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कहानी- प्यार का सच (Short Story- Pyar Ka Sach)

एक बार फिर मेरा मन झूठे सपनों के पीछे भागने लगा था. कुछ दिनों बाद ही बीपीएससी का रिज़ल्ट भी आ गया था. मैंने परीक्षा पास कर ली थी. एक बार फिर मैं पटना में थी. मैं तुमसे मिलने तुम्हारे ऑफिस चली गई थी. तुमने जल्द ही मुझे अंदर बुला लिया था. मैं तुम्हारे सामने बैठी थी, पर न जाने क्यूं अपनत्व का कोई एहसास आज मुझे महसूस नहीं हो रहा था.

निरंतर भागता वक़्त भले ही आदमी के जीवन में उसके आचार-विचार और हालात सब बदल देता है, फिर भी व़क्त के शोकेस में आदमी के जीवन के कुछ लम्हे ज्यों के त्यों दिल के हिमखंड के नीचे अछूते पड़े रह जाते हैं, जिसे ताउम्र न व़क्त बदल पाता है, न आदमी ख़ुद मिटा पाता है. एक लंबा समय गुज़र जाने के बाद भी मैं क्या उस लिखे को चाहकर भी मिटा पाई हूं, जिसे कभी व़क्त ने मेरे अतीत के पन्नों पर लिखा था.

आज कितने दिनों बाद मैं घर में अकेली थी. वह भी छुट्टी के दिन. सासू मां मेरे बेटे विनायक और पति नवीनजी के साथ एक रिश्तेदार के घर गई थीं. फुर्सत के पल पाकर मैं सोना चाहती थी, पर एकाकी पल पाकर अतीत के पन्नों की फड़फड़ाहट कुछ ज़्यादा ही बढ़ने लगी थी. न चाहते हुए भी तुम्हारी बहुत याद आ रही थी, साथ ही वे अनकहे प्रश्‍न भी सामने आ खड़े हुए थे, जिनके उत्तर तुमसे पूछने थे, पर उत्तर मैंने ख़ुद ही ढूंढ़ लिए थे.

मैं मानती हूं कि जीवन में हम दोनों इतने आगे निकल आए हैं कि अब उन प्रश्‍नों के कोई मायने नहीं रह गए हैं, फिर भी मुझे लगता है कि कभी हम दोनों ने एक-दूसरे को टूटकर चाहा था. मेरे भविष्य की एक-एक योजना के तुम केंद्रबिंदु हुआ करते थे, फिर चुपचाप मेरे जीवन से पलायन कर मेरे जीवन में शून्यता और रिक्तता भर क्यूं मेरे जीवन को नीरस और बेज़ार बना दिया? बिना किसी अपराध के ठुकराकर, जो मेरा अपमान किया था, उसकी कचोट आज भी मुझे महसूस होती है.

भले ही हम दोनों ने कभी एक-दूसरे को ‘आई लव यू’ नहीं कहा था, फिर भी उस कच्ची उम्र में भी हम दोनों जानते थे कि हमारा प्यार शब्दों का मोहताज नहीं था. बिना बोले ही तुमने मुझे अपने प्यार का एहसास इतनी गहराई से करवाया था कि मैं तुम्हारे अलावा किसी और से शादी करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. कॉलेज में फर्स्ट ईयर से ही हम दोनों ज़िंदगी की धूप-छांव में साथ रहे. एक दिन भी तुम मुझे कॉलेज में नहीं देख पाते, तो मेरे घर के आसपास मंडराने लगते. सबकी नज़रों से छुपाकर दिए गए तुम्हारे एक-एक फूल को मैं भी कितने जतन से किताबों में छुपाकर रखती थी. फूलों का पूरा एक हरबेरियम ही तैयार हो गया था. आज भी वह हरबेरियम पटना में मेरे पढ़ने की आलमारी में रखा हुआ है, जो हमारे प्यार का गवाह है.

ग्रेजुएशन में तुम पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आए थे. तुम्हारी अलमस्त और बे़िफ़क्र ज़िंदगी में नौकरी की फ़िक्र भी मेरे ही कारण समा गई थी. इस फ़िक्र ने तुम्हें पूरी तरह विकल और बेचैन कर रखा था, जो तुम्हारे चेहरे से स्पष्ट दिखता था, जिसे महसूस कर मैंने एक फिल्मी डायलॉग मारा था.

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“चिंता क्यूं करते हो, सच्चा प्यार करनेवालों को मिलाने में सारी कायनात जुट जाती है.”

