कहानी- पछतावा 5 (Story Series- Pachhtava 5)

तभी श्लोका के मन मे हूक उठी.

‘जीवन को जटिल समझो, तो उसे जीना कितना मुश्किल लगता है. एक पेड़ हर मौसम को अपनी नियति मानकर बड़ी सहजता से सब कुछ झेल लेता है. बस, ज़रा-सा अपना नज़रिया बदलने ही की तो बात है…
क्षणभर कुछ सोचकर वह उठी.

 

… सुधा की शादी के लिए उसने अपनी सारी जमा-पूंजी ख़र्च कर दी थी. शादी से पहले या बाद में यह ज़िम्मेदारी तो उसे निभानी ही थी. यह सोचकर उसने सुधा की शादी में कोई कसर न छोड़ी थी.
सुधा की शादी के बाद से व्योमेष का श्लोका से मिलना-जुलना कम हो गया था. अब उनकी केवल फोन पर बातें होती. काम की अधिकता का बहाना बनाकर वह अक्सर मिलने की बात टाल जाता. श्लोका ही कभी-कभी उसके घर चली आती.
एक दिन वह व्योमेष के घर गई, तो अचानक वहां एक अपरिचित नवविवाहिता को देखकर चौंक गई. बड़ी सहजता से व्योमेष की मां ने उसके कौतुहल को शांत किया.
“यह हमारी बहू मीनू है.”
“बहू?”
“हां व्योमेष की पत्नी. वर्षों पहले व्योमेष की शादी मीनू से हो गई थी. गौना नहीं हुआ था. सुधा की शादी के बाद इसका गौना करवा लाए हैं.” श्लोका को उनके कहे चंद शब्द ही सुनाई दिए इससे आगे वह कुछ न सुन सकी. अपने स्वार्थ के लिए कितना बड़ा छलावा किया था व्योमेष और उसके परिवार ने उसके साथ? अपनी ज़िम्मेदारी का बोझ उतारने के लिए उन्होंने उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया था. वह उलटे पैर घर लौट आई. कहने-सुनने की कोई गुंजाइश न थी. सारी तस्वीर साफ़ हो गई थी. इस घटना के बाद वह हफ़्तों रोती रही.
जुलाई का महीना था. श्लोका के लिए अपने को संभालना बहुत मुश्किल हो रहा था. पहले पति रोमेश और राजुल की मौत को उसने किसी तरह सीने पर पत्थर रखकर झेल लिया था. तब से दुनिया के सारे रंग उसके लिए फीके हो गए थे. आख़िर वह जिये भी तो किसके लिए? यही प्रश्न उसके मन में कौंधता रहता. एक ही झटके में उसकी बसी-बसाई दुनिया उजड़ गई. उसे कुछ करने का मौक़ा ही न मिला. रोमेश के स्कूटर पर टक्कर बस ने ही नहीं मारी थी, वरन काल ने ही श्लोका के भाग्य पर सीधा प्रहार किया था.
किसी तरह अपने को फिर से समेट कर श्लोका ने नई ज़िंदगी जीने के लिए ख़ुद को तैयार किया था, पर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था.
दो वर्षों तक श्लोका के साथ जीने-मरने की क़समें खाने वाले व्योमेष ने एकदम से नजरें फेर ली और मीनू के साथ गृहस्थी बसा ली. एक बार फिर से वह अकेली पड़ गई. उसे गहरा सदमा लगा था. उसके दिमाग़ ने काम करना लगभग बंद ही कर दिया था. रोमेश की मौत पर अपनों ने श्लोका का बड़ा मनोबल बढ़ाया था. इस बार कोई उसके साथ न था. होता कैसे? दिल के टूटने की आवाज़ बाहर नहीं जा सकी थी. बस, आंसू बनकर श्लोका के आंखों से बह रही थी.
न घरवालों की मर्ज़ी से की गई शादी टिक सकी, न ही जांच-परख कर दिल की आवाज़ पर मनपंसद साथी ने उसका साथ दिया. स्कूल से घर आकर वह अपना कमरा बंद कर लेती और टीवी चलाकर छोड़ देती. वह घंटों आंसू बहाते हुए बेसुध पड़ी रहती. वह अक्सर सोचती रहती भरी-पूरी गृहस्थी पहले एक पल में लुट गई. व्योमेष को मज़बूत सहारा मानकर एक बेल की तरह उसने उसका आश्रय पाना चाहा, तो उसने उसे अपने से एक झटके में दूर फेंक दिया. वह फिर से अकेली उसी हाल में पड़ी थी.
तभी श्लोका के मन मे हूक उठी.
‘जीवन को जटिल समझो, तो उसे जीना कितना मुश्किल लगता है. एक पेड़ हर मौसम को अपनी नियति मानकर बड़ी सहजता से सब कुछ झेल लेता है. बस, ज़रा-सा अपना नज़रिया बदलने ही की तो बात है…
क्षणभर कुछ सोचकर वह उठी. उसने खिड़की से बाहर झांका आसमान में घने काले बादल छाये हुए थे और वह कभी भी बरस सकता था. श्लोका ने किसी तरह साहस जुटाकर कपड़े बदले और बाल संवारे. छाता लेकर वह कमरे से बाहर निकल आई. खुले आसमान के नीचे आसपास के पेड़ों को वह बडे़ ध्यान से देखने लगी. उनके अपने होने का ढंग उसे बड़ा सुकून दे रहा था. तभी अचानक बारिश शुरू हो गई. श्लोका ने अपने कदमों को पीछे नहीं मोड़ा उसने छाता खोला और आगे बढ़ गई. बारिश में भीगना उसे आज बहुत भला लग रहा था. कभी बचपन में इस तरह खुले आकाश के नीचे वे घंटों बारिश में भीगते थे.
आज इस उम्र में इज्जत की पतली सी छतरी लगाकर श्लोका बारिश का मज़ा ले रही थी, जितनी बारिश तेज हो रही थी, उतनी ही श्लोका अंदर से हल्की होती जा रही थी.

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बारिश की बूंदों के साथ आंखों से झरते आंसू अलग पहचानने मुश्किल थे. बहुत देर तक बारिश में भीगकर वह घर लौट आई. दिल पर जमी पछतावे की परतें बारिश के साथ धुल गई थीं. वर्तमान को उसके स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर वह अपने को बहुत सहज महसूस कर रही थी.


डॉ. के. रानी

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Usha Gupta

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