कहानी- जैनिटर से मिला गुरु ज्ञान 1 (Story Series- Jenitor Se Mila Guru Gyan 1)

लंच ब्रेक में उनसे हुई लम्बी वार्ता के पश्चात् उन्होंने मुझे अपने विश्वविद्यालय में एक वरीय शोधकर्ता के रूप में काम करने का निमंत्रण दिया; साथ ही मुझे ग्रीन कार्ड दिलवाने का भी वादा किया. हालांकि उस समय तक तो मैं ग्रीन-कार्ड का अर्थ भी नहीं समझता था. लौट कर जब यह बात मैंने घर पर बताई, तो लोगों की प्रतिक्रियाओं के अन्तर से मैं स्वयं अचंभित हो गया.

 

 

आज सुबह मोबाइल की घंटी ने ही जगाया; मैं तो शुभांगी के फोन का इंतज़ार कर रहा था, पर लाइन पर एम्स्टर्डम से रोहन था. रोहन, मेरा पुत्र अपनी कंपनी के काम से सपत्नीक वहां गया हुआ था और शुभांगी अपनी चचेरे भाई से मिलने फिनिक्स. शनिवार की सुबह, घर में अकेला मैं और कोई काम भी नहीं, ऐसे में समय काटना कितना मुश्किल हो जाता है? शायद गुज्जू भाई जगन के शब्दों में हम भी वर्कोहलिक बन चुके हैं. अपने दोस्त जगन के बारे में आगे बताऊंगा. भले कोई काम न हो, पर बिछावन पर कब तक कोई लेटा रहेगा. तैयार होकर पेपर में स्वयं को उलझाने की कोशिश की, पर सफल न हो सका. अंत में लैपटॉप को टीवी से जोड़ा और पुरानी तस्वीरों का एलबम खोल कर उसके सामने जम कर बैठ गया. ऐसे में समय काटने का यह एक अच्छा तरीक़ा है. उन चित्रों के साथ मैं भी टाइम ट्रेवल करता जा पहुंचा हिंदुस्तान; वर्ष 1980 का हिंदुस्तान. आज के भारत की तरह नहीं था वह. बड़ी सुकून की ज़िन्दगी थी वहां, विशेष रूप से छोटे शहरों की.
विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री मिली और संयोग से उसी विभाग में व्याख्यता का रिक्त पद भी. नई उम्र, मनपसंद नौकरी, कुछ करने का उत्साह और उस पर ठीक ठाक वेतन; एक सामान्य मध्यमवर्ग के नवयुवक को इससे ज़्यादा क्या चाहिए था. फिर मुझ पर तो पूरे परिवार की उम्मीद लगी थी. पिता ने तो मुझ पर ही सारा दांव लगा दिया था; उन्हें भरोसा था बेटा उनके बुढ़ापे के साथ अपने छोटे भाई-बहनों का भी ख़्याल रखेगा. मैं ने पूरी कोशिश की परिवार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की.
नौकरी के पहले दिन से ही घर की सारी ज़िम्मेवारी मुझ पर आ गई. मगर शिक्षा और शिक्षण के प्रति जो अनुराग मेरे अध्यापकों ने मुझमें पैदा कर दिया था उसने मुझे विषय से भी जोड़े रखा. मैं उससे एक पल के लिए भी विमुख न हो सका. अध्यापन के साथ-साथ शोध कार्य में अनवरत लगा रहना, मित्रों और परिवार के सदस्यों के लिए एक कौतूहल की बात थी. भला पीएचडी के बाद भी कोई शोध होता है. लब्बो-लुबाब यह कि सारे काम साथ-साथ चल रहे थे और उसी दौरान पता भी न चला शुभांगी कब और कैसे धीरे से मेरे जीवन में दाख़िल हो गई.
दोनों तरफ़ के अभिभावकों ने उस रिश्ते को स्वीकार कर मेरी ज़िन्दगी को एक सुखद मोड़ प्रदान कर दिया. परिवार का हिस्सा बनते शुभांगी ने मेरी जिम्मेवारियों को स्वेच्छा से अपना बना लिया; इससे मुझे शोध के लिए अधिक समय मिलने लगा. उसका लाभ भी उम्मीद से पहले प्राप्त हो गया.

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बॉम्बे, तब वह मुंबई नहीं बना था में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मलेन में अमेरिका से आए एक प्रोफेसर से मुलाक़ात हो गई. मेरे प्रकाशित शोध पत्रों को देखकर उन्होंने मेरे कार्य के बारे में विस्तार से जानना चाहा. लंच ब्रेक में उनसे हुई लम्बी वार्ता के पश्चात् उन्होंने मुझे अपने विश्वविद्यालय में एक वरीय शोधकर्ता के रूप में काम करने का निमंत्रण दिया; साथ ही मुझे ग्रीन कार्ड दिलवाने का भी वादा किया. हालांकि उस समय तक तो मैं ग्रीन-कार्ड का अर्थ भी नहीं समझता था. लौट कर जब यह बात मैंने घर पर बताई, तो लोगों की प्रतिक्रियाओं के अन्तर से मैं स्वयं अचंभित हो गया. अम्मा-बाबू जी चुप हो गए, छोटे भाई-बहन मायूस, पर शुभांगी की ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…


प्रो. अनिल कुमार

 

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Usha Gupta

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