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कहानी- नई राहें (Story- Nayi Raahen)

अवतारजी को लगा कि इतने सालों में जीवन की आपाधापी में कुछ छूट गया था, जो आज उन्हें मिल गया है. पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी मिलकर खींचते हैं, मगर दोनों एक-दूसरे से कितने दूर-दूर रहते हैं. अगर दोनों क़रीब आ जाएं, तो जीवन का यह सफ़र आनंद से भर उठेगा. उन्हें फिर किसी और की दरकार नहीं रहेगी, चाहे वह अपने बच्चे ही क्यों न हों!

शाम हो चुकी थी. अवतार सिंह अपनी पत्नी शर्मीला का इंतज़ार कर रहे थे. शर्मीलाजी एक ग्राहक के घर अचार की होम डिलीवरी के लिए गई हुई थीं. वे चिंतित थे कि शर्मिला जल्दी घर पहुंच जाएं, वरना जैसे-जैसे रात होती जाएगी, ट्रैफिक बढ़ती जाएगी.

अवतार सिंह को रिटायर हुए सात महीने हो गए हैं. बीकॉम पास करते ही वे एक फर्म में अकाउंटेंट की पोस्ट पर लग गए थे. उनके पिता श्री स्वरूपचंद सिंह भी उसी फर्म में काम करते थे, लेकिन अवतार सिंह यह नहीं चाहते थे कि उनका बेटा एक मामूली-सा अकाउंटेंट बनकर रह जाए, इसलिए उन्होंने अपने बेटे तन्मय को योजनाबद्ध रूप से पढ़ाया. शुरू से ही वे उसकी पढ़ाई पर ध्यान देते रहे. यह उनकी दूरदृष्टि का ही परिणाम था कि उनका बेटा आईटी इंजीनियर बन गया और आज वह अमेरिका में एक बड़ी कंपनी में रीजनल हेड है.

तन्मय को जब अमेरिका में नौकरी मिली, तो अवतार सिंह की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्हें लगा कि उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने अपने बेटे को सही जगह फिट कर दिया. लेकिन उन्हें क्या पता था कि बेटे को विदेश इतना भा जाएगा कि वह अपने देश के लिए मिस फिट हो जाएगा.

अवतार सिंह जब तक नौकरी करते रहे, तब तक उन्हें बेटे की कमी नहीं खली, मगर जब से रिटायर हुए हैं, बेटे को हर पल याद करते हैं. अगर बेटा आज यहां होता, तो रिटायरमेंट के बाद उन्हें अपना घर भरा-भरा लगता. बेटे-बहू के अलावा अपनी तीन साल की पोती तान्या को भी वह बहुत मिस करते हैं.

अवतार सिंह कभी-कभी सोचते हैं कि अगर उन्हें अपने बेटे की इतनी कमी खलती है, तो उनकी पत्नी शर्मीला को बेटे की कितनी याद आती होगी. वह तो उसकी मां है.

जवानी तो सुनहरे भविष्य की आशा में काम करते-करते खप जाती है, मगर वह भविष्य जब बुढ़ापे का रूप धरकर आता है, तो बेहद बदरंग और बोझिल हो जाता है.

पिछले दो साल से अवतार सिंह अपने रिटायरमेंट का इंतज़ार कर रहे थे. इतने बरसों से एक ही जगह काम करते-करते ऊब गए थे. उन्हें लगता था कि एक दिन बेटा विदेश से लौट आएगा और सब मिलकर आनंद के साथ रहेंगे. आज जब वे रिटायर हो चुके हैं, तो परिस्थितियां एकदम उलट हैं. बेटा लौटना नहीं चाहता और वे घर बैठे-बैठे उकता गए हैं. कोई कितना टीवी देखे, कहां तक क्रिकेट मैच देखे? पार्क में भी कितने घंटे बिताए जा सकते हैं भला! आख़िरकार घर लौटना ही पड़ता है और सूना घर काटने को दौड़ता है. पहले पत्नी शिकायत करती थी कि वे दफ़्तर चले जाते हैं और बेटा विदेश में बैठा है. वह अकेली कितना दीवारों से सिर फोड़े.

