… मुझे कभी याद नहीं कि हमने कुछ ढूंढ़ा हो कभी. हर सामान की अपनी एक ख़ास जगह थी. शक्कर का डिब्बा पहली रैक पर तीसरे नंबर पर होगा और काले नमक की शीशी दूसरी रैक पर चौथी. ये बातें हमारे यहां आए मेहमानों को अजीब लगती थीं, लेकिन हमारे लिए सामान्य थीं. और इसमें कुछ ख़ास मुझे तब तक नहीं लगा, जब तक नीलू मेरी ज़िन्दगी में नहीं आ गई. मां-पापा को देखकर मुझे लगता था, केवल यही जोड़ी बेमेल है. मैं ग़लत था, हमारी जोड़ी में भी कोई मेल नहीं था.
“पापा, उठो ना. आई कार्ड नहीं मिल रहा मेरा.” चिंटू परेशान आवाज़ में मुझे जगा रहा था. मैं ऊंघते हुए उठा. नीलू हैरान-परेशान इस कमरे से उस कमरे भाग रही थी. चिंटू की स्कूल वैन का ड्राइवर बीसियों बार हॉर्न बजा चुका था, तब तक रसोई से नीलिमा विजयी मुद्रा में बाहर निकली.
“ये ले बेटा, मिल गया. फ्रिज में था.”
एक झटके में मेरी नींद उड़ चुकी थी, “फ्रिज में आई कार्ड?” मैंने हैरत से पूछा.
नीलू बड़े आराम से बोली, “इसने मुझे दिया था, तब मैं सब्ज़ी का थैला हाथ में लिए थी. उसी में रख दिया आई कार्ड और वो थैला सीधे फ्रिज में. अच्छा राघव, ये सब छोड़ो. पहले बताओ चाय लोगे या गुनगुना पानी?”
कुछ कहते हुए मैं रुक गया. घर तो बदतर हालत में नीलू हमेशा से ही रखती थी, लेकिन फ्रिज से आई कार्ड निकलना. ये एक नई उपलब्धि थी.
हम इंसान जुझारू कौम के होते हैं. हमें आसानी से हार नहीं माननी चाहिए. कोशिश करो, तो क्या हासिल नहीं हो सकता. एक पत्थर मारो, तो आसमान में छेद हो सकता है… वगैरह वगैरह. ऐसी कितनी ही ज्ञानवर्धक बातें शादी के बाद फ़ालतू लगने लगती हैं. अरे गायब हो जाता है वो जुझारूपन और कोशिशें… जैसी मेरी हो गईं.
कितने पत्थर मारे आसमान में, सब वापस आकर मुझे ही लगे. नीलू के अंदर सफ़ाई प्रेम तो आया नहीं, धीरे-धीरे मैं भी ढीला पड़ने लगा था. पहले ये सब देखकर जहां 440 वोल्ट का करंट लगता था, वहीं अब हल्का-सा झटका महसूस होता था.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
लकी राजीव
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