“चिंता कैसे ना करूं? कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली, तो तुम्हारे सारे फिल्मी डायलॉग धरे के धरे रह जाएंगे. तुम्हारे पिताजी ख़ुद इतनी ब़ड़ी पोस्ट पर हैं, मुझ जैसे साधारण परिवार के लड़के को क्या देखकर तुम्हारा हाथ सौंपेंगे? तुम्हारे घर की शानो-शौक़त भी तो कम नहीं है, जिसे देखकर मुझे दूर से ही घबराहट होने लगती है. तुम्हें पाने के लिए मुझे कम-से-कम एक उच्च पद तो प्राप्त करना ही होगा.”

फिर तुमने एमएसी की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर में दाख़िला लेने का फैसला कर लिया था. मेरे मना करने पर भी नहीं माने थे. तुमने कहा था, “अगर सम्मान से समाज में जीना है, तुम्हारा प्यार पाना है, तो मुझे दिल्ली जाना ही होगा. फिर शान से लौटकर तुम्हारे जीवन में आऊंगा. यह वादा है मेरा. इंतज़ार करना मेरा.”

तुम्हारे इसी आत्मविश्‍वास ने मुझे तुम्हारा इंतज़ार करने का हौसला दिया था. एमएसी करने के बाद दूसरे कोर्स करने के बहाने मैं अपनी शादी टालती रही. पूरे चार वर्ष गुज़र गए, पर तुमने मेरी कोई सुध नहीं ली. पापा जल्द-से-जल्द मेरी शादी कर अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते थे. मैं पल-पल तुम्हारे संदेश का इंतज़ार कर रही थी. तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रही थी, पर न तुम आए और न तुम्हारा कोई संदेश आया था. मेरा धैर्य समाप्त होने लगा था. तुम्हारी परवाह करते-करते मैं अपने परिवार के प्रति बेपरवाह भी तो नहीं हो सकती थी. पूरे पांच बरसों तक अपना विवाह टालती रही थी. अब पापा के सामने दलीलें देना बंद कर मैं ख़ामोश हो गई थी. एक के मान के लिए सबका अपमान नहीं कर सकती थी मैं. तुम्हारे विषय में कहां पता करती. तुम्हारा घर भी तो शहर के अंतिम छोर पर था, जिसका सही पता भी मेरे पास नहीं था.

पापा से भी कैसे तुम्हारे विषय में बात करती. तुमने कोई आधार ही नहीं छोड़ा था. साथ में एक झिझक भी थी, नारी सुलभ लज्जा और पारिवारिक संस्कार, जिसने मेरे होंठ सी रखे थे. मुझे पापा की इच्छा के सामने झुकना ही पड़ा था. तुमने भले ही मुझे रुसवा कर अपमानित किया था, पर मैं अपने आचरण से पापा को अपमानित और दुखी नहीं कर सकती थी, इसलिए मुझे उनके द्वारा तय की गई शादी को स्वीकारना ही पड़ा.

शादी की रस्में शुरू हो गई थीं. मैं दुल्हन थी, पर न चेहरे पर कोई ख़ुशी थी, न मन में कोई उल्लास. आंखें रो-रोकर फूल गई थीं, जिसे लोग मायका छूटने की व्यथा समझ रहे थे. नियति भी हमारे साथ न जाने कैसे-कैसे खेल खेलती है. शादी में मात्र चार दिन बाकी थे तब नैना, जो कभी हमारी क्लासमेट हुआ करती थी, ने मुझे बताया कि आज ही तुमसे उसकी मुलाक़ात हुई है. तुम एक आईएएस अधिकारी बन गए हो और टे्रनिंग समाप्त कर पटना लौटे हो. अपने पुराने सभी सहपाठियों से मिलना चाहते हो.

यह सब सुनकर मैं स्तब्ध रह गई थी. इतने दिनों बाद ख़बर मिली भी तो तब, जब रस्मों-रिवाज़ के साथ एक नए रिश्ते में बंधने की मेरी सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी. दिल चाह रहा था कि अभी भी समय है, सारे बंधन तोड़कर तुम्हारे पास चली आऊं. तभी दिमाग़ ने दिल पर लगाम लगाई. ट्रेनिंग समाप्त होने के बाद तुमने क्यूं ख़बर भेजी? पहले क्यूं नहीं मिलने आए? सच कहूं, तो उस समय घुटन की वेदना असहनीय हो उठी थी. पैर अवश हो गए थे. मैं धम्म् से बिस्तर पर बैठ गई थी. तुम पर इतना बड़ा विश्‍वास कैसे कर लेती. अब तक के तुम्हारे आचरण ने मुझे घुटन, दर्द, अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया था. तुमने अगर मुझसे अपने सारे संबंध तोड़ लिए थे, तो साफ़-साफ़ मुझे बताया होता. तुम्हारे प्यार का भ्रम ही टूट जाता. तुम्हारी चुप्पी को हां समझकर अब मैं अपने जन्मदाता के अपमान और कलंक का कारण नहीं बन सकती थी. दोनों कुल को कलंकित नहीं कर सकती थी.

