“तुम बनोगी उसकी भाभी?” व्योमेष ने सीधे पूछा, तो श्लोका सकपका गई.
“मैंने इस बारे में अभी सोचा नहीं हैं.”
“इत्मिनान से सोच लेना मुझे भी कोई जल्दी नहीं है.”
“शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं विधवा हूं…”
… इस संवेदनशील मुद्दे पर उसने अपना राज़दार किसी को भी नहीं बनाया. यहां तक कि अपनी मां को भी इसकी भनक न लगने दी. मां के सामने बेटी की दुनिया उजड़ जाए इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है? दिल पर पत्थर रखकर बूढ़ी आंखों नें बेटी की उजड़ी मांग और कोख देखी. कलेजा मुंह को आ गया था उनका. फिर भी बेटी को हिम्मत बंधाने के लिए उन्होंने आंसुओं का रूख बाहर की बजाय अंदर कर लिया था.
मां चाहती थीं श्लोका अपना घर फिर से बसा ले. कई बार परोक्ष संकेत भी दे चुकी थी, पर उसने अपने और व्योमेष के रिश्ते को लेकर ज़ुबान नहीं खोली थी.
श्लोका को लग रहा था कि उसके दिल और दिमाग़ पर व्योमेष का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है. व्योमेष की मां और सुधा के प्रति भी अपना लगाव दिखाने के लिए वह उनके लिए ढेरों उपहार ख़रीदती. उसे यक़ीन हो गया था कि उसने मां-बेटी का दिल जीत लिया है. अक्सर व्योमेष ही उसे बताता कि सुधा उसकी कितनी तारीफ़ करती है.
“जब से तुम सुधा से मिली हो, वह अपने भाई को तो भूल ही गई. बस, हर वक़्त तुम्हारी तारीफ़ करती रहती है.”
“ऐसा क्या किया है मैंने?”
“यह तो तुम ही जानो. कल मां से कह रही थी मुझे ऐसी ही भाभी चाहिए.” व्योमेष बोला, तो श्लोका के गाल सुर्ख हो गए.
वह बोली, “तो ला दो उसे भाभी.”
“तुम बनोगी उसकी भाभी?” व्योमेष ने सीधे पूछा, तो श्लोका सकपका गई.
“मैंने इस बारे में अभी सोचा नहीं हैं.”
“इत्मिनान से सोच लेना मुझे भी कोई जल्दी नहीं है.”
“शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं विधवा हूं…”
“मुझे और मेरे घरवालों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.”
“पर मुझे तो पड़ता है. मुझे इस बारे मे सोचने के लिए वक़्त चाहिए व्योमेष .” श्लोका बोली, तो व्योमेष ने प्यार से उसका हाथ थाम लिया. श्लोका के शरीर का कसाव ढीला पड़ने लगा और वह कब उसके सीने से लग गई उसे ख़ुद पता नहीं चला. व्योमेष ने ही उसे अपने से धीरे से अलग किया. व्योमेष के घरवालों की मर्ज़ी जानकर वह उनके प्रति पहले से और अधिक उदार हो गई.
व्योमेष चाहता था कि सुधा का विवाह उससे पहले हो जाए, जिससे उसे बिरादरी को कोई जवाब न देना पड़े. व्योमेष ने जल्दी ही एक अच्छा-सा लड़का ढूंढ़कर सुधा का रिश्ता पक्का कर दिया. श्लोका ने होनेवाली ननद के लिए दिन खोलकर ख़र्च किया था. छह माह के अंदर उसकी शादी हो गई. सुधा उसके सीने से लगकर बहुत रोई थी.
“तुम्हारी वजह से ही मेरी शादी संभव हो सकी है, वरना भैया के बस का इतना दहेज देना न था. मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी.”
“अपनों का एहसान कैसा? यह तो मेरा फर्ज़ था.” कहते हुए श्लोका का गला भर आया.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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