रवीश से अलग होने के बाद आपने मुझे सहारा दिया. सच मानिए राखी का ऋण उऋण हो गया. आप जैसा भाई क़िस्मतवालों को ही मिलता है. किंतु मैं जानती हूं कि हर भाई की भी अपनी सीमाएं होती हैं और अपना संसार होता है. हेमा भाभी ने मुझे धक्का दिया था, तो आपकी आंखो में आंसू छलक आए थे.
शाम का धुंधलका घिरने लगा था. कलरव करते पंक्षी घोंसलों की ओर लौट रहे थे. खिड़की की सलाखों पर सिर टिकाए दीपा एकटक उन्हें देखे जा रही थी. एक अजीब-सा शून्य समाया हुआ था उसकी आंखों में. ये पंक्षी रोज़ घोंसलों में क्यूं लौटते हैं? अचानक नागफनी-सा प्रश्न उसके अन्तर्मन में उग आया. उत्तर सहज था, किंतु न जाने क्यूं खो सा गया था.
अंधेरा गहरा गया था. पीछे मुड़कर उसने बिजली का स्विच ऑन किया, तो पूरा कमरा रौशनी से भर उठा. इसी के साथ प्रश्न का खोया हुआ उत्तर सामने आ गया. पंक्षी घोंसलों में लौटते हैं नई उड़ान भरने हेतु विश्राम के लिए तो क्या उसे भी अब नई उड़ान भरने के लिए तैयार हो जाना चाहिए? हां, प्रश्न कौंधने से पहले ही उत्तर सामने आ गया. चार-छह महीने की जलालत और सहने के बाद जो होनेवाला है वह आज ही हो जाए, तो ज़्यादा अच्छा रहेगा.
दीपा की आंखों में दृढता के चिह्न उभर आए. ड्राॅअर खोल कर उसने काग़ज़-कलम निकाला और खत लिखने बैठ गई.
आदरणीय भैया,
रवीश से अलग होने के बाद आपने मुझे सहारा दिया. सच मानिए, राखी का ऋण उऋण हो गया. आप जैसा भाई क़िस्मतवालों को ही मिलता है. किंतु मैं जानती हूं कि हर भाई की भी अपनी सीमाएं होती हैं और अपना संसार होता है. हेमा भाभी ने मुझे धक्का दिया था, तो आपकी आंखो में आंसू छलक आए थे. मैंने उसी दिन देहरादून के एक डिग्री काॅलेज में नौकरी के लिए आवेदन भेज दिया था. ऑनलाइन इंटरव्यू के बाद नियुक्ति पत्र आए 15 दिन बीत गए है, किंतु मैं आपको बताने का साहस नहीं जुटा सकी. परसों मेरी ज्वाइनिंग की अंतिम तारीख़ है, इसलिए आज मैं जा रही हूं. जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्यार करते हैं और मेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकते. यक़ीन मानिए मैं भी आपको उतना ही प्यार करती हूं और आपके आंखों में आंसू नहीं देख सकती, इसलिए यहां से जा रही हूं. शायद यही हम सबके लिए अच्छा होगा.
आपकी प्यारी बहन,
दीपा
दीपा ने पत्र को दो बार पढ़ा, फिर आंखों से लगाकर चूमा. इस बीच आंखों से गिरी एक बूंद खत में लिखे उसके नाम को कब भिगो गई, उसे ख़ुद पता नहीं चला. उसने पत्र को मेज पर रखे पेपरवेट के नीचे दबाया, फिर सूटकेस में अपना सामान रखने लगी.
घर में ताला बंद कर वह बाहर आई और बगलवाले घर की काॅलबेल दबाने लगी. थोड़ी ही देर में एक अधेड़ महिला बाहर निकली. दीपा ने चाभी उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘आंटी, मैं ज़रूरी काम से देहरादून जा रही हूं. प्रखर भैया ने कहा है कि घर की चाभी आपको दे दूं.’’
“ठीक है बेटा, अपना ध्यान रखना. ज़माना बहुत ख़राब है.’’ महिला ने चाभी लेते हुए नसीहत दी.
ज़माना ही तो ख़राब है. दीपा ने गहरी सांस भरी और स्टेशन की ओर चल दी. देहरादून जानीवाली अंतिम ट्रेन आनेवाली थी. सौभाग्य से उसमें एक बर्थ मिल गई.
ट्रेन अपनी पूरी गति से दौड़ी जा रही थी. दीपा का अन्तर्मन भी पूरी गति से दौड़ रहा था. उसे याद आ रहा था कि उस दिन सूनसान स्टेशन पर किसी ने पूछा था, ‘‘मैडम, आप कहां तक जाइएगा?’’
दीपा तय नहीं कर पाई कि उस अजनबी को कोई तीखा उत्तर दे या ख़ामोश रहे. अनजान जगह पर वह किसी झंझट में नहीं फंसना चाहती थी. दरअसल, उसे बलरामपुर के एक महाविद्यालय में प्रवक्ता के पद हेतु साक्षात्कार देने जाना था. बरेली से छोटी लाइन की ट्रेन से वह साढ़े चार बजे सीतापुर आ गई थी. यहां से 6 बजे दूसरी ट्रेन मिलनी थी, जो तीन घंटे में बलरामपुर पहुंचा देती. किंतु यहां पहुंचने पर पता चला कि वह एकलौती ट्रेन 12 घंटे लेट है. इस छोटे से स्टेशन पर जो यात्री उतरे थे, वह थोड़ी ही देर में चले गए. उसके बाद पूरे स्टेशन पर भयावह सन्नाटा छा गया था. धीरे-धीरे शाम गहराने लगी. बेंच पर बैठी दीपा की समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करें.
‘‘मैडम, आप कहां तक जाइएगा?’’ तभी एक प्रश्न उसे अपने क़रीब आता हुआ महसूस हुआ…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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