मन की गति भी कितनी विचित्र होती हैं, जिसके बिना जीने की कल्पना तक नहीं की थी, जिसके साथ भविष्य के अनगिनत ताने-बाने बुने थे मैंने, उसी की सारी यादों को रद्दी पेपर की तरह लपेटकर शादी के हवन कुंड में डाल एक अजनबी के साथ कदम-से-कदम मिलाकर सात फेरे ले, पूरी निष्ठा से उसके साथ जीवन में आगे बढ़ गई थी.

ससुराल आकर मैं सामान्य रूप से रस्मों-रिवाज़ और कर्त्तव्यों का पालन सही ढंग से करने की कोशिशें कर रही थी, पर मन था कि तुम्हारे ही सपने देखने लगता. नवीनजी के स्थान पर मन में तुम ही नज़र आते, यह जानते हुए कि जीवन अपनी ही बनाई शर्तों पर चल रहा है. तुम्हारे विषय में सोचना व्यर्थ है. मन को बहलानेवाली बात है.

धीरे-धीरे तीन वर्ष गुज़र गए. इन बरसों में मेरे जीवन में ढ़ेर सारे परिवर्तन आए. वैसे भी शादी के बाद लड़कियों के जीवन की दिशा और दशा दोनों ही बदल जाती है, जो उसे प्रलय को भी झेलने की शक्ति देती है. नए परिवेश में नए लोगों के साथ सामंजस्य  बैठाने की चेष्टा में उसका पूरा व्यक्तित्व ही बदल जाता है, उसमें पहले से भिन्न एक नई आत्मा का प्रवेश हो जाता है, जिसमें उसके जीवन की हर पुरानी बात अतीत की परछाईं मात्र रह जाती है. वैसे भी समय की गति इतनी तेज़ होती है कि जीवन के हर विनाशकारी तत्वों को अपने साथ बहा ले जाती है, तब होती है एक नए सृजन की शुरुआत. एक नई दुनिया का आवाहन. मैं भी एक नए सृजन में व्यस्त हो गई थी.

इन गुज़रे बरसों में  मेरे तमाम अनसुलझे-अनकहे सवालों के जवाब भले ही नहीं मिले, पर एक परिवर्तन ज़रूर मेरे अंदर आया. मैं नवीनजी से धीरे-धीरे बहुत प्यार करने लगी. जब मेरे अंदर किसी नए मेहमान के आने का आगाज़ हुआ, अपने अंदर उसके दिल की धड़कनें सुनाई देने लगीं, सारी विनाशकारी सोच समाप्त हो गई. उसके आने के उत्साह से ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारी यादों पर धूल जमने लगी. मेरा जुड़ाव इस घर में रहनेवाले लोगों से हो गया. इस घर के हर सुख-दुख से मैं इस कदर जुड़ गई थी कि यहां की हर वस्तु मेरी अपनी हो गई थी. यहां से जितना अपनापन बढ़ रहा था, तुमसे उतना ही परायापन बढ़ने लगा. सच कहूं तो तुमसे मोहभंग हो गया.

नवीनजी भी मुझे बहुत प्यार करने लगे थे. भरपूर मान-सम्मान देते थे. मैं ख़ुश थी कि वह मेरे माता-पिता की कसौटी पर भी खरे उतरे थे, इसलिए मेरे मायकेवाले भी मेरा सुख देखकर सुखी थे. बस, एक ही बात मन में हमेशा उमड़ती-घुमड़ती रहती थी कि एक बार तुमसे आमने-सामने आकर अपने अनसुलझे प्रश्‍नों के उत्तर पूछूं.

पूछूं तुमसे कि मुझे यूं रुसवा करने का कारण क्या था? वह मौक़ा भी मुझे मिल ही गया था, जब मैं बीपीएससी की लिखित परीक्षा पास कर इंटरव्यू देने पटना गई थी. इंटरव्यू बोर्ड में तुम भी थे. पहले से ही मैं काफ़ी नर्वस थी. सामने तुम्हें बैठे देख मेरा मन और भी घबरा गया था, पर तुम पहले की तरह ही संकुचित और ख़ामोश बैठे मुझे देख रहे थे. जब प्रश्‍न पूछने की तुम्हारी बारी आई, तो बहुत ही अपनत्वभरे व्यवहार से तुमने मुझसे प्रश्‍न पूछे थे. एक बार तो मुझे यह भी लगा कि तुम मेरी सहायता करना चाह रहे हो, फिर तो मैं ज़्यादा देर तक तुमसे नाराज़ नहीं रह पाई थी. मुझे तुम्हारा वहां होना अच्छा लगने लगा.