अंततः शर्मीलाजी ने अपने आपको व्यस्त रखने का तरीक़ा ढूंढ़ लिया. वे पास-पड़ोस की महिलाओं को कुकिंग सिखाने लगीं. महिलाओं की घरेलू पार्टियों में वह केटरिंग का काम कर देती थीं. धीरे-धीरे उन्हें इस काम में मज़ा आने लगा और पैसा भी मिलने लगा.

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इन सात-आठ सालों में शर्मिलाजी ने अपना दायरा बढ़ा लिया है. उनके हुनर, काम के अनुभवों और जानकारियों को देखते हुए महिलाएं उन्हें अपने घर में होनेवाले पारिवारिक और धार्मिक आयोजनों की भी ज़िम्मेदारी देने लगी हैं. नामकरण संस्कार, मुंडन, गोदभराई, जन्मदिन, सगाई के अलावा धार्मिक आयोजनों के कार्यक्रमों का ऑर्डर भी शर्मीलाजी को मिलने लगा है.

शर्मीलाजी ने अपनी मदद के लिए पास की बस्ती की कई ज़रूरतमंद महिलाओं को अपने साथ काम पर रखा है. इस तरह वे अन्य महिलाओं को सम्मानपूर्वक अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करती रहती हैं. अब शर्मीलाजी अपने काम के चलते दोपहर को अक्सर बाहर ही रहती हैं और अवतार सिंह पूरी दोपहर बोर होते रहते हैं.

कुछ काम न हो, तो नींद भी नहीं आती. घर में जितनी भी किताबें थीं इस दौरान उन्होंने पढ़ डालीं. आज उन्हें पत्नी का काम करना खल रहा है. वे ख़ुद को उपेक्षित समझ रहे हैं. अब उन्हें समझ में आ रहा था कि जब वे नौकरी कर रहे थे, उन दिनों उनकी पत्नी भी कितना अकेलापन महसूस करती होगी. सच ही है, जब तक ख़ुद पर न बीते दूसरे का दुख समझ नहीं आता. अब उन्हें अपनी पत्नी से सहानुभूति होने लगी है. उनको चाय की तलब हुई. वे जब भी काम से लौटते थे, शर्मीलाजी तुरंत पानी और चाय लेकर हाज़िर रहती थीं. आज वे बाहर से आती हैं, तो आने पर चाय भी वही बनाती हैं.

तभी घंटी बजी. अवतारजी ने तेज़ी से उठकर दरवाज़ा खोला. शर्मीलाजी थकी हुई थीं, पर थोड़ी उत्साहित भी. जब वे किचन में जाने लगीं, तो अवतारजी ने उन्हें टीवी देखने के लिए पास बिठा लिया. पांच मिनट बाद वे उठकर चले गए. फिर जब वे लौटे, तो उनके हाथ में चाय की ट्रे थी. शर्मीलाजी तो आश्‍चर्य से चौंक पड़ीं, “अरे, आपने क्यों चाय बनाई? मैं तो जा ही रही थी. आपने ही बिठा लिया था.” जैसे किसी ग़लती की माफ़ी मांग रही हों.

अवतारजी मुस्कुराए, बोले, “चलो, आज से एक काम करते हैं, जो घर में रहेगा, वो बाहर से आनेवाले को चाय पिलाएगा.”

शर्मीलाजी के लिए यह दूसरा आश्‍चर्य! उनका जी चाहा कि बाहर देख आएं कि शाम को यह कौन-सा नया सूरज निकला है. फिर उन्होंने

शरारतभरे अंदाज़ में पूछा, “अगर दोनों एक साथ बाहर से आएं तो?”

“तो मैं पानी पिलाऊंगा और तुम चाय.” अवतारजी ने ठहाका लगाया.

यह सुनकर शर्मीलाजी को अच्छा लगा कि उनके पति अब उनके बारे में सोचने लगे हैं. रात में खाना बनाने में भी अवतारजी ने अपनी पत्नी की मदद की.

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इस तरह दोनों पति-पत्नी ने कुछ व़क्त साथ गुज़ारा. अवतारजी को लगा कि इतने सालों में जीवन की आपाधापी में कुछ छूट गया था, जो आज उन्हें मिल गया है. पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी मिलकर खींचते हैं, मगर दोनों एक-दूसरे से कितने दूर-दूर रहते हैं. अगर दोनों क़रीब आ जाएं, तो जीवन का यह सफ़र आनंद से भर उठेगा. उन्हें फिर किसी और की दरकार नहीं रहेगी, चाहे वह अपने बच्चे ही क्यों न हों!

