृत, अवहेलित, बहिष्कृत नारी प्रतिमाएं, संवेदनाहीन, अनुभूति शून्य, उन्हें सहारे की आवश्यकता थी. अकल्पनीय भीषण हादसों का सामना करके पत्थर हो गई थीं वे.
उन्हें देखकर शालिनी जैसे अट्ठाइस बरस की नींद से जाग उठी. उसे महसूस हुआ कि वह यह काम कर सकती है, क्योंकि उनके दुखों की भाषा उसके लिए भी अजनबी नहीं है. ज़ख़्म उनके जैसे गहरे नहीं हैं तो क्या, कांटों की वेदना तो उसने भी अनुभव की है.
उसके सांत्वना देने के तरी़के से शिखाजी भी अभिभूत हो गईं. अब तो वह रोज़ ही शिखाजी के साथ ‘हाफ वे होम’ जाने लगी.
शिखाजी ने शालिनी का रहन-सहन भी बदल दिया. ज़माने की ऱफ़्तार को समझने का प्रयास करते-करते वह उसी प्रवाह में आगे बढ़ चली थी. चेहरे के आहत, उदास भाव कहीं तिरोहित हो गए थे.
आजकल वह फ़ोन पर योगेश से सधी हुई आवाज़ में बस इतना ही कहती, “व्यर्थ चिंता न करें. अपनी और घर की सुरक्षा ख़ुद करने में वह सक्षम है.”
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घबराई हुई, अचकचाई हुई आवाज़ सुनने के आदी योगेश इस सधी हुई आवाज़ से भौंचक्के रह जाते.
इस दौरान गैस ख़त्म हुई. टेलीफ़ोन, बिजली, पानी का बिल- इस तरह के बीसियों मौ़के आए, जिनके लिए योगेशजी ने अपने ख़ास दोस्तों को कह रखा था. लेकिन ऐसी नौबत ही नहीं आई. शिखाजी के साथ जाकर वह स्वयं ही सारे काम कर आई. उसने देखा व्यर्थ ही वह इन सब कामों को हौआ समझती रही. कुछ भी कठिन नहीं था. शिखाजी कहतीं, “इन मामूली-से लगनेवाले कामों को भी स्वयं करने से आत्मविश्वास पैदा होता है. उस दिन ‘हाफ वे होम’ से लौटते हुए शालिनी का मन बेहद उदास था. बार-बार आंखों के सामने उस पंद्रह साल की मासूम बच्ची का चेहरा घूम जाता था. वह अपने नज़दीकी रिश्तेदार की हवस का शिकार हुई थी. अनचाहे गर्भ को ढोती वह लड़की अपने ही माता-पिता द्वारा ठुकराई गई थी. उसका कोई दोष न होते हुए भी उसे सजा दी गई थी. कुसूरवार ने उसके मां-बाप को अपने दृष्कृत्य की मामूली क़ीमत चुका दी थी.
“क्या इन औरतों का समाज में वापस लौटना संभव है? हमारी कोशिशों का सुखद परिणाम निकलेगा या नहीं?” शालिनी चिंतित थी.
“हां शालू, तुम्हें देखकर मैं विश्वासपूर्वक कह सकती हूं कि अपने अतीत की ज़्यादतियां भूलकर, वर्तमान की वेदना से उबरकर मुनासिब भविष्य का निर्माण किया जा सकता है.”
शिखाजी कुछ क्षण ख़ामोश रहीं, फिर भावुक होकर गंभीरतापूर्वक बोलीं, “समय कितना भी बदल गया हो, पर आज भी ये औरतें शाप भोग रही हैं. ये अपनों द्वारा छली गई हैं. इनका आत्मसम्मान आहत हो चुका है. इनकी अस्मिता को पैरों तले कुचला गया है. रामचंद्रजी ने अहिल्या को घोर अवसाद से उबारा. हमें भी वही आदर्श अपने सामने रखना है. समाज से बहिष्कृत, जड़ हो चुकी इन औरतों में चेतना जगानी है.”
“शिखाजी! आप सब कुछ कर सकती हैं. आपसे मिलने के पहले मेरी ज़िंदगी में भी कुछ नहीं था. अपने इर्द-गिर्द छाई धुंध को मैं अपनी ज़िंदगी का सच समझ बैठी थी. धुंध के पार का उजाला मेरी दृष्टि से दूर था और आज…”
“आज भी तुम वहीं हो! मैंने स़िर्फ तुमसे तुम्हारा परिचय कराया है. योगेशजी के विशेषणों को ही तुम सच समझ बैठी थी. लेकिन शालू, व्यक्ति जब स्वयं प्रयत्न करता है, तभी अपने अंधेरों से मुक्त हो पाता है. दूसरे उसे सांत्वना दे सकते हैं, लेकिन हिम्मत उसे स्वयं जुटानी पड़ती है. मध्यमवर्गीय परिवारों में कई बार अहंकारी पुरुष अपनी पत्नी के व्यक्तित्व को बौना बनाने में ही अपना पुरुषार्थ समझते हैं? तुम ही सोचो, समाज का आधा हिस्सा ही यदि चेतनाशून्य होगा तो उसके ऊंचा उठने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है.”
शिखाजी की बातों में जीवन की सच्चाई थी.
दो महीने बाद योगेश घर लौटे, तो अपनी पत्नी को पहचान नहीं पाए. कहां गए वे लाचारी के भाव? उनके सामने तो एक तेजस्वी नारी खड़ी थी. सलीकेदार पहनावा और चेहरे पर गर्वीली मुस्कुराहट. यह तो उनकी पत्नी नहीं है, “आप जल्दी से नहा-धो लें. खाना तैयार है. एक बजे मुझे किसी काम से बाहर जाना है.”
शालिनी की इस अदा पर योगेश स्तब्ध होकर उसे देखते ही रह गए. उससे कुछ पूछने का भी साहस उनसे न हुआ. ‘पागल, बेवकूफ़, जाहिल, मूर्ख’ आदि उनकी जीभ पर आने के लिए मचलनेवाले शब्द आज पता नहीं कहां चले गए थे.
योगेश को वे खोजने पर भी नहीं मिल रहे थे.
– स्मिता भूषण
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