इंटरव्यू के बाद जब मैं बाहर निकलकर कैंपस में बने बेंच पर आकर बैठी, तो दिल की धड़कनों पर काबू रखना मुश्किल हो रहा था. अभी जो आत्मीयता इंटरव्यू के दौरान महसूस हुई थी, वह बरसों पहले हम दोनों के बीच की आत्मीयता की याद दिला गई. अभी मैं उलझन में ही थी कि तुम्हारा ड्राइवर आकर मुझसे बोला था, “मुझे साहब ने भेजा है, चलिए आपको घर छोड़ दूं.”

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दूर खड़े तुम मुस्कुरा रहे थे, तब मुझे लगा था कि मैं ग़लत नहीं थी. तुम अब भी मुझे प्यार करते हो. मेरा साथ चाहते हो. मुझे ख़ुद को ख़ास होने का आभास होने लगा था. उतनी ही शिद्दत से तुम्हारे प्यार को खो देने का मलाल भी हुआ था. एक चुंबकीय शक्ति मुझे तुम्हारी ओर खींचने लगी थी. मेरी बरसों की शांति भंग हो गई थी.

एक बार फिर मेरा मन झूठे सपनों के पीछे भागने लगा था. कुछ दिनों बाद ही बीपीएससी का रिज़ल्ट भी आ गया था. मैंने परीक्षा पास कर ली थी. एक बार फिर मैं पटना में थी. मैं तुमसे मिलने तुम्हारे ऑफिस चली गई थी. तुमने जल्द ही मुझे अंदर बुला लिया था. मैं तुम्हारे सामने बैठी थी, पर न जाने क्यूं अपनत्व का कोई एहसास आज मुझे महसूस नहीं हो रहा था. आईएएस ऑफिसर बन जाने की शालीनता तुम्हारे चेहरे से झलक रही थी. तुम पहले से काफ़ी स्मार्ट नज़र आ रहे थे. मुझे देख बेचैनी से पहलू बदलते हुए तुमने कहा था, “तुम्हारा बीपीएसी में सिलेक्शन हो गया, यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई. तुम्हें मेरी हार्दिक बधाई. तुम जॉइन करने की तैयारी करो, मुझे एक काम से जाना है.”

तुम उठ गए थे. मैं भी तुम्हारे साथ बाहर आ गई थी. मैं घर लौट आई थी. मुझे आभास हो गया था कि इधर कुछ दिनों से जो मैं सोच रही थी, वह मेरा भ्रम मात्र था. समय के साथ अब तुम्हारी सोच शायद बदल गई थी. कम उम्र का प्यार, तुम्हारी नज़रों में अब शायद बचपना था, जिसमें कोई गहराई नहीं थी. अब तुम्हारी सोच परिपक्व हो गई थी, इसलिए तुम्हारा मुझे आज की तरह छोड़कर चले जाना ही सत्य था, बाकी सब नज़रों का धोखा. बदलते परिवेश में तरुणाई का बचपनवाला प्यार, तुम्हारी नज़रों में शायद नासमझी और पागलपन साबित हुआ था, इसलिए निरस्त हो गया. तभी सब कुछ तुमने आसानी से भुला दिया.

घर आई तो प्रभु दौड़कर मुझसे लिपट गया. उसकी आवाज़ से मेरे मन के सोए हुए तार झंकृत हो गए. उसे सीने से लगाकर मैं रो पड़ी थी. रोने का कारण नहीं समझने पर भी नवीनजी ने आगे बढ़कर मुझे संभाल लिया था. मैंने अपना सिर नवीनजी के सीने पर टिका दिया था. लंबे झंझावातों के बाद एक गहरी शांति का अनुभव हुआ. मुझे अपने सारे प्रश्‍नों के उत्तर जैसे मिल गए थे. अब यही सत्य था. यही मेरी दुनिया थी. यही मेरा प्यार था. बाकी सब मिथ्या था, भ्रम मात्र तभी कॉलबेल की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हो गई. अतीत के पन्ने ख़ुद-ब-ख़ुद सिमटकर बंद हो गए. मन यथार्थ को टटोलता उससे जुड़ने लगा था. शायद घर के लोग वापस आ गए थे.

 

   रीता कुमारी

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