आज से वे हमेशा अपनी पत्नी के साथ रहेंगे. पति बनकर ही नहीं, बल्कि जीवनसाथी बनकर, हमसफ़र बनकर! मन-ही-मन उन्होंने ख़ुद से वादा किया.

बिस्तर पर पड़े-पड़े उन्होंने शर्मीला की ओर देखा. उसके सिर से तकिया खिसक गया था. उन्हें जाने क्या सूझी कि अपनी बांह पर शर्मीला का सिर रख लिया. नींद में ही शर्मीला जैसे सुकून से मुस्कुराईं और कुछ पलों बाद वे भी नींद की आगोश में चले गए. सुबह नींद खुली, तो ख़ुद को तरोताज़ा पाया. लगा नींद ने बरसों की थकान और बोरियत को दूर भगा दिया है. शर्मीलाजी अभी भी सो रही थीं.

आज पहले वे ही उठे. फ्रेश होने के बाद उन्होंने ही चाय बनाई. जब शर्मिला को उठाया, तो वे चौंक गईं. पतिदेव ने आज उन्हें सोने दिया और ख़ुद ही चाय बनाकर दी. पिछली रात से वे एक नए आश्‍चर्य में जी रही थीं.

अवतारजी ने पत्नी से ज़िद की कि वे दोनों आज साथ-साथ मॉर्निंग वॉक पर जाएंगे. पति के साथ सुबह-सुबह सैर पर जाना शर्मीलाजी के लिए एक नया अनुभव था. वहीं घास पर बैठे-बैठे शर्मीलाजी ने बताया कि उन्हें एक नया काम मिला है और क्या उन्हें यह काम करना चाहिए?

“पहले काम तो बताओ. फिर ़फैसला करूंगा कि तुम्हें करना चाहिए या नहीं?” अवतार सिंह ने गंभीर मुद्रा बनाकर कहा.

शर्मिलाजी बोलीं, “कल जिनके घर मातारानी की चौकी थी, उनके यहां एक प्रस्ताव पास हुआ कि वैष्णो देवी की यात्रा पर जाया जाए और इसका टूर ऑपरेटर मुझे बनाया गया है. अब बताइए मुझे ये काम करना चाहिए या नहीं?” शर्मीलाजी ने अपने पति से पूछा.

“नहीं, तुम ये काम अकेले नहीं कर सकती.” अवतार सिंह ने अपना ़फैसला सुना दिया. शर्मीलाजी यह सुनकर बुझ गईं. उनका बहुत मन था कि काम के बहाने माता वैष्णो देवी के दर्शन भी हो जाएंगे.

“टिकट लेने, होटल बुक करवाने के लिए तुम कहां अकेली-अकेली फिरोगी. मैं भी इस काम में तुम्हारी मदद करूंगा.” अवतार सिंह की बात सुनकर शर्मीलाजी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. काम में पति का साथ मिले, एक पत्नी के लिए इससे बढ़कर और क्या हो सकता है? अवतारजी ने सलाह दी कि काम बड़ा है और इसमें कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, इसलिए मदद के लिए वे अपने दो दोस्तों को भी साथ ले लेंगे.

नेकी और पूछ-पूछ शर्मिलाजी को इससे बढ़कर और क्या चाहिए था!

शर्मीला और अवतार सिंह ने अपने दो रिटायर्ड दोस्तों और उनकी पत्नियों के सहयोग से वैष्णो देवी की यात्रा का आयोजन सफलतापूर्वक कर दिया.

वहां से लौटकर आने के बाद उन्हें चार धाम की यात्रा का कॉन्ट्रैक्ट मिल गया. अब इन सभी लोगों ने तय किया कि क्यों न वे इस काम को संगठित और व्यवस्थित रूप से करें और इसके लिए एक कंपनी बना ली जाए.

इस तरह सभी रिटायर्ड लोगों ने अपने जीवन के लिए एक नई राह बना ली है, जिस पर चलते हुए उन्हें लगता है कि अब बुढ़ापा बदरंग नहीं रहेगा. काम करते हुए बुढ़ापे को भी शान से जिया जा सकता है.

सुमन सारस्वत

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Usha Gupta

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